Vol 2, March 2023 | उम्मीद की किरण, कूनो में आए नए मेहमान

Newsletter - March 30, 2023

पिघलते ग्लेशियर, बढ़ता समुद्र जल-स्तर; आईसीपीसी की रिपोर्ट के उपलब्ध सुबूतों की कोई कभी नहीं है।

पिघलते ग्लेशियर; सिन्धु, गंगा और ब्रह्मपुत्र का पानी घटेगा

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने चेतावनी दी है कि ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के कारण गंगा, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों का बहाव तेज़ी से घटेगा। पूरा हिमालयी क्षेत्र करीब 10 हज़ार छोटे-बड़े ग्लेशियरों का घर है और यहां से निकलने वाली नदियां भारत की ही करीब 40 प्रतिशत आबादी की पेयजल और कृषि की ज़रूरतों को पूरा करती हैं।  हिमालय हिन्दुकुश और कारोकोरम क्षेत्र से निकलने वाली नदियां दुनिया की 140 करोड़ आबादी का पोषण करती हैं। कई वैज्ञानिक शोध बता चुके हैं कि हिमालयी ग्लेशियरों के पिछले की रफ्तार इस सदी में दोगुनी हो चुकी है। 

पिछले बुधवार को अंतरराष्ट्रीय ग्लेशियर संरक्षण दिवस पर गुट्रिस ने कहा कि आज धरती के 10 प्रतिशत हिस्से में ग्लेशियर हैं और वे धरती के वॉटर टावर हैं। ग्लेशियरों की पिघलती बर्फ खतरे की घंटी है। न केवल हिमालयी ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं बल्कि अंटार्कटिका में हर साल 150 बिलियन टन  बर्फ पिघल रही है और ग्रीनलैंड में तो 270 बिलियन टन बर्फ प्रति वर्ष पिघल रही है। 

पिछले 25 साल में पश्चिमी अंटार्कटिका से 3,000 अरब टन बर्फ पिघली 

यूके की लीड्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पाया है कि अमुण्डसन सागर में तेज़ी से पिघल रही बर्फ पश्चिमी अंटार्कटिका की शक्ल बदल रही है और समुद्र सतह में चिन्ताजनक वृद्धि कर रही है। इन ग्लेशियर विज्ञानियों के एक अध्ययन के मुताबिक पिछले 25 साल में 3000 बिलयन टन से अधिक बर्फ गल गई। शोध बताता है कि 1996 से 2021 के बीच यहां कुल 3321 बिलयन यानी करीब 3.3 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल गई जिससे समुद्र सतह में 9 मिलीमीटर की वृद्धि हुई। 

अमुण्डसन सागर आकार में अमेरिका के टैक्सस राज्य के बराबर है और अंटार्कटिक महासागर का हिस्सा है। 20 बड़े ग्लेशियर मिलकर दक्षिण अंटार्कटिका में अमुण्डसन सागर बनाते हैं और इनके पिघलने का समुद्र सतह पर भारी प्रभाव हो रहा है। इन सभी ग्लेशियरों को जोड़ दें तो यह यूके से चार गुना बड़े क्षेत्रफल में फैले हैं।  

पंजाब में टोरनेडो, कम से कम 30 घर क्षतिग्रस्त, कई घायल  

पाकिस्तान सीमा से लगे पंजाब के एक गांव में टोरनेडो से करीब 30 घर क्षतिग्रस्त हो गए और कम से कम 12 लोग घायल हुए। टोरनेडो की यह घटना फ़ाज़िलका ज़िले के बुकेनवाला गांव में हुई। इससे यहां खेतों में किन्नो की फसल बर्बाद हो गई। टोरनेडो यानी बवंडर बहुत तेज़ हवा का घूमता हुआ स्तंभ होता है जो कि रास्ते में आने वाली हर चीज़ को बड़ा नुकसान पहुंचाता है। जब गर्म नम हवा सूखी हुई ठंडी हवा के संपर्क में आती है तो टोरनेडो बनते हैं। पंजाब में पिछले 15 साल में यह चौथा टोरनेडो था। एक रिसर्च के मुताबिक उत्तर पश्चिम में भारत और पाकिस्तान के सरहदी इलाके में 1903 से 2011 के बीच 15 टोरनेडो बने हैं। 17 मार्च 1978 को दिल्ली में शक्तिशाली टोरनेडो के कारण 28 लोगों की जान गई और 700 घायल हो गए थे। जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले दिनों में टोरनेडो प्रभाव बढ़ सकते हैं। 

साल 2050 तक भारत में सर्वाधिक जलसंकट होगा 

संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड वॉटर डेवलपमेंट रिपोर्ट 2023 में कहा गया है कि दुनिया में पानी का संकट झेल रहे 80% लोग एशिया में हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2016 में करीब 93 करोड़ लोग पानी की अत्यधिक कमी झेल रहे थे और 2050 तक ऐसे लोगों की संख्या बढ़कर 170 करोड़ से 240 करोड़ तक हो सकती है और भारत पर इसकी सबसे अधिक मार पड़ेगी। पिछले 40 सालों में दुनिया में पानी की खपत हर साल 1% बढ़ी है और साल 2050 तक यह ग्राफ इसी रफ्तार से चढ़ता रहेगा। बढ़ती आबादी, उपभोग का पैटर्न और ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण जलसंकट लगातार बढ़ रहा है।

कुछ समुदायों पर जलवायु परिवर्तन का जोखिम केवल भौतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक कारकों से भी अधिक होता है।

‘जलवायु संवेदनशील’ होने की मान्यता प्राप्त करने लिए देशों में लगी होड़

अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और लघु द्वीपीय देशों सहित विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों ने पिछले हफ्ते जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील के रूप में परिभाषित किए जाने के लिए कड़ा संघर्ष किया

आईआईएसडी की रिपोर्ट के अनुसार जहां मेक्सिको और चिली लैटिन अमेरिका को ‘विशेष रूप से संवेदनशील’ क्षेत्रों की सूची में शामिल करांना चाहते थे, जबकि भारत एशिया को शामिल करने पर ज़ोर दे रहा था।

अंततः अफ्रीका, लघु द्वीपीय देशों, सबसे कम विकसित देश (एलडीसी), मध्य और दक्षिण अमेरिका, एशिया और आर्कटिक को विशेष रूप से संवेदनशील के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

कुछ समुदायों पर जलवायु परिवर्तन का जोखिम अधिक होने की वजह केवल समुद्र-स्तर में वृद्धि जैसे भौतिक कारक ही नहीं हैं, बल्कि गरीबी, गवर्नेंस, बिल्डिंग मानक और बुनियादी ढांचे जैसे सामाजिक कारक भी हैं।

इसलिए यह वर्गीकरण राजनैतिक रूप से भी संवेदनशील विषय है। लेकिन इस वर्गीकरण से विभिन्न क्षेत्रों पर मंडरा रहे खतरे को वैश्विक मान्यता मिलने के साथ-साथ, जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) तक पहुंच भी बेहतर होती है।

तापमान वृद्धि के 1.5 डिग्री लक्ष्य की प्राप्ति के लिए त्वरित प्रयास जरूरी: आईपीसीसी

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा है कि वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए इस दशक में तत्काल और कड़े कदम उठाने होंगे।  

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस लक्ष्य को पाने के लिए सभी क्षेत्रों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में त्वरित, लगातार और भारी कटौती की आवश्यकता है। यदि कार्रवाई में देरी होती है, तो हानि और क्षति बढ़ती जाएगी।

रिपोर्ट ने जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध और लगातार बढ़ते प्रयोग को ग्लोबल वार्मिंग का एक बहुत बड़ा कारण बताया है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने अमीर देशों से आग्रह किया है कि वह 2040 तक और विकासशील देश 2050 तक नेट-जीरो उत्सर्जन पर पहुंचने का प्रयास करें।

आईपीसीसी ने कहा कि उत्सर्जन अब तक कम होना शुरू हो जाना चाहिए, और 2030 तक इसे लगभग आधा करना होगा। संयुक्त राष्ट्र पैनल ने यह भी कहा कि 2019 के स्तरों के मुकाबले 2035 तक उत्सर्जन में 60 प्रतिशत की कटौती होनी चाहिए।

हाथियों और बाघों के हमलों में हुईं 3 सालों में 1,788 मौतें

भारत में पिछले तीन वर्षों में हाथियों और बाघों के हमलों में कम से कम 1,788 लोग मारे गए हैं। इनमें से 1,581 लोग हाथियों द्वारा और 207 बाघों द्वारा मारे गए। वर्ष 2019-20 से 2021-22 के आंकड़ों के अनुसार, हाथियों के हमलों में सबसे अधिक 291 मौतें झारखंड में हुईं। वहीं 2020 से 2022 तक बाघों के हमलों में सबसे ज्यादा 141 लोगों की मौतें महाराष्ट्र में दर्ज की गईं।

हाथियों के हमले बढ़ने का प्रमुख कारण है उनके हैबिटैट का सिकुड़ना और विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक वन क्षेत्रों की संरक्षण नहीं किया जाता और माइग्रेशन कॉरिडोर्स को बहाल नहीं किया जाता है, तब तक ऐसे संघर्ष बढ़ते रहेंगे।

हाथियों के हैबिटैट कृषि और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं द्वारा लगातार नष्ट किए जा रहे हैं। लगभग 40 प्रतिशत रिज़र्व असुरक्षित हैं, क्योंकि वे संरक्षित पार्कों और अभयारण्यों के भीतर नहीं हैं। साथ ही, हाथियों के प्रवास के लिए माइग्रेशन कॉरिडोर को कोई विशिष्ट कानूनी सुरक्षा प्राप्त नहीं है।

देश भर में हाथियों के हमलों में मरने वालों की संख्या 2019-20 में 584, 2020-21 में 461 और 2021-22 में 535 थी।

बाघों की वजह से होने वाली मानव मौतों के मामलों में भी पिछले तीन वर्षों में लगातार वृद्धि देखी गई; 2020 में 44, 2021 में 57 और 2022 में 106 मामले दर्ज किए गए।

गौरतलब है कि बाघों के हमलों में भी होने वाली सभी मौतें अभयारण्यों में हुईं, जो दर्शाता है कि इसके लिए मानव अतिक्रमण अधिक जिम्मेदार है। 

कूनो पार्क में नामीबियाई चीते ने दिया जन्म, एक अन्य चीते की मौत

पिछले साल सितंबर में मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में स्थानांतरित किए गए आठ नामिबियाई चीतों में से एक ने मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में चार शावकों को जन्म दिया है

वहीं एक अन्य मादा नामीबियाई चीते साशा की मौत हो गई है। शावकों के जन्म की जानकारी केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने ट्विटर पर साझा की। 

इससे पहले पांच वर्षीया मादा चीता साशा की मौत से ‘प्रोजेक्ट चीता’ को बड़ा झटका लगा था। मध्य प्रदेश वन विभाग ने एक बयान में कहा कि साशा को पिछले साल ही किडनी में संक्रमण हो चुका था, जब वह नामीबिया में कैद में थी।

पर्यावरण मंत्रालय के सूत्रों ने पहले बताया था कि साशा को सभी चीतों से अलग रखा गया था और उसका इलाज किया जा रहा था लेकिन “उसके बचने की संभावना बहुत कम थी”।

कूनो नेशनल पार्क की ओर से कहा गया कि 22 मार्च को साशा को मॉनिटरिंग टीम ने सुस्त पाया। जांच में पता चला कि उसे इलाज की जरूरत है, जिसके बाद उसे अलग बाड़े में लाया गया।

उसके ब्लड सैंपल की जांच से पता चला कि उसके गुर्दों में संक्रमण है, जो उसे भारत लाने से पहले से ही हुआ था। इलाज के दौरान साशा की मौत हो गई।

वायु प्रदूषण दिल्ली वालों की जान के लिए सबसे बड़ा ख़तरा, लद्दाख भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं

वायु प्रदूषण कम कर रहा है ज़िंदगी, दिल्ली में रहना सबसे ख़तरनाक

वायु प्रदूषण से भारतीयों की औसत उम्र 4 साल 11 महीने कम हो रही है। देश के 8 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पाया गया कि नागरिकों कि वायु प्रदूषण और उससे संबंधित बीमारियों के कारण औसत उम्र 5 साल या उससे घट जाती है। यह बात दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरेंमेंट (सीएसई) की ताज़ा स्टेट ऑफ इन्वायरेंमेंट रिपोर्ट 2023 में कही गई है। वायु प्रदूषण की मार से राजधानी दिल्ली में लोगों की उम्र सबसे अधिक 10 साल घट रही है। हरियाणा में 7 साल और पंजाब में 6 साल घट उम्र रही है।  

सीएई के मुताबिक यह विश्लेषण ज़िलावार वायु गुणवत्ता सूचकांक पर आधारित है जो कि यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के एनर्जी पॉलिसी इंस्टिट्यूट ने जारी किया है। लद्दाख में रहने वालों के जीवन में वायु प्रदूषण सबसे कम असर डाल रहा है लेकिन यहां भी जीवनावधि औसतन 4 महीने कम हो ही रही है। 

वायु प्रदूषण बढ़ा रहा है कोविड का खतरा 

नए शोध बताते हैं कि प्रदूषित हवा – विशेष रूप से पीएम 2.5 के खतरनाक स्तर और नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड (NO2) – में लम्बे समय तक रहने (एक्सपोज़र) से कोविड जैसी बीमारी के होने, अस्पताल में भर्ती होने और मौत का ख़तरा बढ़ रहा है। इंग्लैंड में किए गए एक शोध से पता चला है पीएम 2.5 और NO2 में लंबी अवधि में रहने पर कोविड के मामलों में प्रति माइक्रोग्राम बढ़ोतरी से 12% और 5% केस बढ़ रहे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है प्रदूषण लोगों के फ़ेफ़ड़ों को कमज़ोर कर वायरल बुखार के प्रति उनकी प्रतिरोधक क्षमता घटा देता है जिससे कोविड का ख़तरा बढ़ रहा है। 

दिल्ली में रियल टाइम प्रदूषण डाटा संग्रह के लिए 11 ज़िलों में होंगी मोबाइल वैन 

बजट पेश करते हुए दिल्ली सरकार ने विधानसभा में दावा किया कि पिछले 8 साल में राजधानी के प्रदूषण में 30% कमी आई है। वित्तमंत्री कैलाश गहलोत ने साल 2023-24 का बजट पेश करते हुए कहा कि पीएम 10 और पीएम 2.5 पार्टिकुलेट मैटर का स्तर 30 प्रतिशत घटा है और अब केजरीवाल सरकार हर ज़िले में रियल टाइम पॉल्यूशन डाटा कलेक्शन प्रयोगशाला स्थापित करेगी। दिल्ली के पंडारा रोड क्षेत्र में इस साल 30 जनवरी को एक प्रयोगशाला स्थापित की गई थी जिसकी जगह सभी 11 ज़िलों में अब मोबाइल वैन डाटा एकत्र करेंगी।   

हालांकि दिल्ली सरकार ने वन और पर्यावरण मंत्रालय के लिए 263 करोड़ बजट घोषित किया है जो पिछले साल (266 करोड़) के मुकाबले इस साल 3 करोड़ कम है। दिल्ली सरकार आईआईटी और दि एनर्जी एंड रिसोर्सेज संस्थान (टेरी) के साथ मिलकर यह पता लगाने के लिए अध्ययन करवा रही है कि प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार स्रोतों का दिल्ली की हवा को ख़राब करने में कितना रियल टाइम योगदान है। 

महत्वपूर्ण है कि मॉनिटरिंग के मामले में दिल्ली में पिछले 8 साल में सुधार हुआ है और राजधानी में मॉनिटरिंग स्टेशनों की संख्या 4 गुना बढ़ी है। सड़क पर धूल को कम करने के लिए सरकार पूरी राजधानी में 52 लाख पेड़ भी लगाएगी।  

इस्तेमाल हो चुके फेस मास्क का प्रयोग कार्बन कैप्चर तकनीक में  

भारतीय शोधकर्ताओं के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने एक नई तकनीक विकसित की है जिसमें इस्तेमाल किए जा चुके फेस मास्क का इस्तेमाल वातावरण से ऑक्सीज़न हटाने के लिए किया जा सकेगा। शोधकर्ताओं ने इन नकाबों को बहुत महीन छिद्रपूर्ण रेशेदार अवशोषकों में बदला जिनकी मदद से गैस, द्रव और घुलनशील ठोस से अणुओं को एक सतह पर खींचा जा सकता है।  इस टीम की अगुवाई बैंगलुरू की अलायंस यूनिवर्सिटी के रिसर्चर कर रहे हैं। रवेदार या पाउडरनुमा मटीरियल के मुकाबले इस तरह डेवलप किए गए अवशोषक काफी असरदार हैं जो कई जगहों पर काम करते हैं और इनके सोखना की दर और क्षमता अपेक्षाकृत काफी अधिक है।

भारत 2070 तक नेट-जीरो लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक बढ़ाना चाहता है।

भारत के नवीकरणीय ऊर्जा प्रयासों के सामने आईं नई चुनौतियां

हिंडनबर्ग रिपोर्ट के आरोपों से अडानी समूह को झटका लगने के दो सप्ताह के भीतर ही फ्रांसीसी कंपनी टोटल एनर्जीस ने समूह के साथ हुए हरित हाइड्रोजन परियोजना समझौते को निलंबित कर दिया था। टोटल एनर्जीस ने जून 2022 में भारत में ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन और बिक्री के लिए अडानी न्यू इंडस्ट्रीज लिमिटेड में 25 प्रतिशत हिस्सेदारी प्राप्त करने के समझौते की घोषणा की थी।

यह सौदा अडानी समूह द्वारा अगले दशक में ग्रीन हाइड्रोजन में $50 बिलियन का निवेश करने की योजना का हिस्सा था। यह डील अब खटाई में पड़ गई है।

लेकिन इस तरह की चुनैतियां अब अडानी समूह तक ही सीमित नहीं रहेंगी। देश के सबसे बड़े नवीकरणीय ऊर्जा निवेशकों में से एक पर इस तरह के आरोप लगने का मतलब है कि अब विदेशी निवेशकों द्वारा लगभग हर भारतीय कंपनी के कॉर्पोरेट गवर्नेंस को बारीकी से परखा जाएगा

ऐसे में एनर्जी ट्रांजिशन में पहले से ही कम हो रहे निवेशों के और घटने की संभावना है, जो भारत के अक्षय ऊर्जा लक्ष्यों के लिए अच्छी खबर नहीं है।

वहीं वैश्विक ब्याज दरों के बढ़ने के साथ जहां एक ओर पूंजी की लागत बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट की मदद से अमेरिका साफ ऊर्जा में निवेश के अधिक अवसर पैदा कर रहा है।

भारत 2070 तक नेट-जीरो लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक बढ़ाना चाहता है। लेकिन अगर यह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ तो देश को कुछ और समय तक कोयले पर निर्भर रहना पड़ सकता है।

एक अनुमान के अनुसार भारत को अगले 30 वर्षों में केवल कोयला खदानों और थर्मल पावर संयंत्रों के जस्ट ट्रांजिशन के लिए कम से कम 900 बिलियन डॉलर की जरूरत होगी।

इनमें से 600 बिलियन डॉलर निवेश के माध्यम से चाहिए होंगे और 300 बिलियन डॉलर के अनुदान/सब्सिडी की जरूरत कोयला उद्योग, श्रमिकों और समुदायों के ट्रांजिशन के लिए पड़ेगी।

रूफटॉप सोलर और पवन ऊर्जा की धीमी प्रगति के कारण भारत अक्षय ऊर्जा लक्ष्य से पिछड़ा: रिपोर्ट

ऊर्जा पर संसदीय स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि रूफटॉप सोलर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं की धीमी गति के कारण भारत 2022 तक 175 गीगावाट स्थापित करने के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका।

भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया था, जिसमें सौर ऊर्जा से 100 गीगावाट, पवन से 60 गीगावाट, बायो-पावर से 10 गीगावाट, और छोटे जल विद्युत से 5 गीगावाट क्षमता प्राप्त होनी थी।

लेकिन 31 दिसंबर, 2022 तक, देश में इसका 69 प्रतिशत, यानि 120.9 गीगावाट क्षमता ही स्थापित की जा सकी

मेरकॉम की रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2022 में रूफटॉप सौर क्षमता में साल-दर-साल लगभग 4% की गिरावट के साथ सिर्फ 1.6 गीगावाट की वृद्धि की।

दिल्ली सरकार की नई नीति में ‘सामूहिक सौर पैनल’ पर ज़ोर

दिल्ली सरकार एक नई ड्राफ्ट सोलर पॉलिसी लेकर आई है, जिसके तहत छतों पर लगाए जाने वाले सौर पैनलों में बढ़ोत्तरी की जानी है

इस नीति का लक्ष्य छतों पर लगे सोलर की क्षमता को बढ़ाकर 750 मेगावाट तक पहुंचाना है, और दिल्ली के बाहर के यूटिलिटी स्केल सोलर प्रोजेक्ट के तहत 5,250 मेगावाट क्षमता जोड़ी जानी है। 

इस तरह अगले तीन सालों में, यानि 2025-26 तक सौर ऊर्जा की क्षमता को बढ़ाकर 6,000 मेगावाट तक पहुंचाना है।

गौरतलब है कि साल 2016 में आई सोलर नीति में ऐलान किया था कि 2020 के अंत तक रूफटॉप सेटअप, यानि लोगों के घरों की छतों पर सोलर पैनल लगाकर 1,000 मेगावाट बिजली पैदा की जाएगी।

हालांकि, दिल्ली सरकार के मुताबिक, छतों पर सौर ऊर्जा से अभी तक 230 मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है।

यह उस लक्ष्य के 25 प्रतिशत से भी कम है जिसे तीन साल पहले प्राप्त कर लिया जाना चाहिए था।

लेकिन ग्राहकों और कंपनियों को इंसेंटिव देने और 500 वर्ग मीटर की छत वाली सरकारी इमारतों पर सोलर पैनल लगाना अनिवार्य किए जाने के बावजूद इतना ही हासिल हो सका है।

मौजूदा नीति में सरकार सामुदायिक सोलर रूफटॉप की अवधारणा भी लाई है जिसमें वह लोग, जो फ्लैट या अपार्टमेंट में रहते हैं या जिनकी छत छोटी है, साथ आकर किसी एक जगह पर सोलर पैनल लगवा सकते हैं और अपने-अपने निवेश के हिसाब से सौर ऊर्जा का फायदा ले सकते हैं।

यह सबकुछ ग्रुप नेट-मीटरिंग या वर्चुअल मीटरिंग की मदद से संभव किया जा सकता है।

ईवी उद्योग का मानना है कि बैटरी के आयामों का मानकीकरण व्यावसायिक दृष्टिकोण से संभव नहीं है।

बैटरी स्वैपिंग नीति में देरी से हो सकता है निवेश में नुकसान

इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग अभी तक वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा 2022-23 के बजट में घोषित बैटरी स्वैपिंग नीति का इंतजार कर रहा है

नीति आयोग ने लगभग एक साल पहले मसौदा नीति जारी की थी। इसके बाद बैटरी स्वैपिंग तथा चार्ज-पॉइंट ऑपरेटरों और वाहन निर्माताओं समेत अन्य हितधारकों के साथ कई बैठकें की जा चुकी हैं।

कहा जा रहा है कि इंटर-ऑपरेबिलिटी मानकों को लेकर हो रहे विरोध के कारण नीति जारी नहीं की जा रही है। इन मानकों के अनुसार स्वैप की जाने वाली बैटरी के बाहरी आयाम निर्धारित किए गए हैं और इंसेंटिव प्राप्त करने के लिए इनका पालन करना अनिवार्य है।

उद्योग का मानना ​​है कि यह मानक एक विशेष मूल उपकरण निर्माता (ओईएम) के पक्ष में हैं और बैटरी के आयामों का मानकीकरण व्यावसायिक दृष्टिकोण से संभव नहीं है।

उम्मीद की जा रही है कि इस नीति से वाहनों की चार्जिंग के डाउनटाइम और दोपहिया-तिपहिया वाहनों के लिए शहरी क्षेत्रों में जगह की कमी जैसी कुछ चुनौतियों में कमी आएगी।

वहीं निवेशकों को डर है कि सरकार की ओर से नीतिगत दिशा-निर्देशों में देरी से उद्योग में निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

ईवी प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए बैटरी रीसाइक्लिंग है जरूरी

भारत को यदि 2030 तक 30% दैनिक ईवी प्रयोग का लक्ष्य पूरा करना है तो उसे बैटरी रीसाइक्लिंग पर जोर देना चाहिए। 

ईवी में प्रयोग की जाने वाली लिथियम-आयन बैटरी के निर्माण के लिए कोबाल्ट, लिथियम और निकल जैसी महंगी धातुओं की आवश्यकता होती है। लेकिन इन धातुओं की उपलब्धता सीमित है और भारत में निर्माता बहुत हद तक इनके आयात पर निर्भर हैं।

साथ ही लिथियम-आयन बैटरी की लाइफ पूरी होने के बाद यह जरूरी है कि इससे उत्पन्न होने वाले ‘कचरे’ को जिम्मेदारी से निपटाया जाए, जिससे इकोसिस्टम को होने वाला नुकसान कम हो।

इन दोनों चुनौतियों, विशेषकर दूसरी चुनैती, को कम करने के लिए लिथियम-आयन बैटरी की विशाल रीसाइक्लिंग इकाईयां स्थापित करना बहुत जरूरी है।

इलेक्ट्रिक वाहनों से उत्पन्न लिथियम-आयन बैटरी ‘कचरे’ को रीसाइकिल करके बैटरी उद्योग को कोबाल्ट, लिथियम और निकल जैसी महत्वपूर्ण धातुओं की आपूर्ति के लिए एक ‘हरित’ विकल्प मिल सकता है, जिसके फलस्वरूप ईवी प्रयोग को बढ़ावा देने में भी मदद मिलेगी।

ईवी बिक्री के लिए रिकॉर्ड वर्ष साबित हो सकता है 2023

इस साल जनवरी से अब तक भारतीयों ने 2.78 लाख इलेक्ट्रिक वाहन खरीदे हैं, यानि हर महीने औसतन 90,000 से ज्यादा ईवी की बिक्री हुई है। यदि यह दर जारी रहती है तो भारत 2023 में ईवी बिक्री का रिकॉर्ड कायम कर सकता है।     

परिवहन मंत्रालय के वाहन पोर्टल के अनुसार पिछले साल देश में रिकॉर्ड दस लाख इलेक्ट्रिक वाहन बेचे गए थे। साल 2021 में पंजीकृत हुए इलेक्ट्रिक वाहनों  की संख्या 3.29 लाख थी जो पिछले साल लगभग तीन गुना बढ़कर 10.20 लाख हो गई।

राज्य मंत्री कृष्ण पाल गुर्जर ने हाल ही में कहा था कि इस साल 15 मार्च तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारतीयों ने अब तक कुल 21.70 लाख इलेक्ट्रिक वाहन खरीदे हैं।

सबसे अधिक 4.65 लाख इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री उत्तर प्रदेश में हुई है, इसके बाद महाराष्ट्र में 2.26 लाख ईवी पंजीकृत हुए हैं जबकि दिल्ली में लगभग 2.03 लाख वाहन पंजीकृत हैं।

कोयले से साफ ऊर्जा की ओर जस्ट ट्रांजिशन के लिए भारत को अगले 30 वर्षों में 72 लाख करोड़ रूपए की ज़रुरत होगी।

जस्ट ट्रांजीशन के लिए भारत को अनुमानित 72 लाख करोड़ रुपए की ज़रूरत

इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में अगले 30 वर्षों में कोयले की खानों और थर्मल पावर प्लांट से जस्ट ट्रांजीशन के लिए अनुमानित 900  बिलियन डॉलर यानी करीब 72 लाख करोड़ रूपए की आवश्यकता है। रिपोर्ट के अनुसार, अनुमानित लागत का 600 बिलियन डॉलर (48 लाख करोड़ रुपए) नए उद्योगों और बुनियादी ढांचे में निवेश के रूप में और 300 बिलियन डॉलर (24 लाख करोड़ रुपए)  अनुदान/सब्सिडी के रूप में कोयला उद्योग, श्रमिकों और समुदायों के संक्रमण का समर्थन करने के लिए लगेगा। 

ट्रांजीशन की प्रमुख लागतों में शामिल हैं माइन पुनर्ग्रहण और पुनर्उद्देश्य, ताप विद्युत संयंत्रों का डीकमीशनिंग, श्रम सहायता, आर्थिक विविधीकरण, आदि। भारत के जी20 शेरपा अमिताभ कांत ने कहा कि न्यायोचित परिवर्तन के लिए निजी वित्तपोषण महत्वपूर्ण होगा। “निजी वित्त पोषण का लाभ उठाने की हमारी क्षमता से केवल संक्रमण के लिए दबाव डालने की हमारी क्षमता प्रभावित होती है,” उन्होंने कहा।

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा;  कोयले से चीन के जलवायु वादों पर सवाल  

पाकिस्तान के तटीय शहर ग्वादर में चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर (सीपीइसी) से जुड़े 300 मेगावॉट  कोयला बिजलीघर को आखिरकार पाकिस्तान सरकार ने हरी झंडी दे दी है। इसे चीनी कंपनियों द्वारा वित्तपोषित और निर्मित किया जाएगा। इस कोयला पावर प्लांट की योजना सात साल बनी थी लेकिन फिर इसका काम रोक दिया गया था क्योंकि पाकिस्तानी सरकार चीन के साथ समझौते की मूल शर्तों पर फिर से बातचीत करना चाहती थी। 

हालाँकि ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के मौजूदा आर्थिक संकट ने इस संकल्प को कमजोर कर दिया है क्योंकि सरकार कथित तौर पर इन मांगों को वापस ले रही है। यह कदम चीन की भूमिका सवाल उठाते हैं क्योंकि 2021  में  संयुक्त राष्ट्र महासभा में चीन ने  देश के बाहर कोई नया कोयला आधारित बिजली संयंत्र नहीं बनाने का वादा किया था। उधर इस्लामाबाद में चीनी दूतावास ने कथित तौर पर पाकिस्तानी सरकार से चीन द्वारा संचालित बिजली संयंत्र को लगभग 150 करोड़  अमरीकी डालर का भुगतान करने को कहा है।

यूरोपीय संघ और जर्मनी ने किया जीवाश्म ईंधन कार फेजआउट योजना पर समझौता 

यूरोपीय संघ और जर्मनी ने जीवाश्म ईंधन से चलने वाली कारों की बिक्री को 2035 तक समाप्त करने की योजना के विवाद के बाद अब एक समझौता किया है। इस महीने की शुरुआत में, प्रमुख कार निर्माता जर्मनी ने यूरोपीय संघ विधायी प्रक्रिया के तहत पहले से ही अनुमोदित किए जाने के बाद अंतिम समय में समझौते को अवरुद्ध कर दिया, यह मांग करते हुए कि कानून सिंथेटिक ईंधन पर चलने वाले दहन इंजन वाली नई कारों की बिक्री की अनुमति देगा।

जर्मनी जिन सिंथेटिक ईंधनों के लिए छूट चाहता था, वे अभी भी विकसित किए जा रहे हैं और कम कार्बन उत्सर्जन वाले स्रोतों से उत्पादित बिजली से बनाये जाते हैं। प्रौद्योगिकी अप्रमाणित है, लेकिन जर्मन निर्माताओं को उम्मीद है कि यह दहन इंजनों की उम्र बढ़ाएगा। पर्यावरणीय गैर-सरकारी संगठनों ने सिंथेटिक ईंधन की कीमत पर सवाल खड़ा किया है, यह कहते हुए कि वे बहुत महंगे, प्रदूषणकारी और ऊर्जा-गहन हैं।