- खनन प्रभावित इलाकों में पर्यावरण पर पड़ते असर की बात तो खूब होती है पर एक बड़ी आबादी के बढ़ते कष्ट का जिक्र लगभग नहीं के बराबर होता है।
- खनन वाले इलाकों में काम करने वाले जानकारों ने पाया है कि ऐसे इलाकों में महिलाओं की तस्करी और उनके खिलाफ अपराध की घटनाएं अधिक होती हैं।
- जानकारों का दावा है कि खनन वाले इलाकों में महिलाओं के सामने घरेलू काम करने के अलावा और कोई रोजगार का अवसर नहीं होता है। खनन कंपनियां भी महिलाओं की बेहतरी के लिए कुछ खास नहीं करती।
मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिला खनन के लिए जाना जाता है। खदान क्षेत्र की सैकड़ों महिलाओं को जबरन देह-व्यापार में घसीट लिया गया। खनन के फायदे और नुकसान पर हो रही बहस में कहीं इसका जिक्र दिखा क्या आपको? नहीं न।
खनन के प्रभाव की जब बात होती है तो अक्सर आस-पास के क्षेत्र की बिगड़ती आबो-हवा का जिक्र किया जाता है। पर इस बातचीत में खनन से प्रभावित होने वाला महिलाओं का बड़ा तबका अक्सर छूट जाता है। जबकि खनन क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं का जीवन इससे बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है।
बस सिंगरौली जिले का एक उदाहरण देखिए। इस जिले बाल कल्याण समिति की सदस्य मंजू सिंह बताती हैं कि जिले में खनन प्रभावित क्षेत्र से वास्ता रखने वाली 650 महिलाओं ने खुद को देह व्यापार में शामिल होना स्वीकार किया।
“इन महिलाओं को जबरन इस काम में झोंका गया है। उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था। न उनके पास जमीन थी न ही कोई और कायदे का काम। कई ऐसे मामले हैं जिनमें सिंगरौली की युवा महिलाओं को मध्यप्रदेश के अलावा राजस्थान, पंजाब, हरियाणा जैसे दूसरे राज्यों में काम दिलाने के बहाने बेच दिया जाता है,” सिंह ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत के दौरान बताया।
सिंगरौली कोई इकलौता उदाहरण नहीं है। खनन-प्रभावित इलाकों का अध्ययन करने पर जानकारों ने पाया है कि इन इलाकों में रहने वाली महिलायें तरह-तरह की प्रताड़ना झेलने को अभिशप्त हैं। महिलाओं को घर के काम के अलावा अधिक कमाई के लिए कई दूसरे कामों के लिए भी मजबूर किया जाता है। देह-व्यापार जैसे गैर कानूनी काम में भी इन्हें जबरन शामिल होना पड़ता है। परिणामस्वरूप, इन इलाकों में मानव तस्करी की घटनाएं भी अधिक सामने आती हैं।
धात्री रिसोर्स सेंटर की निदेशक भानुमति कल्लुरी ने खनन वाले इलाके में इस बारे में गहन शोध किया है। उनकी संस्था महिला और बच्चों के अधिकार के मुद्दे पर काम करती है। वह मानती हैं कि खनन प्रभावित क्षेत्र में महिलाओं की अनदेखी होती है और उनके मुद्दे अक्सर गौण ही रह जाते हैं।
“भारत में खनन वाले इलाकों अक्सर जंगल में होते हैं। यहां लोग खदानों की वजह से अपनी जमीन गंवा चुके होते हैं और रोजगार का कोई दूसरा अवसर मौजूद नहीं होता है। इसका असर परिवारों पर होता है। यहां महिलाओं को या तो पुरुषों पर निर्भर होना पड़ता है या फिर मजदूरी के काम में उन्हें धकेल दिया जाता है। सबसे बुरी बात यह है कि देश में महिलाओं पर होने वाली चर्चाओं में इन महिलाओं के मुद्दे को शामिल नहीं किया जाता,” कल्लुरी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
खान अधिनियम, 1952 कहता है कि महिलाओं को खुले खदानों में रात के वक्त काम में नहीं लिया जा सकता है। हालांकि, खनन के क्षेत्र में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही महिलाएं और खदानों में महिला कर्मचारी संघ अपने लिए बराबरी के मौके की मांग कर रही हैं।
फरवरी 2019 में भारत सरकार ने खनन कंपनियों को महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर काम का अच्छा माहौल प्रदान करने के लिए मानक प्रक्रियाओं को बनाने के लिए कहा था।
यद्यपि रात में महिलाओं को खदान में काम करने की अनुमति नहीं है। इसके बावजूद भी उनके जीवन पर खनन का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से असर हुआ है।
कल्लुरी ने जोर देते हुए कहा कि खदानों के आसपास हवा-पानी और जमीन प्रदूषित हो जाती है। इससे न खेती संभव है न ही जमीन के भीतर का पानी पीने लायक होता है। इसका सबसे अधिक असर महिलाओं पर होता है।
“जिन महिलाओं से हमने अध्ययन के दौरान बातचीत की, कमोबेश सबने यह शिकायत की कि उनकी फसलों पर खनन से निकले रसायनों का दुष्प्रभाव पड़ता है। खराब पानी की वजह से घर के सदस्यों के साथ मवेशी भी बीमार होते हैं। चूंकि गांवों में अक्सर साफ पानी का इंतजाम करना घर की महिलाओं की जिम्मेदारी होती है, उन्हें इसके लिए मीलों भटकना पड़ता है,” कल्लुरी ने बताया।
वह आगे कहती हैं, “ऐसा देखा गया है कि पुरुष काम की तलाश में इलाका छोड़कर किसी शहर चले जाते हैं, जबकि महिलाएं वहां प्रदूषण की वजह से बीमारियों का शिकार होती रहती हैं,”
पिछले तीन वर्षों से जंगल, रोजगार और आदिवासियों के हक की आवाज उठा रही 49-वर्षीय इंदु नेताम कहती हैं कि महिलाएं ही खनन का चौतरफा दुष्प्रभाव झेलती हैं।
“खनन से पहले महिलाएं समूह में जंगल से अपने लिए उत्पाद लेकर आती थीं। उससे उनका गुजारा चल जाता था। खनन की वजह से जंगलों से उनका अधिकार छिनता गया और अब महिलाओं के पास दूसरों के घरों में काम करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है,” नेताम कहती हैं।
यौन हिंसा और खनन
खदान वाले इलाकों में महिलाओं की तस्करी और उन्हें जबरदस्ती गैरकानूनी वेश्यावृत्ति में झोंकना आम बात हो गई है। देश के दूसरे हिस्सों में उन्हें अच्छा रोजगार दिलाने के नाम पर बहला-फुसला कर भी भेजा जाता है।
नेताम गोंड आदिवासी समाज से आती हैं और बस्तर इलाके में रहती हैं। वह कहती हैं कि अपना जीवनयापन के लिए आदिवासी महिलाएं घरेलू काम करती हैं, लेकिन यह देखा गया है कि इस दौरान उनका शारीरिक उत्पीड़न भी होता है। इसका सबसे तकलीफदेह पहलू यह है कि कई महिलाएं इसका विरोध तक करने की स्थिति में नहीं होती हैं।
“अगर वह कभी विरोध का स्वर उठाती भी है तो उसे दबा दिया जाता है। पिछड़े इलाकों में समाजिक कुरीतियां भी ऐसी हैं जो पीड़ित महिला को ही निशाना बनाती हैं। किसी महिला के साथ यौन हिंसा होने के बाद समाज उसे स्वीकार करने से मना कर देता है। उसी महिला के चरित्र पर लांछन लगाया जाता है और उसे प्रताड़ित किया जाता है,” नेताम ने कहा।
नेताम आदिवासी जन वन अधिकार मंच नामक संस्था के साथ भी काम करती हैं।
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और झारखंड से महिलाओं की तस्करी के मामले अक्सर सामने आते हैं।
मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले का उदाहरण तो दिया ही गया है। इस जिले की बाल कल्याण समिति की सदस्य मंजू सिंह ने कई ऐसे पीड़ित बच्चियों का पुनर्वास किया है और उन्हें रोजगार के दूसरे अवसर के लिए प्रशिक्षण का मौका उपलब्ध कराया है।
वह कहती हैं कि हाल ही में जिले की दो नाबालिक बच्चियों को मुंबई से छुड़ाया गया है।
कुछ जानकार तो यह भी मानते हैं कि खनन क्षेत्र में महिलाओं के साथ इतने स्तर पर अपराध हो रहे हैं कि उनकी मानसिक स्थिति पर भी स्थायी प्रभाव हुआ है।
कल्लुरी ने कहा कि छत्तीसगढ़, झारखंड के साथ देश के कुछ और खदान वाले क्षेत्र मानव तस्करी विशेषकर लड़कियों की तस्करी के बड़े गढ़ बनते जा रहे हैं। इन्हें गैरकानूनी धंधों में दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों में धकेला जा रहा है।
“लड़कियों को शहर काम के लिए भेजना उन परिवारों की मजबूरी है, क्योंकि इसपर उनका अस्तित्व निर्भर करता है। खेत और रोजगार के अवसर गंवाने के बाद उनके पास कोई विकल्प नहीं है। खनन क्षेत्र में हजारों ट्रक का आना भी वहां के सामाजिक तानेबाने को बदल रहा है। हमने ऐसे कई मामलों का दस्तावेजीकरण किया है जिसमें बाहर से मजदूरी के लिए आए आदमियों ने अपने पीछे बिन-ब्याही मांओं को संघर्ष के लिए छोड़ दिया है,” कल्लुरी ने महिलाओं के संघर्षों के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा।
नहीं हो रही हालात सुधारने की कोई कोशिश
जहां पर खदानें हैं वहां रहने वाले स्थानीय लोग अमूमन अदिवासी समाज से आते हैं। वहां रोजगार के अवसर न होने की वजह से कम उम्र में ही बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, विशेषकर लड़कियों की। “हमने देखा कि ज्यादातर लड़कियां आठवीं से आगे पढ़ाई नहीं कर पातीं। खदानों के बीच से गुजरकर स्कूल जाना बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं है,” मंजू सिंह बताती है।
वह आरोप लगाती हैं कि खनन कंपनियां लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए कई कार्यक्रम चलाने का दावा करती हैं, लेकिन जमीन पर कोई बदलाव नहीं दिखता। कई बार खनन के दौरान तो कुछ गतिविधियां होती हैं, लेकिन खनन के बाद पर्यावरण दूषित छोड़कर कंपनियां निकल जाती हैं। वहां के लोगों की हालत बद से बदतर होती जाती है।
सखी ट्रस्ट से जुड़ी भाग्य लक्ष्मी पिछले 20 वर्षों से कर्नाटक के खनन प्रभावित क्षेत्रों में काम कर रही हैं। वह कहती हैं कि खनन चलते वक्त या खनन बंद होने के बाद भी महिलाओं की समस्याओं की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है।
यह लेख मोंगाबे इंडिया से साभार लिया गया है।