नामीबिया से अफ्रीकी चीतों को भारत आये हफ्ता भर होने को है और इसे लेकर अब भी बहस गर्म है क्या भारत में इन्हें अनुकूल इकोसिस्टम मिलेगा? यहां जिस वातावरण में ये चीते छोड़े गये हैं क्या उसमें वह ढल पायेंगे? मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में छोड़े गये चीते अभी पूरी तरह आज़ाद नहीं हैं। करीब 750 वर्ग किलोमीटर में फैले इस नेशनल पार्क के एक बाड़े में उन्हें क्वािेंटाइन करके रखा गया है। लिहाज़ा ये अभी स्वच्छन्द शिकार नहीं कर सकते और इन्हें वनकर्मी भैंस इत्यादि का मीट मुहैया करा रहे हैं।
विरोध और आलोचना के बीच सरकार आश्वस्त
सोमवार को जाने माने वन्य जीव विशेषज्ञ वाल्मिकी थापर ने एक बार फिर कहा कि भारत चीते के लिये अनुकूल बसेरा नहीं है। यह सवाल इसलिये भी उठ रहा है क्योंकि जो चीते कूनो पहुंचे हैं वह उस प्रजाति के नहीं जो 1940 के दशक में लुप्त हो गई थी। हालांकि इस कार्यक्रम से जुड़े विशेषज्ञ आश्वस्त हैं कि चीता प्रोग्राम सफल रहेगा। भारत सरकार ने अगस्त में ही इस कार्यक्रम के उद्देश्यों और रूपरेखा को जारी किया था जिसमें “खुले जंगल और सवाना प्रणालियों को बहाल करने के लिए संसाधनों को इकट्ठा करने” से लेकर उपयुक्त “ईकोसिस्टम से जैव विविधता” को बढ़ाने की कोशिश बताई है।
सरकार ने यह भी कहा है कि चीता संरक्षण क्षेत्रों में ईकोसिस्टम की बहाली गतिविधियों के माध्यम से कार्बन को अलग करने की भारत की क्षमता को बढ़ाने के लिए और इस तरह वैश्विक जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लक्ष्य हासिल होंगे। साथ ही “स्थानीय समुदाय की आजीविका को बढ़ाने के लिए पर्यावरण-विकास और पर्यावरण-पर्यटन के लिए भविष्य के अवसरों का उपयोग” किया जायेगा।
वैसे अफ्रीकी चीतों को भारत लाने से पहले देश में देसी प्रजातियों को एक से दूसरी जगह सफलता पूर्वक बसाया गया है जैसे दुधवा नेशनल पार्क में एक सींग वाला राइनो या फिर मध्य प्रदेश के सतपुड़ा में टाइगर रिज़र्व में बारहसिंगे। इसके अलावा राजस्थान के सरिस्का और एमपी के पन्ना में टाइगर बसाये गये हैं लेकिन यह पुनर्स्थापन देश के भीतर देसी प्रजातियों का था जबकि नामीबिया से आये प्राणी अफ्रीकी हैं।
क्या चीतों के लिये विकसित किया गया कूनो ?
चीतों को भारत लाये जाने पर टीवी से लेकर सोशल मीडिया पर छाये उत्साह के बीच यह जानना ज़रूरी है कि क्या पिछले कुछ दशकों में कूनो नेशनल पार्क को चीतों के लिये तैयार किया गया। सच यह है कि मध्य प्रदेश के श्योपुर ज़िले में बसा कूनो नेशनल पार्क – जो कि विन्ध रेन्ज का हिस्सा है – वह पिछले कुछ दशकों में गीर के जंगलों से एशियाई शेरों को लाने के लिये तैयार किया गया। पश्चिम एशियाई देशों से लेकर भारत के पूर्व तक जंगलों में पाये जाने वाले एशियाई शेर अभी देश में केवल जूनागढ़ स्थित गीर के जंगलों में ही हैं।
इसलिये विशेषज्ञों ने कहा कि इन्हें गीर के अलावा किसी अन्य जगह में भी रखा जाये। जाने माने वन्य जीव विज्ञानी और शोधार्थी डॉ फैयाज़ अहमद ख़ुदसर बताते हैं कि नब्बे के दशक के शुरुआती सालों में जिन जगहों को गीर के शेरों के दूसरे संभावित घर के रूप में चिन्हित किया गया उनमें कूनो भी एक जगह थी। ख़ुदसर ने वाइल्ड लाइफ: इंडिया @ 50 नाम से प्रकाशित पुस्तक में कूनो नेशनल पार्क के विकसित होने की पूरी कहानी लिखी है। वह लिखते हैं कि जंगल के बीचोंबीच बहने वाले कूनो नदी (जो कि चंबल की सहायक जलधारा है) के कारण इसे यह नाम मिला। एशियाई शेरों के लिये बिल्कुल माकूल यह जगह 1981 तक एक वाइल्ड लाइफ सेंक्चुरी थी और इसे बाद में 2018 में नेशनल पार्क बना दिया गया।
ख़ुदसर याद दिलाते हैं कि वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया ने भी एक फील्ड सर्वे के बाद 1994 में कूनो को एशियाई शेरों के दूसरे घर के रूप में संभावित जगह बताया। उसके बाद से लगातार शेरों को गीर से बाहर लाने का प्रोजेक्ट चलता रहा लेकिन मुख्य रूप से गुजरात सरकार के अनमनेपन के कारण यह कभी पूरा नहीं हो पाया।
सुप्रीम कोर्ट ने कूनो में शेर लाने को कहा था, चीतों को नहीं
चीतों को भारत लाने के लिये गंभीर कोशिश पूर्व वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के वक्त 2009 में ही शुरू हो गई थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश इसके आड़े आ गया। असल में 2006 में दिल्ली स्थित एक संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर कहा कि एशियाई शेरों के अस्तित्व पर संकट के कारण उन्हें केवल गीर में ही रखना ठीक नहीं है और उन्हें उसके बाहर भी रखा जाना चाहिये। इस केस में लंबी सुनवाई हुई और अप्रैल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने शेरों को गीर नेशनल पार्क से कूनो में लाने की सहमति दे दी।
इसके साथ ही कोर्ट ने तब नामीबिया से अफ्रीकी चीतों को भारत लाये जाने को इजाज़त नहीं दी थी और कहा था कि मूल प्रजातियों को बचाना प्राथमिकता होनी चाहिये। स्पष्ट है कि कोर्ट में लंबी बहस के बाद गीर में शेरों पर छाये विलुप्ति के खतरे को समझा गया और उन्हें दूसरा घर दिये जाने को कहा गया। कूनो को एशियाई शेरों के लिये तैयार करना आसान नहीं था और इसके लिये यहां से 24 गांवों को खाली कराया गया। सहरिया आदिवासियों ने अपना घर छोड़ा और रहन सहन का तरीका बदला लेकिन एशियाई शेर कूनो में कभी नहीं आये। आज मध्यप्रदेश में कई जानकार और स्थानीय इसे शेरों और आदिवासियों दोनों के साथ धोखा मान रहे हैं।
कैसे बना कूनो चीतों का घर
यह कौतूहल का विषय है कि जब भारत अभी महंगाई, बेरोज़गारी और पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों समेत ढेरों समस्याओं से जूझ रहा है तो अचानक चीते को लाने की बात होने लगी। इसके लिये देश की नेशनल टाइगर कंजरवेशन अथॉरिटी (एनटीसीए) ने कोर्ट में यह हलफनामा दिया कि चीतों को यहां लाने से बाद में शेरों को बसाने में कोई समस्या नहीं होगी। इसके बाद चीतों को कूनो में पुनर्स्थापित करने की राह साफ हुई।
लेकिन ख़ुदसर लिखते हैं कि पिछले कुछ सालों में कूनो में हालात बदले हैं और यहां चीतल या चिंकारा की जैसे जानवरों की संख्या कम हुई है जो कि चीतों के लिये उपयुक्त और स्वाभाविक आहार है। अब यहां कोमलपत्तियों वाली वनस्पतियों की जगह कड़ी लकड़ी वाले पेड़ या कुश अधिक हो गयी है जिसे खाया नहीं जा सकता। इसी क्षेत्र में तेंदुओं की संख्या काफी बढ़ी है जिनका चीतों के साथ संघर्ष हो सकता है।
कुछ जानकारों ने उस दलील को चुनौती दी है जिसमें चीता पुनर्स्थापन के बहाने सरकार इकोसिस्टम को दुरस्त करने का दावा कर रही है। इंडियन एक्सप्रेस में जैव विविधता विशेषज्ञ रवि चेल्लम ने लिखा है कि पारिस्थितिकी तो दुरस्त करने के लिये चीता लाने से बेहतर तरीके उपलब्ध हैं। चेल्लम ने पूरे चीता एक्शन प्लान के वैज्ञानिक आधार को त्रुटिपूर्ण बताया है और कहा है कि यह खेद का विषय है कि अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों और पर्यावरण संरक्षण में लगे संस्थानों ने विज्ञान की अनदेखी की और विमर्श को नहीं जगह नहीं दी।
जो भी हो अब सच यही है कि जिस जंगल और नेशनल पार्क को देसी शेर के लिये तैयार किया गया वहां अफ्रीकी चीते आ गये हैं। सरकार आज़ादी के अमृत महोत्सव के बीच इसे एक बड़े पर्यावरण और वन संरक्षण प्रोजेक्ट की तरह पेश कर रही है जबकि आलोचक इसे सरकार का “वेनिटी प्रोजेक्ट” बता रहे हैं। लेकिन अगर सरकार के दावे के मुताबिक वाकई अफ्रीकी चीते इस इकोसिस्टम का हिस्सा बन पाये और उनका परिवार फला- फूला तो यह वन्य जीव संरक्षण के इतिहास में मील का पत्थर कहा जायेगा।
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