Photo: IFPRI South Asia/Flickr

बिहार सरकार के पास नहीं हैं पर्याप्त आंकड़े, कैसे बनेगा क्लाइमेट एक्शन प्लान

  • साल 2015 के क्लाइमेट एक्शन प्लान को केंद्र सरकार ने ये कहकर वापस कर वापस कर दिया था कि एक्शन प्लान में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए क्या कार्य-योजना है, इसका जिक्र नहीं है।
  • अब बिहार सरकार पिछले 10 साल के आंकड़ों के आधार पर नये सिरे से क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार कर रही है। इसके लिए पंचायत स्तर पर आंकड़े जुटाए जाने है पर अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि विभिन्न विभागों से आंकड़े नहीं मिल रहे हैं।
  • केंद्र सरकार ने 2002 में जैव-विविधता से संबंधित रजिस्टर तैयार करने की नीति बनाई थी। एनजीटी के आदेश के बाद भी बिहार सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर इस नीति का सही से पालन हुआ रहता तो आज आंकड़ों से संबंधित ऐसी चुनौती नहीं आती।

विकास के विभिन्न मानकों पर बिहार जैसे राज्य की स्थिति जगजाहिर है। वर्तमान समय की नई चुनौतियों से निपटने में भी यह राज्य फिसड्डी साबित हो रहा है। ताजा मामला है जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौती का।  राज्य के लिए क्लाइमेट एक्शन प्लान बनाने की कोशिश हो रही है पर विडंबना यह है कि इसके लिए जो आंकड़े चाहिए वह मौजूद नहीं है। 

गौरतलब हो कि बिहार सरकार ने साल 2015 में ही क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार कर लिया था, लेकिन उसमें कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्यों को लेकर कोई कार्य-योजना शामिल नहीं थी। इस वजह से साल 2019 में बिहार सरकार ने इसे वापस ले लिया था। 

इसी साल बिहार सरकार ने  इसके बाद अब राज्य सरकार दोबारा क्लाइमेट एक्शन प्लान बनाने की तैयारी कर रही है। इसी के तहत बिहार सरकार ने इसी साल 12 फरवरी को यूएन एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) के साथ समझौते के एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये हैं। 

बिहार में 2019 में गठित क्लाइमेट चेंज विंग के नोडल अधिकारी एके द्विवेदी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार करने के लिए जलवायु जोखिम के मूल्यांकन (क्लाइमेट रिस्क असेसमेंट) की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। हमलोगों ने जोखिम मूल्यांकन के बाद क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार कर लेने के लिए दो साल का समय मांगा है। अगर केंद्र सरकार हमारे प्लान को हरी झंडी दे देती है, तो हम उसी के अनुरूप बिहार में अडेप्टेशन या मिटिगेशन पर काम करेंगे,” उन्होंने कहा।

द्विवेदी बताते हैं कि जोखिम मूल्यांकन ब्लॉक और पंचायत स्तर पर होगा। इसी के आधार पर पंचायत स्तरीय एक्शन प्लान तैयार किया जाएगा। 

नेपाल से निकलने वाली मेची नदी में कटाव के कारण किशनगंज में गिरा पेड़। मानसून के सीजन में ये नदी हर साल सैंकड़ों एकड़ जमीन निगल जाती है। फ़ोटो: उमेश कुमार राय
नेपाल से निकलने वाली मेची नदी में कटाव के कारण किशनगंज में गिरा पेड़। मानसून के सीजन में ये नदी हर साल सैंकड़ों एकड़ जमीन निगल जाती है। तस्वीर: उमेश कुमार राय

जोखिम मूल्यांकन के लिए नौ मापदंडों का इस्तेमाल किया जाएगा। इसमें शिक्षा, रोजगार स्वास्थ्य, पलायन, मौसम में बदलाव, बाढ़, सुखा आदि शामिल हैं। द्विवेदी बताते हैं, “इसके लिए हमलोग आंकड़ों का सहारा लेंगे। तमाम मापदंडों में जोखिम मूल्यांकन के लिए उनके आंकड़े संग्रह किये जाएंगे और उन आंकड़ों का विश्लेषण किया जाएगा।”

हालांकि द्विवेदी यह भी कहते हैं कि इन क्षेत्र के पुराने आंकड़े हासिल करने में दिक्कत हो रही है। 

बिहार सरकार के पास नहीं हैं आंकड़े

इस चुनौती का जिक्र करते हुए द्विवेदी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “हमने संबंधित विभागों को पत्र लिखकर कहा है कि वे नोडल अफसर बनाकर पिछले 10 वर्षों के जरूरी आंकड़े मुहैया कराएं। लेकिन, यहां दिक्कत ये आ रही है कि विभागों से आंकड़े मिलने में देरी हो रही है। दूसरी चुनौती है इन आंकड़ों की गुणवत्ता। अब देखने वाली बात होगी कि विभिन्न विभागों के पास विशुद्ध आंकड़े हैं या कुछ फर्जीवाड़ा हुआ है। ये आंकड़े हमारे मूल्यांकन परिणाम को भी प्रभावित करेंगे।” 

आंकड़ों की मौजूदा स्थिति को समझने के लिए मोंगाबे-हिन्दी ने पटना मौसम विज्ञान केंद्र के साथ अन्य जिलास्तरीय सांख्यिकी अधिकारियों से भी बात की। इसके अलावा साल 2015 में बिहार सरकार की तरफ से तैयार किये गये क्लाइमेट एक्शन प्लान (जिसे केंद्र सरकार वापस कर चुकी है) का भी अध्ययन किया और पाया कि 10 सालों का आंकड़ा पंचायत स्तर पर दूर, जिला स्तर पर भी मिलना लगभग असंभव है।

पटना मौसम विज्ञान केंद्र के एक अधिकारी ने नाम ना प्रकाशित करने की शर्त पर बताया, “पंचायत और ब्लॉक स्तर का आंकड़ा हमारे पास नहीं है। हमारी अपनी केवल चार ऑब्जर्वेटरी है- पटना, गया, भागलपुर और पूर्णिया में। ये काफी पुरानी है इसलिए इन चार जिलों के 10 साल के मौसम के आंकड़े मिल सकते हैं। ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन्स बहुत बाद में लगे हैं। इसके अलावा बिहार में 250 रेन गॉज लगे हुए हैं। किसी जिले में पांच रेन गॉज हैं, तो वहां की पांच जगहों का ही बारिश का आंकड़ा मिल सकता है।”

“जिला, ब्लॉक और पंचायत स्तर पर 10 सालों के तापमान का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, इसलिए ये आंकड़े मिलना लगभग असंभव है,” उक्त अधिकारी ने कहा।

 भारी बारिश से गंगा में जलस्तर बढ़ने के कारण कटिहार में खेतों में फैला पानी। जानकारों के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तरी बिहार में बाढ़ की तीव्रता में बढोतरी हो सकती है। फ़ोटो: उमेश कुमार राय
भारी बारिश से गंगा में जलस्तर बढ़ने के कारण कटिहार में खेतों में फैला पानी। जानकारों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तरी बिहार में बाढ़ की तीव्रता में बढोतरी हो सकती है। तस्वीर: उमेश कुमार राय

मोंगाबे-हिन्दी ने कृषि व स्वास्थ्य विभाग से जुड़े कुछ जिलास्तरीय अधिकारियों से ब्लॉक, पंचायत व जिलावार फसल की पैदावार को लेकर आंकड़ों की जानकारी मांगी, तो उन्होंने जिला सांख्यिकी अधिकारियों से संपर्क करने को कहा। मधेपुरा के डिस्ट्रिक्ट स्टैटिस्टिकल ऑफिसर (डीएसओ) राजदेव प्रसाद से बात की, तो उन्होंने कहा कि फसल की पैदावार का पिछले 10 सालों का आंकड़ा मिलना मुश्किल है। फसल बीमा योजना जब से लागू हुई है, तब से पंचायत व ब्लॉक स्तर पर भी आंकड़े जुटाये जा रहे हैं। लेकिन फसल बीमा योजना हाल ही में शुरू हुई है।

वहीं, स्वास्थ्य से संबंधित आंकड़ों को लेकर वे कहते हैं, “देखिए, हमलोग जो भी आंकड़ा लेते हैं, वह संबंधित विभाग से ही देता है और उन्हें इकट्ठा कर राज्य स्तरीय सांख्यिकी विभाग को भेजते हैं। अगर वे ही आंकड़े नहीं रखते हैं, तो हमारे पास कहां से आएगा?”

ये पूछने पर कि क्या पिछले 10 सालों का हर तरह का आंकड़ा सांख्यिकी विभाग के पास मौजूद है? इस सवाल पर राजदेव प्रसाद कहते हैं, “जब से ऑनलाइन व्यवस्था शुरू हुई है, तब से आंकड़े व्यस्थित तरीके से सुरक्षित रखे जा रहे हैं। बिहार में ऑनलाइन व्यवस्था 5-6 साल पहले शुरू हुई है, तो तब से अब तक के आकड़े मिल सकते हैं।”

आंकड़े  होने का नुकसान

दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान विभाग में प्रोफेसर डॉ प्रधान पार्थ सारथी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “अगर सरकार ये कह रही है कि वह ब्लॉक और पंचायत स्तर पर क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार करेगी, तो ऐसा करना असंभव है। जलवायु परिवर्तन के मूल्यांकन के लिए मुख्य तौर पर बारिश और तापमान के आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। हमारे पास पंचायत तो दूर हर ब्लॉक का तापमान और बारिश का आंकड़ा नहीं है, ऐसे में प्लान कैसे तैयार होगा?”

“अगर एक अनुमान के आधार पर प्लान तैयार किया जाता है, तो वह प्रभावशाली नहीं हो पाएगा क्योंकि यहां एक जगह बारिश होती है, तो कुछ किलोमीटर दूर बारिश नहीं होती है”, उन्होंने कहा।    

बिहार सरकार के पास आंकड़े नहीं होने की बात पर आईआईटी गुवाहाटी के मानविकी व समाज विभाग में प्रोफेसर अनामिका बरुआ भी सहमत नजर आती हैं। क्लाइमेट वल्नरेब्लिटी असेसमेंट फॉर अडेप्टेशन प्लानिंग इन इंडिया यूजिंग ए कॉमन फ्रेमवर्क रिपोर्ट तैयार करने वाले विशेषज्ञों में बरुआ भी शामिल रही हैं।  उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “हमने अपनी रिपोर्ट के सिलसिले में अध्ययन के लिए बिहार सरकार से पक्की और कच्ची सड़क, हेल्थ सेंटर्स, गांवों में चिकित्सकों की संख्या का आंकड़ा साल  2020 के शुरू में मांगा था, तो हमें बड़ी दिक्कत हुई। हमें सेकेंडरी आंकड़ों से काम चलाना पड़ा। सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों का हमारे देश में बहुत बुरा हाल है।”

वे भी मानती हैं कि आंकड़े नहीं होने पर सटीक मूल्यांकन और एक्शन प्लान तैयार करने में कठिनाई होगी।

उन्होंने कहा, “आंकड़े न हो तो जोखिम मूल्यांकन करना बहुत मुश्किल होगा। सटीक मूल्यांकन नहीं हो पाएगा। ऐसे में अभी जिस स्तर पर आंकड़े उपलब्ध हैं, उसी स्तर से जोखिम मूल्यांकन शुरू करना चाहिए। लेकिन साथ ही अभी से सभी तरह के आंकड़ो को सहेजना शुरू कर देना चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की समस्या न हो।” 

जैव-विविधता प्रबंधन समिति को लेकर ढिलाई बरतने की कीमत

देश में 2002 में ही एक नीति बनाई गयी थी और बिहार ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। नहीं तो आज ऐसी स्थिति नहीं आती।

भारत सरकार ने साल 2002 में जैविक विविधता अधिनियम बनाया था, जिसका उद्देश्य था पंचायत स्तर पर मौजूद जैव-विविधताओं का रजिस्टर तैयार करना और उन्हें संरक्षित रखते हुए उनके जरिए आजीविका का जरिया मुहैया कराना। इसके तहत साल 2003 में राष्ट्रीय जैव-विविधता प्राधिकरण का भी गठन हुआ था। इसके बाद सभी राज्यों में राज्य जैव-विविधता बोर्ड का गठन हुआ। जैव-विविधताओं का रजिस्टर तैयार करने के लिए स्थानीय स्तर निकाय (शहरी और ग्रामीण क्षेत्र) में सात सदस्यीय जैव-विविधता प्रबंधन समिति बनाने का आदेश था, जिन्हें ट्रेनिंग दी जानी थी। ये समिति ही जैव-विविधताओं को लेकर रजिस्टर तैयार करती और उसे राज्य जैव-विविधता बोर्ड को मुहैया कराती। 

अगर इस पर गंभीरता से काम हुआ होता तो क्लाइमेट एक्शन प्लान बनाने के लिए पंचायत स्तर पर बहुत मजबूत आंकड़े मिल जाते। 

इसको लेकर बिहार सरकार की गंभीरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि नेशनल ग्रीन ट्रायबुनल (एनजीटी) की तल्ख टिप्पणी के बावजूद बिहार सरकार का कदम बेहद सुस्त रहा है। 

9 अगस्त 2019 को एनजीटी ने अपने आदेश में कहा, “बिहार और जम्मू-कश्मीर में जैव-विविधता प्रबंधन समिति बनाने की दिशा में शून्य प्रगति हुई है।” 

एनजीटी ने बिहार समेत सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को 31 जनवरी 2020 तक जैव-विविधता प्रबंधन समिति बनाकर जैव-विविधता रजिस्टर तैयार करने का काम शत-प्रतिशत पूरा कर लेने का निर्देश दिया था। ऐसा नहीं होने पर जुर्माना वसूलने का आदेश दिया था।

इस आदेश के चार महीने बाद 10 दिसम्बर 2019 को अचानक पंचायती राज विभाग ने सभी जिला पदाधिकारियों को पत्र लिखकर आदेश दिया कि राज्य के सभी जिला पदाधिकारी अपने जिले के निकायों में जैव-विविधता प्रबंधन समिति के गठन के लिए 27 दिसंबर 2019 को एक साथ विशेष ग्राम सभा आयोजित करेंगे।” 

अपने आदेश में पंचायती राज विभाग ने ये भी आदेश दिया कि उसी दिन अर्थात 27 दिसंबर 2019 को सभी जिला पदाधिकारी बैठक बुलाएं और प्रबंधन समितियों का गठन करें। उनकी सूची तैयार करें जिसे अगले दिन यानी 28 दिसंबर को राज्य जैव-विविधता बोर्ड को उपलब्ध कराया जाएगा। 

यानी कि एक ही दिन ग्राम सभा की बैठक हुई और उसी दिन सात सदस्यीय जैव-विविधता प्रबंधन समिति का भी गठन कर लिया गया। आनन-फानन में बनी इन समितियों की गुणवत्ता पर भी बड़े सवाल हैं। 

ग्रामीण लोकसेवा उन 11 एनजीओ में शामिल थी, जिन्हें जैव-विविधता प्रबंधन समिति के सदस्यों को प्रशिक्षित करने और जैव-विविधता रजिस्टर तैयार करने की जिम्मेदारी दी गयी थी। 

ग्रामीण लोक सेवा के चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर प्रवीण कुमार राय ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “जैव-विविधिता रजिस्टर तैयार करना बेहद महीन काम था। इसके लिए समिति के सदस्यों को खास तरह की ट्रेनिंग मिलनी थी। हमलोग ये सब कर रहे थे, लेकिन सरकार ने आनन-फानन में समिति का गठन कर दिया। ये समितियां प्रभावी तरीके से काम कर पाएंगी, इसमें संदेह है।” 

उन्होंने कहा, “केवल एनजीटी को दिखाने के लिए सरकार ने जल्दबाजी में समिति बना ली थी। अब अगर दोबारा एनजीटी जैव-विविधता रजिस्टर तैयार करने को कहेगा, तो इसी तरह जल्दबाजी में सरकार रजिस्टर बनवाएगी, जो जाहिर है तथ्यों पर आधारित नहीं होगा।” 

सरकारी दावे का सच 

हालांकि, राज्य जैव-विविधता परिषद के चेयरमैन डीके शुक्ला से मोंगाबे-हिन्दी ने बात की, तो उन्होंने कहा कि सभी पंचायत स्तरीय जैव-विविधता प्रबंधन समिति की  तरफ से जैव-विविधता रजिस्टर मिल गया है। ये पूछने पर कि रजिस्टर मिल गया है, तो वेबसाइट पर क्यों नहीं है, उन्होंने कहा, “अभी नये सिरे से वेबसाइट बन रही है। वेबसाइट बन जाएगी, तो रजिस्टर को अपलोड कर दिया जाएगा।”

मोंगाबे-हिन्दी ने कई मुखिया से बात की, तो इनमें से कुछ ने कहा कि जैव-विविधता रजिस्टर तैयार कर भेज दिया गया है, तो कुछ ने रजिस्टर नहीं भेजने की बात कही। 

मसलन, दरभंगा जिले के सिंघवारा ब्लॉक की कटासा पंचायत के मुखिया रमेश कुमार ने कहा, “हमलोगों से समिति के सदस्यों का नाम मांगा गया था, जो जमा कर चुके हैं। लेकिन, जैव-विविधता रजिस्टर या ऐसी कोई रिपोर्ट हमने न तैयार किया है और न दिया है।”

अरवल जिले की बेलखरा पंचायत के मुखिया अरविंद पटेल ने भी बताया कि समिति का गठन कर लिया गया है, लेकिन न तो किसी तरह की ट्रेनिंग हुई है और न ही उन्होंने जैव-विविधता से जुड़ा कोई रजिस्टर सरकार को भेजा है।

बिहार में पंचायत चुनाव हो रहा है। इससे जैव-विविधता रजिस्टर बनाने में और देर हो सकती है। प्रवीण कुमार राय कहते हैं, “जिन पंचायतों में रजिस्टर तैयार नहीं हुआ है, वहां अगर पंचायत चुनाव में नया उम्मीदवार जीत जाता है, तो कुछ सदस्यों का दोबारा चयन करना होगा। इसमें वक्त लगेगा। यानी कि पहले से लेटलतीफ चल रही जैव-विविधता रजिस्टर तैयार करने की योजना में और देरी होगी।”

ये स्टोरी मोंगाबे हिन्दी से साभार ली गई है।

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