सुप्रीम कोर्ट ने 2023 में सरकार द्वारा वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में किए गए संशोधनों पर रोक लगाते हुए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा है कि वह उसके 1996 में दिए गए आदेश में वर्णित ‘वन’ की परिभाषा का पालन करें। यह पर्यावरण कार्यकर्ताओं और वन में रहने वाले समुदायों के लिए एक बड़ी जीत है।
वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में पिछले साल किए गए संशोधनों को चुनौती देते हुए सेवानिवृत्त भारतीय वन अधिकारियों, पूर्व नौकरशाहों के एक समूह और एनजीओ वनशक्ति ने याचिकाएं दायर की थीं। उनकी दलील थी कि 2023 के संशोधन ने वन की परिभाषा को “काफ़ी हद तक कमजोर” कर दिया है, अधिनियम के दायरे को सीमित कर दिया है और इसके कारण कथित तौर पर 1.97 लाख वर्ग किमी भूमि वन क्षेत्र से बाहर हो गई है।
कई विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों का मानना है कि 2023 के संशोधनों से जंगलों का एक बड़ा हिस्सा व्यावसायिक गतिविधियों के लिए खुल जाएगा। इससे न केवल वन्य जीवन खतरे में पड़ेगा और इकोसिस्टम नष्ट होगा, बल्कि खतरनाक रूप से बिना केंद्र सरकार की मंजूरी के वनों की कटाई की जा सकती है।
इसलिए, पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश जारी किया और देश में वनों की पहचान करने के अपने 1996 के फैसले पर वापस जाने का आदेश दिया। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि वनों की सामान्य परिभाषा पर वापस जाना काफी नहीं है।
वनभूमि की परिभाषा जरूरी
विशेषज्ञों का कहना है कि वनों का शब्दकोश में उपलब्ध अर्थ उपयोग करने से इसकी गलत व्याख्या किए जाने की संभावना पैदा हो जाती है। एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और एनजीटी बार एसोसिएशन के संस्थापक अध्यक्ष राज पंजवानी ने कहा, “इस मामले में न्यायालय को विवेकाधिकार होना चाहिए और ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ के अर्थ को समझने के लिए देश के इकोलॉजिकल सिस्टम को देखते हुए कुछ व्यापक मापदंडों को परिभाषित किया जाना चाहिए।”
पंजवानी ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 का उदाहरण दिया जिसकी धारा 18 में राज्यों को एक अभयारण्य को अधिसूचित करने के दिशानिर्देश दिए गए हैं।
“ऐसी कोई रूपरेखा नहीं है जिसके द्वारा शब्दकोश में दिए गए अर्थ के अनुसार भी वनभूमि को चिन्हित किया जा सकते। उदाहरण के लिए, जो भूभाग पर्याप्त रूप से घने नहीं हैं, ऐसा हो सकता है कि शब्दकोश में दिए गए अर्थ के अनुसार उन्हें वनभूमि न कहा जाए,” उन्होंने कहा।
1996 के आदेश में क्या था
भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत, राज्यों को किसी भी वन भूमि को ‘गैर-आरक्षित’ घोषित करने का अधिकार था। जब 1976 में संविधान का 42वां संशोधन लागू हुआ, तो इसने वनों के विषय को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में डाल दिया, इससे यह विषय केंद्र और राज्य दोनों के दायरे में आ गया। इसके बाद वन संरक्षण अधिनियम 1980 आया, जिसने वनों को गैर-आरक्षित करने की राज्य की शक्ति छीन ली। इसमें कहा गया है कि वन भूमि पर कोई भी गैर-वानिकी कार्य करने के लिए केंद्र से अनुमति लेनी होगी।
हालांकि तब भी वनों की कोई परिभाषा मौजूद नहीं थी और वन भूमि के बड़े क्षेत्रों को गैर-वानिकी उपयोग में लाया जा रहा था। फिर 1996 के गोदावर्मन मामले में ऐतिहासिक फैसला आया, जिसमें कहा गया कि शब्दकोश में वन का जो अर्थ है, उसे ही उसकी परिभाषा समझा जाना चाहिए। कोई भी ऐसी भूमि जो इस अर्थ के तहत आती है, वह वनभूमि मानी जाएगी चाहे वह किसीके भी स्वामित्व में हो।
1996 के फैसले के अनुसार, सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को एक विशेषज्ञ समिति बनाकर ‘डीम्ड फारेस्ट’ की पहचान करनी थी।
‘डीम्ड फारेस्ट’ शब्द को कभी भी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया और इस संबंध में केंद्र द्वारा कोई निर्देश भी नहीं दिया गया है। हालांकि, कुछ राज्यों ने अपने मानदंड बनाए हैं।
वर्तमान स्थिति
सुप्रीम कोर्ट के 1996 के आदेश के बावजूद, वास्तव में बहुत कम राज्यों ने ‘डीम्ड फारेस्ट’ की पहचान करने की प्रक्रिया पूरी की। इसलिए इनमें से अधिकांश भूमियां कभी भी किसी भी प्रकार के सरकारी रिकॉर्ड में शामिल नहीं हो पाईं।
पिछले साल एफसीए में हुए संशोधन ने अधिनियम के तहत संरक्षित क्षेत्रों को सीमित कर दिया। इसमें कहा गया था कि अधिनियम केवल उन्हीं वनों पर लागू होगा जिन्हें भारतीय वन अधिनियम के तहत वन के रूप में घोषित और अधिसूचित किया गया है और जो 1980 या उसके बाद सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज किए गए हैं। संशोधन में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से एक वर्ष के भीतर ऐसी भूमियों की पहचान करने को कहा गया था।
इसका मतलब यह है कि वे भूखंड जिन्हें 1996 से कभी वनों के रूप में वर्गीकृत नहीं गया था, उन्हें अभी भी इस वर्गीकरण से बाहर रखा जाएगा। इससे देश में वनभूमि का एक बड़ा हिस्सा संरक्षण से बाहर रह जाएगा।
यहीं पर शीर्ष अदालत ने विशेष समितियों से वनों की 1996 की परिभाषा पर वापस जाने और उन सभी क्षेत्रों की पहचान करने के लिए कहा है जो न केवल सरकारी रिकॉर्ड में हैं, बल्कि शाब्दिक अर्थ के अनुसार ‘वन’ हैं, भले ही वह किसीके भी स्वामित्व में हों।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है, “सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देशों का पालन करते हुए 31 मार्च, 2024 तक विशेषज्ञ समितियों की रिपोर्ट फॉरवर्ड करनी होगी। वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफएफ) इन रिपोर्टों का रिकॉर्ड रखेगा और इनका विधिवत डिजिटलीकरण करके 15 अप्रैल, 2024 तक अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर इन्हें उपलब्ध कराएगा”। अदालत ने यह कहा है कि ऐसे क्षेत्रों में कोई भी चिड़ियाघर या सफारी तब तक नहीं बनाई जा सकती जब तक कि अदालत की मंजूरी न ले ली जाए।
आगे क्या होगा
हालांकि पर्यावरणविदों ने इस फैसले का स्वागत किया है, यह सिर्फ एक अंतरिम आदेश है। कोर्ट ने मामले पर सुनवाई जुलाई तक के लिए टाल दी है। लेकिन इससे उम्मीद जरूर बंधी है। वेटलैंड नियम 2017 के खिलाफ दायर मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। उम्मीद है कि यह मामला एक मिसाल कायम करेगा, जिससे कम से कम ऐसे कानूनों को चुनौती देने में तो मदद मिलेगी।