वन अधिकार अधिनियम की संवैधानिक वैधता पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई, आदिवासी समूहों ने जताई चिंता

सुप्रीम कोर्ट में 2 अप्रैल, 2025 को एक याचिका पर सुनवाई होनी है जिसमें वन अधिकार अधिनियम (फॉरेस्ट राइट्स एक्ट) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। 

इस मामले पर पिछली सुनवाई 13 फरवरी, 2019 को हुई थी जब शीर्ष अदालत ने 17 लाख आदिवासी परिवारों के व्यक्तिगत अधिकारों को अस्वीकार करके उन्हें बेदखल करने का आदेश दिया था। राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन के बाद उसी महीने आदेश स्थगित कर दिया गया था। अदालत ने राज्य सरकारों को दावों की अस्वीकृति की समीक्षा करने का निर्देश भी दिया था।

विभिन्न संगठनों और आदिवासी समूहों ने 2 अप्रैल की सुनवाई के संभावित प्रभाव पर चिंता व्यक्त की है। उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों से आग्रह किया है कि वे वन अधिकार अधिनियम का दृढ़ता से बचाव करें। उन्होंने मूलनिवासी समुदायों को सशक्त बनाने और उनकी आजीविका सुनिश्चित करने में अधिनियम के महत्व पर भी जोर दिया। ​

इसके अतिरिक्त, एफआरए भारत के क्लाइमेट एक्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वनों पर निर्भर समुदायों के अधिकारों को कानूनी रूप से मान्यता देकर यह अधिनियम सस्टेनेबल वन प्रबंधन को बढ़ावा देता है जो जैव विविधता संरक्षण और क्लाइमेट रेसिलिएंस के लिए जरूरी है।  इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का आगामी फैसला लाखों वन निवासियों और भारत में वन प्रशासन के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है।

भारत के 2 लाख वेटलैंड्स में केवल 102 कानूनी तौर पर संरक्षित

भारत में 200,000 से अधिक वेटलैंड्स हैं, लेकिन संरक्षण के लिए आधिकारिक तौर पर अधिसूचित केवल 102 हैं। इनमें से भी अधिकांश राजस्थान (75), गोवा (25), उत्तर प्रदेश (1), और चंडीगढ़ (1) में हैं। हिंदुस्तान टाइम्स में जयश्री नंदी की रिपोर्ट के अनुसार, पर्यावरण मंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में यह आंकड़े दिए हैं।

भारत के क्षेत्र का लगभग 4.8 प्रतिशत वेटलैंड्स हैं। देश की लगभग 6 प्रतिशत आबादी आजीविका के लिए सीधे उन पर निर्भर है। इनमें झीलें, तालाब, नदियां, दलदल और स्वैंप शामिल हैं।

वेटलैंड्स बाढ़ नियंत्रण और कार्बन स्टोरेज में सहायक होते हैं और स्थानीय जैव-विविधता (बायोडायवर्सिटी) के लिए भी जरूरी होते हैं। हालांकि, जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों के कारण कई वेटलैंड्स खतरे में हैं।

आरटीआई के जवाब में केंद्र सरकार ने कहा कि भूमि और जल राज्य के विषय हैं, इसलिए वेटलैंड्स का संरक्षण उनकी जिम्मेदारी है। इस कारण से नोटिफिकेशन की प्रगति धीमी है। वर्तमान में केवल 102 वेटलैंड्स और 89 रामसर साइट्स कानूनी रूप से संरक्षित हैं।

वेटलैंड्स (संरक्षण और प्रबंधन) नियम, 2017, के अंतर्गत राज्य सरकारों को वेटलैंड्स को अधिसूचित करने का अधिकार है।

दिसंबर 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को वेटलैंड्स की पहचान करके सीमांकन पूरा करने का आदेश दिया था। हालांकि, अब तक केवल मणिपुर ने 30 वेटलैंड्स के सीमांकन का काम पूरा किया है।

रामसर कन्वेंशन का “बुद्धिमानी से उपयोग” (वाइज यूज़) का सिद्धांत 2017 के वेटलैंड संरक्षण नियमों में भी दोहराया गया है। हालांकि, इसकी परिभाषा अभी भी अस्पष्ट है और इसमें स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव है। आलोचकों का कहना है कि नए नियम 2010 के नियमों की तुलना में कमजोर हैं।

नए नियमों के तहत विशेष मामलों में केंद्र सरकार की अनुमति लेकर निषिद्ध गतिविधियां भी की जा सकती हैं। इन नियमों में यह भी उल्लेख नहीं है कि वेटलैंड संरक्षण में स्थानीय समुदाय कैसे मदद कर सकते हैं।

वेटलैंड्स पर्यावरण और स्थानीय समुदायों के अस्तित्व लिए महत्वपूर्ण हैं।

नवंबर में संयुक्त राष्ट्र में राष्ट्रीय अनुकूलन योजना प्रस्तुत करेगा भारत

भारत अपनी राष्ट्रीय अनुकूलन योजना (नेशनल अडॉप्टेशन प्लान) इस साल नवंबर में संयुक्त राष्ट्र (यूएनएफसीसीसी) को प्रस्तुत कर सकता है। उसी समय के आसपास ब्राजील में कॉप30 सम्मलेन जारी रहेगा।

प्लान का उद्देश्य विकास योजनाओं में जलवायु अनुकूलन को एकीकृत करके लोगों, इकोसिस्टम और अर्थव्यवस्थाओं को अधिक रेसिलिएंट बनाना है।

जल, कृषि और स्वास्थ्य जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर एक नेशनल स्टीयरिंग कमेटी और वर्किंग ग्रुप्स का गठन किया गया है। योजना में लैंगिक समानता पर भी ध्यान गया है। पर्यावरण मंत्रालय ने इस बात पर जोर दिया कि एनएपी विज्ञान और जमीनी स्तर की जरूरतों से प्रेरित एक दीर्घकालिक रणनीति है।

इस योजना से भारत को जलवायु जोखिमों की समझ बेहतर करने और उनके प्रभाव कम करने के लिए कदम उठाने में सहायता मिलेगी। इससे समुदायों, व्यवसायों और इकोसिस्टम को भविष्य के परिवर्तनों और जलवायु चुनौतियों से बेहतर तरीके से निपटने में भी मदद मिलेगी।

जलवायु परिवर्तन बढ़ा रहा घर के बीमा की लागत

जलवायु परिवर्तन के कारण तूफान, जंगल की आग और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं अधिक गंभीर स्वरूप ले रही हैं। चरम मौसम की घटनाओं में इस वृद्धि से बीमा कंपनियों ने पिछले साल दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान के दावों में 140 बिलियन डॉलर से अधिक का भुगतान किया है, जिसके कारण उन्हें लगातार पांचवें साल 100 बिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान उठाना पड़ा है।

इन बढ़ते जोखिमों का बेहतर आकलन करने के लिए, बीमा कंपनियां अब भवन निर्माण डेटा में जलवायु विज्ञान को शामिल कर और उन्नत मॉडल बना रही हैं, जो  प्राकृतिक आपदओं से होनेवाले संभावित नुकसान की अधिक सटीक समझ प्रदान करते हैं। इससे संवेदनशील क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों के लिए घर के बीमा का प्रीमियम भी बढ़ता है।

नतीजतन, कई ऐसे लोग को बढ़े हुए प्रीमियम का भुगतान नहीं कर सकते, वह या तो कम कवरेज का इंश्योरेंस ले रहे हैं या फिर घर का बीमा करवा ही नहीं रहे। 

स्थिति को देखते हुए यह आवश्यक है कि ऐसी नीतियां बनाई जाएं जिससे जलवायु आपदाओं से प्रभावित लोगों के लिए सुलभ और सस्ता कवरेज सुनिश्चित किया जा सके।

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