घडी की सुई कि टिक टिक के साथ समय आगे सरकता जा रहा है और दिन महीने साल बीतते जा रहे हैं। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के असर गहराते जा रहे हैं जिसके चलते हमारी ज़मीनें बंजर होकर मरुस्थल में बदल रही हैं और हमारे समुद्र नष्ट होते जा रहे हैं। यह भारत समेत तमाम गरीब और विकासशील देशों के साथ आने का वक़्त है क्योंकि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक बुरा असर इन्हीं देशों पर पड़ेगा। अब राह कितनी भी मुश्किल हो कोशिश करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
धरती की तापमान वृद्धि को 1.5° C की सीमा पर रोकने के लिए किया गये पेरिस सम्मेलन में किये गये वादे अगर तमाम देश पूरा कर भी देते हैं तो सदी के अंत तक तापमान में 3-4 डिग्री की बढ़ोतरी हो सकती है। इसके बावजूद अमेरिका, कनाडा, रूस, चीन, सऊदी अरब, जापान और ऑस्ट्रेलिया समेत तमाम अमीर देश कार्बन उत्सर्जन कम करने और धरती को विनाश से रोकने की दिशा में कोई बड़ा कदम उठाते नहीं दिख रहे। दूसरी ओर ब्राज़ील जैसे देश पेरिस समझौते को घृणा की नज़र से देखते हैं। इन हालत में यूएन क्लाइमेट एक्शन समिट( UNCAS) 23 सितम्बर से न्यूयॉर्क में धरती को इस विनाश लीला से बचाने के लिए, एक बार फिर मंथन करने के लिए शुरू हुआ है।
पूर्व-औद्योगिक स्तरों ( यानी वर्ष 1951-1982 तक के धरती की सतह के तापमान ) से पृथ्वी पहले ही 1.2 ° C तक गर्म हो चुकी है, और अब हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहाँ बाढ़, जंगल की आग और बढ़ते समुद्र के स्तर जैसी नियमित घटनाएं सुर्खियों में बनी रहती हैं। लेकिन अगर अब इसे और गर्म होने से रोकने के लिए प्रभावी कदम नहें उठाया गए , तो मात्र 0.5 डिग्री सेल्सियस तापमान और बढ़ने से बदतर तबाही होगी।
हमारी वर्तमान स्थिति विकट है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने यह साबित करने के लिए पिछले साल से तीन रिपोर्ट प्रकाशित की हैं। जिनमें यह बात साफ़ और स्पष्ट रूप से बतायी है कि यदि दुनिया में शून्य CO2 उत्सर्जन पर नहीं आती तो 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर धरती का गर्म होना अपरिहार्य है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुट्रिस का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में अब करो या मरो वाले हालात हो गये हैं।
अगर आज जलवायु परिवर्तन की समस्या का हल निकालना इतना मुश्किल लग रहा है, तो सोचिये कि कुदरती तौर पर उपलब्ध होने वाले कार्बन सिंक के बगैर इससे निपटना कितना दूभर होगा। पेड़ और दूसरी वनस्पतियां वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड सोखती हैं। ये कुदरती कार्बन सिंक दुनिया में उत्पन्न होने वाले प्रदूषण के एक तिहाई हिस्से को सोखते हैं। इसके लिये हमें मौजूदा कार्बन सिंक को बरकरार रखते हुए उसकी कार्बन सोखने की क्षमता को बढ़ाना भी होगा। जलवायु परिवर्तन और भू उपयोग पर आधारित आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट में कार्बन सोखने की जमीन की क्षमता को बढ़ाने से सम्बन्धित जोखिमों का अंदाजा लगाया है।
जलवायु परिवर्तन के असर से हमारे ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं और पृथ्वी पर बर्फ कम हो रही है जिसके चलते भीषण गर्मी के मार कहीं बारिश और बाढ़ तो कहीं सूखे का सामना , समुद्री तूफ़ान , जंगलों में लगी आग जैसी अनेक आपदाएं आये दिन हमारे सामने सर पर मंडरा रही हैं ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूएन क्लाइमेट एक्शन समिट को सम्बोधित करते हुए जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती से निपटने के लिए पूरी दुनिया का साथ आने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा कि इस गंभीर मुद्दे पर अब बात करने का नहीं, काम करने का वक्त आ गया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए हमें अपनी जीवनशैली से लेकर विकास की अवधारणा को बदलने की जरूरत है।प्रधानमंत्री ने भारत के गैर परंपरागत ईंधन (नॉन फॉसिल फ्यूल) से बिजली पैदा करने के लक्ष्य को दोगुना से भी ज्यादा बढ़ाकर 450 गीगावाट करने का संकल्प भी लिया। उन्होंने पेरिस जलवायु समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताते हुए कहा था कि भारत गैर परंपरागत ईंधन से 175 गीगावाट बिजली पैदा करेगा।
यूएनसीएएस से हमें बोल्ड कमिटमेंट की उम्मीद करनी चाहिए। 2014 में इसी तरह के शिखर सम्मेलन ने पेरिस समझौते का मार्ग प्रशस्त किया था लेकिन तब से स्थिति काफी बदल गई है। यह पूरी तरह से साफ़ होता जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन को रोकना अब एक क्षति नियंत्रण से अस्तित्वगत आवश्यकता बन चुका है। दुनिया इस बारे में कितनी संजीदा है यह हमें अगले कुछ दिनों में ही पता चल जाएगा।
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