तवे से तंदूर में: पिछले 65 साल में यह दूसरी सबसे कम मानसून-पूर्व बारिश है। दिल्ली और चेन्नई में अगले साल ग्राउंड वाटर खत्म होने का अलर्ट है। फोटो - HT

घोर जल संकट: 65 साल में दूसरी सबसे कम मानसून-पूर्व बरसात

पानी के लिये पूरे देश में त्राहि-त्राहि मची हुई है। सेंट्रल वॉटर कमीशन के मुताबिक देश में 21 शहरों के 91 जलाशयों (रिज़रवॉयर) में उनकी कुल क्षमता का 20% से भी कम पानी बचा है। इसकी मुख्य वजह मानसून से पहले की बारिश में कमी है। मौसम विभाग ने मार्च और मई के बीच के जो आंकड़े दिये हैं वह बताते हैं कि 1954 के बाद से इस साल मानसून से पहले की दूसरी सबसे कम बरसात हुई है।

मार्च और मई के बीच केवल 99 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई जो सामान्य से 23% कम है। दक्षिण भारत में 47% और उत्तर-पश्चिमी भारत में 30% कम बरसात हुई है। महाराष्ट्र के विदर्भ में तो मानसून पूर्व बरसात 80% कम हुई है। हालांकि जून से सितंबर के बीच सामान्य बरसात का पूर्वानुमान है लेकिन मानसून के 10 दिन देर से आने की वजह से डर बढ़ गया है। महाराष्ट्र सरकार ने सूखा ग्रस्त इलाकों में क्लाउड सीडिंग के ज़रिये कृत्रिम बरसात कराने के लिये 30 करोड़ का फंड मंज़ूर किया है।

गरमाता उत्तरी ध्रुव कर रहा है मौसमी तबाही

कई सालों की अनुमान के बाद अब वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि उत्तरी ध्रुव में बढ़ती गर्मी के कारण ही पूरे उत्तरी गोलार्ध के इलाकों में असामान्य मौसम की घटनायें हो रही हैं। वैज्ञानिकों ने इसके पीछे हवाओं के बदलते मिज़ाज को कारण बताया है जिन्हें “जेट स्ट्रीम” कहा जाता है। नॉर्थ अमेरिका और यूरोप में इस सीधा प्रभाव दिख रहा है।

भारत भी इसके असर से अछूता नहीं है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जेट स्ट्रीम्स के कारण यहां “पश्चिमी गड़बड़ी” की घटनायें बढ़ रही हैं। इस साल और पिछले साल मार्च से अप्रैल तक मौसम का जो असामान्य रुख रहा है उसमें जेट स्ट्रीम्स को वजह बताया जा रहा है।

बढ़ते तापमान और एंटीबायोटिक्स से सी-फूड व्यापार को ख़तरा

एक इन्वेस्टमेंट नेटवर्क ने चेतावनी दी है कि धरती के बढ़ते तापमान और एंटीबायोटिक्स के अंधाधुंध इस्तेमाल से सी-फूड व्यापार को बड़ा ख़तरा है। समुद्री जीवों के अलावा व्यापारिक स्तर पर किया जा रहा जलीय जीवों का उत्पादन भी संकट में है। यह शोध फार्म एनिमल इनवेस्टमेंट रिस्क एंड रिटर्न नाम की संस्था ने किया है। आज दुनिया भर में यह कारोबार कुल 23 हज़ार करोड़ अमेरिकी डालर (करीब 16 लाख करोड़ रुपये) का है। रिसर्च कहती है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में ही साल 2050 तक समुद्री मछली पालन में करीब 30% तक गिरावट आ सकती है।

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