पिछले दो दशकों में उत्तराखंड ने 1,200 से अधिक तेंदुओं को खोया है। तस्वीर– डेविड राजू/विकिमीडिया कॉमन्स

उत्तराखंड में तेंदुओं के साथ जीवन और जिम कार्बेट की विरासत

कभी जिम कॉर्बेट ने तेंदुओं को सबसे सुंदर जीव का दर्जा दिया था। यही जीव उत्तराखंड में मुश्किल में है। आवास और भूख मिटाने के लिए शिकार की कमी झेल रहे इस जीव का शिकार भी बढ़ा है।

लगभग सौ साल पुरानी बात है। एक आदमखोर तेंदुए ने रुद्रप्रयाग के क्षेत्र में भारी तबाही मचा रखी थी। आठ साल में कम से कम 125 लोगों की जान लेने वाले इस तेंदुए से मुक्ति दिलाने का श्रेय जिम कॉर्बेट को जाता है।

इस आदमखोर तेंदुए की कहानी का कार्बेट ने अपनी एक पुस्तक – ‘द मैन-ईटिंग लेपर्ड ऑफ रुद्रप्रयाग‘ में विस्तृत वर्णन किया है। उस तेंदुए की वजह से व्याप्त भय का जिक्र कॉर्बेट ने कुछ इस तरह किया है, “रूद्रप्रयाग के आदमखोर तेंदुए के भय से कर्फ्यू का माहौल बन जाता था। यह शासन द्वारा लगाए गए कर्फ्यू से कहीं अधिक सख्त होता था।” 

आखिरकार कॉर्बेट ने इस तेंदुए का सफाया किया। लोगों को राहत मिली। लेकिन इसके पहले इस तेंदुए की चर्चा भारत, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका तथा अन्य देशों तक पहुंच चुकी थी। वहां के समाचार पत्रों में इस खतरनाक हो चुके जंगली जीव की कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं। 

इसी जिम कॉर्बेट के नाम पर इस अभयारण्य का नाम पड़ा जिसे बदलने की मंशा अब केन्द्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री अश्विनी चौबे जाहिर कर चुके हैं।  इनकी बात अगर सही हुई तो इसका नाम बदलकर रामगंगा नेशनल पार्क कर दिया जाएगा। 

एशिया और भारत के पहले अभयारण्य के तौर पर 1935 में अस्तित्व में आए इस खूबसूरत जगह का नाम हैली नेशनल पार्क था। यह यूनाइटेड प्राविन्स के गवर्नर रहे सर मैकोम हैली के नाम पर रखा गया था। हालांकि, नया नया आजाद हुए देश में अंग्रेजों के निशान मिटाने के प्रयास में, इस अभयारण्य का नाम 1955 में बदलकर रामगंगा नेशनल पार्क कर दिया गया। इस अभयारण्य के उत्तर दिशा में बहने वाली नदी के नाम पर।

फिर उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के आग्रह पर 1957 में इस अभयारण्य का नाम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया। अंग्रेज शिकारी जिम कॉर्बेट के संरक्षण के प्रयासों को याद करते हुए। 

बीते 25 जुलाई को प्रकृति पसंद लोगों ने इसी जिम कार्बेट की 146वीं जयंती मनाई है। कार्बेट को उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र के कई ग्रामीणों को आदमखोर जंगली जानवरों के प्रकोप से बचाने का श्रेय जाता है। बावजूद इसके, जिम कॉर्बेट के मन में हिमालय में स्वच्छंद घूमने वाले इन जीवों के प्रति एक विशेष लगाव रहा है। 

उत्तराखंड के कालाढूंगी में जिम कॉर्बेट का घर अब एक संग्रहालय है। यहां उनके प्रशंसक आकर उन्हें याद करते हैं। तस्वीर- ललित कुमार जोशी
उत्तराखंड के कालाढूंगी में जिम कॉर्बेट के घर को अब एक संग्रहालय बना दिया गया है। यहां उनके प्रशंसक आकर उन्हें याद करते हैं। तस्वीर- ललित कुमार जोशी

इन्होंने बाघ को “असीमित साहस वाला और एक बड़े दिल वाला सज्जन” व्यक्ति की संज्ञा दी। तेंदुए को तो वे “सभी जानवरों में सबसे सुंदर” बताते थे। तेंदुए के बारे में इनका मानना था कि यह “साहस में किसी से पीछे नहीं” है।

अपनी इन तमाम खूबियों के बावजूद वर्तमान समय, तेंदुओं के लिए अच्छा नहीं है। कई प्राकृतिक और मानव निर्मित परिस्थितियों की वजह से इस ‘सुंदर’ जीव की संख्या लगातार घट रही है। दूसरी तरफ, उत्तराखंड के गांवों में तेंदुओं द्वारा मारे गए लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। इससे आस-पास के इलाकों में दहशत का माहौल बना रहता है। कहीं-कहीं तो दहशत इतनी बढ़ गयी है कि गांव के लोग पलायन तक करने को मजबूर हैं। 

बदले माहौल में ढल जाते हैं तेंदुए, फिर भी है खतरा

हालिया  सर्वे के अनुसार देश में 12 हजार से अधिक तेंदुओं के होने का अनुमान है। इन्हें पहाड़ों में गुलदार भी बुलाया जाता है। तेंदुओं की बड़ी आबादी संरक्षित जंगलों में या उसके आसपास रहती है। 2018 में उत्तराखंड में कुल 703 तेंदुए थे। 

बाघों के विपरीत, तेंदुए बदलते परिवेश में खुद को ढालने में अधिक सक्षम हैं। वे भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की ‘अनुसूची 1‘ श्रेणी में आते हैं। तात्पर्य यह कि यह जीव भी बाघों और शेरों जैसे अन्य संरक्षित जानवरों की सूची में हैं। इनकी हत्या या शिकार करने पर समान रूप से कठोर दंड का प्रावधान है। 

इन सबके बावजूद भी वन विभाग के रिकॉर्ड बताते हैं कि नवंबर 2000 में उत्तराखंड के गठन के बाद से अब तक 1,200 से अधिक तेंदुए मारे जा चुके हैं। यह आंकड़ा 2020 तक का ही है। विशेषज्ञों का कहना है कि तेंदुआ आज सबसे “लुप्तप्राय” प्रजातियों में शामिल है। 

“हालांकि तेंदुए को हम अभी भी अपने आसपास देख सकते हैं पर नए अध्ययन इनकी घटती संख्या की तरफ इशारा करते हैं। तेंदुओं की संख्या काफी कम हो गयी है। यह तब है जब तेंदुए आसानी से प्रतिकूल परिस्थितियों में खुद को ढाल सकते हैं। जहां बाघों को जीवित रहने के लिए सांभर और चीतल जैसे बड़े शिकार की प्रचुर उपलब्धता के साथ बड़े संरक्षित और शांत वन की आवश्यकता होती है, वहीं तेंदुए मानव आवास के आसपास भी रह लेते हैं। वे पोल्ट्री कचरे या यहां तक ​​​​कि अस्पताल के कचरे जैसी चीजें खाकर भी खुद को जीवित रख लेते हैं,” भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के वरिष्ठ वैज्ञानिक बिवाश पांडव ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

अल्मोड़ा में इलाज के लिए पकड़ा गया तेंदुआ। तस्वीर साभार उत्तराखंड वन विभाग।
अल्मोड़ा में इलाज के लिए पकड़ा गया तेंदुआ। तस्वीर: साभार उत्तराखंड वन विभाग।

तेंदुओं को कई खतरों का सामना करना पड़ रहा है जैसे निवास स्थान में कमी, शिकार की उपलब्धता में कमी और व्यापार के लिए हो रहा इनका अवैध शिकार। पांडव बताते हैं कि तराई के संरक्षित जंगलों में बाघों की बढ़ती संख्या की वजह से तेंदुओं को उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में उत्तर की ओर बढ़ने के लिए मजबूर किया है। नई जगह पर उन्हें अक्सर शिकार की कमी का सामना करना पड़ता है और इसका परिणाम मानव-तेंदुआ संघर्ष के रूप में हमारे सामने है। 

मोंगाबे-हिन्दी को प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि उत्तराखंड में हर साल, मानव-वन्यजीव के संघर्ष की वजह, बड़ी संख्या में लोगों की जान जाती है। इसमें कम से कम आधे के लिए तो तेंदुए ही जिम्मेदार हैं। उदाहरण के लिए, 2012 और 2019 के बीच जंगली जानवरों द्वारा कम से कम 311 लोगों की हत्या की गई। उनमें से आधे से अधिक (163) की जान अकेले तेंदुओं ने ली।

उत्तराखंड के वन विभाग के अनुसार, इस अवधि में जंगली जानवरों ने लगभग 2,000 लोगों को घायल भी किया।

“मनुष्यों पर (तेंदुए द्वारा) हमला नया नहीं है। कॉर्बेट की कहानियों के माध्यम से हम जानते हैं कि यह 100 साल पहले भी हो रहा था लेकिन आज (स्थानीय लोगों के लिए) खतरा बढ़ गया है। कुछ मामलों में लोग पहाडों से पलायन भी कर रहे हैं। जैसे-जैसे लोग शहरों के लिए गांवों को छोड़ते थे, घर के चारों ओर विशाल घास, झाड़ियां और अन्य वनस्पतियां उग आती हैं। यह तेंदुओं के रहने के लिए मुफीद जगह होती है। यहां छिपकर वे कभी-कभी लोगों पर भी हमला कर देते हैं,” पांडव ने मोंगाबे-हिन्दी को समझाया।

चमोली के अन्य कॉर्बेट

जिम कार्बेट की ही तरह का उत्तराखंड में ऐसे कई लोग हैं जो न केवल ग्रामीणों को तेंदुए से बचाते हैं बल्कि उन्हें इस खतरे से निपटने के लिए प्रशिक्षित भी करते हैं। छप्पन वर्षीय स्कूल शिक्षक लखपत सिंह रावत, तेंदुओं के रेस्क्यू में, वन विभाग की मदद करते हैं। उन्हें लोग “चमोली के कॉर्बेट” के रूप में जानने लगे हैं। 

रावत ने पिछले दो दशकों में 50 से अधिक आदमखोरों को मारा है। “मैंने मार्च 2002 में पहले आदमखोर को मार डाला। वह एक तेंदुआ था जिसने मेरे स्कूल में 12 बच्चों को मार डाला था। इसने चमोली के गांवों में अत्यधिक दहशत फैला दी थी। तब से अब तक मैंने 52 तेंदुओं और दो बाघों को मार डाला है, जिन्हें वन विभाग द्वारा आदमखोर घोषित किया गया था, ”रावत ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

वन अधिकारियों का कहना है कि आदमखोर में तब्दील हो चुके किसी जानवर को गोली मारना हमेशा अंतिम उपाय होता है। यह राज्य के मुख्य वन्यजीव वार्डन द्वारा प्रभावित क्षेत्र के संभागीय वन अधिकारी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर दी गई अनुमति के बाद ही किया जा सकता है। इसके लिए एक प्रक्रिया निर्धारित है। सबसे पहली कोशिश तो उस जीव को जिंदा पकड़ने की होती है। जाल बिछाकर। 

उत्तराखंड के 1000 गांवों को घोस्ट विलेज घोषित किया गया है। इसका अर्थ हुआ ऐसे गांवों में कोई नहीं रहता। गांव में घास और झाड़ियों की वजह से तेंदुओं को छुपने की जगह मिल जाती है। तस्वीर- हृदयेश जोशी
उत्तराखंड के 1000 गांवों को घोस्ट विलेज घोषित किया गया है। ये ऐसे गांव हैं जहां कोई नहीं रहता। गांव में घास और झाड़ियों की वजह से तेंदुओं को छिपने की जगह मिल जाती है। तस्वीर- हृदयेश जोशी

“अधिकांश मामलों में कोशिश रहती है कि न लोगों का नुकसान हो न जानवर का। मनुष्य और जानवर के बीच संघर्ष की स्थिति को रोकने के लिए जागरूकता, सतर्कता और लोगों के पशुओं के प्रति व्यवहार पर ध्यान दिया जाता है। सारी सावधानियों के बावजूद तेंदुए के मामले में कोई समस्या आती है तो उसे पहचान कर दूर किया जाता है,” उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड के अध्यक्ष और राज्य के तत्कालीन मुख्य वन्यजीव वार्डन राजीव भर्तारी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया था।

आदमखोर तेंदुए को मारना रावत के लिए कोई खुशी का काम नहीं है। 

“मैं अपने दिल में दुख और दर्द महसूस करता हूं। ऐसे सुंदर जानवर को मारना हमेशा तकलीफदेह होता है। ये हमारी खाद्य श्रृंखला में काफी महत्वपूर्ण हैं। हम ही इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि हमने इन जंगली जानवरों के आवास को नष्ट कर दिया है। जंगलों में उनके लिए कोई प्राकृतिक शिकार नहीं बचा है। वे कहां जाएंगे? वे अपने चारों ओर लोगों को देख रहे हैं और जब उन्हें खाने के लिए और कुछ नहीं मिलता है तो हमला करते हैं, ” रावत ने कहा।

भर्तारी बताते हैं कि लोगों की लापरवाही और कचरे का सही निपटान न होने की वजह से स्थिति भयावह हुई है। 

“पहले लोग जंगली जानवरों से सुरक्षित दूरी का पालन करते थे, लेकिन आजकल लोग अपने स्मार्टफोन का उपयोग करके हाथियों और अन्य जानवरों के साथ सेल्फी लेते हैं। हम तेंदुओं और बाघों के वीडियो को भी दूर से फिल्माते हुए देखते हैं। एक और बात मानव निवास के आसपास खराब अपशिष्ट के निपटान से वहां बंदर और हिरण आकर्षित होते हैं। तेंदुए इन जानवरों का पीछा करते हुए मानव निवास के करीब आते हैं और अक्सर आसपास रहने वाले मनुष्यों पर हमला करते हैं, ” भर्तारी ने जोर देकर कहा। 

जंगली जानवरों के साथ कैसे रहें

परिस्थितियों को रहने योग्य बनाने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। ऐसा करने के लिए स्थानीय लोगों का जागरुक बनाना होगा। साथ ही सही उपकरणों से लैस कर वन रक्षकों को संवेदनशील भी बनाया जाना चाहिए। पशु-चिकित्सकों की कमी भी मानव-पशु के बीच हो रहे संघर्ष की वजह है। 

“हमें पशु चिकित्सकों की आवश्यकता है। आनन-फानन में बचाव दल बनाने में इनकी बड़ी भूमिका होती है। विभाग को ऐसे डॉक्टरों की जरूरत है क्योंकि केवल वे (हमले के मामले में) प्रमाणित कर सकते हैं कि जानवर को कोई समस्या है या नहीं। वे हमें बताएंगे कि क्या इसका रेस्क्यू हो या इसे मार दिया जाए। कई बार सिर्फ इलाज करके जंगल में छोड़ने की जरूरत होती है, ”भर्तारी समझाते हैं। 

हालिया सर्वे के अनुसार देश में 12 हजार से अधिक तेंदुओं के होने का अनुमान है। तस्वीर- बिवाश पांडव
हालिया सर्वे के अनुसार देश में 12 हजार से अधिक तेंदुओं के होने का अनुमान है। तस्वीर- बिवाश पांडव

भर्तारी ने जानवरों को उनके व्यवहार को समझने के लिए “रेडियो-कॉलिंग” की आवश्यकता पर भी जोर दिया। 

दूसरी ओर, रावत आदमखोरों के व्यवहार का बारीकी से अवलोकन और अध्ययन करते हैं। 

“जब एक तेंदुआ आदमखोर हो जाता है तो उसे इंसानों का कोई डर नहीं होता और वह बहुत आक्रामक हो जाता है। आदमखोर तेंदुआ केवल शाम के 6 से 9 बजे के बीच मानव बस्ती के पास आता है।जबकि सामान्य तेंदुए जो कुत्तों और अन्य जानवरों को उठाते हैं, वे आमतौर पर रात के 11 बजे के बाद आते हैं। ऐसे में शाम के बाद बच्चों या बूढ़ों को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए, ” उन्होंने आगाह किया।

रावत ने बीते साल, रुद्रप्रयाग के पास नारायणबगड़ गांव में 10 जुलाई को एक आदमखोर को मार गिराया था। रावत ने कहा कि लोगों को तेंदुओं से खुद को बचाने के लिए अपनी जीवन शैली को बदलनी चाहिए। 

“यह कोई बड़ा काम नहीं है। जैसे अगर महिलाएं जंगल में घास काटने जाती हैं तो उन्हें तीन या चार के समूह में जाना चाहिए। जब महिलाएं घास काट रहीं हों तो एक महिला को हमेशा पहरेदार के रूप में खड़ा होना चाहिए। अगर तेंदुए को आभास रहे कि कोई उसे देख रहा है तो तो वह कभी हमला नहीं करेगा,” रावत ने कहा।

कॉर्बेट को श्रद्धांजलि

पिछले साल, जिम कॉर्बेट की मृत्यु के लगभग 65 वर्षों के बाद, रावत और उनके साथी कार्बेट की कहानियों को याद कर रहे थे। स्थानीय और सरकारी अधिकारी भी रावत जैसे सहयोगियों की भूमिका को मानते हैं।

“मैं लखपत सिंह रावत और जॉय हकील (रावत की तरह एक अन्य शिकारी) जैसे लोगों को जानता हूं। वे अपने अनुभवों से लोगों की मदद करते हैं जिसे सरकारी कागजात पढ़कर नहीं सीखा जा सकता है। इन लोगों के काम की जितनी तारीफ की जाए वह कम है, ”भर्तारी कहते हैं।

रावत खुद को कार्बेट से तुलना करने पर खुशी और गर्व का अनुभव करते हैं। “जिम कार्बेट  एक महान व्यक्ति थे। वह पहाड़ी लोगों से प्यार करते थे और उनका जीवन बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल देते थे। उनके पास कम से कम संसाधन थे। आज हमारे पास टेलिस्कोपिक राइफल, नाइट विजन और लाइट्स हैं। उन्होंने इस काम को बिना किसी सुविधा के किया। हम केवल उनकी याद में अपना सिर झुका सकते हैं, ”रावत श्रद्धा-भाव से कहते हैं।  

यह रिपोर्ट मोंगाबे से साभार ली गयी है |

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