हालांकि अभी भारत और चीन दोनों के एनर्जी सेक्टर में कोयले का बोलबाला है लेकिन मौजूदा प्रगति, नीतियों और बड़े निवेशों से यह स्पष्ट है कि दोनों देश अपने नवीकरणीय लक्ष्यों से अधिक प्राप्त करने के मार्ग पर हैं, लेकिन क्या वह अपनी रूढ़िवादी सोच से बाहर आकर उन्हें और बढ़ा सकते हैं?
पिछले साल इसी समय के आस-पास भारत ने 2070 तक नेट जीरो हासिल करने की प्रतिज्ञा की थी। लेकिन ग्लासगो में हुये कॉप26 के बाद से एक साल में पूरी दुनिया बदल चुकी है। अभी दुनिया महामारी से उबर ही रही थी, कि रूस-यूक्रेन युद्ध ने आपूर्ति श्रृंखलाओं को ठप करके खाद्य और ऊर्जा प्रणालियों की कमियों को उजागर किया। वहीं कोविड के बाद ऊर्जा की मांग सौर क्षमता से कहीं आगे निकल गई। विश्व भर के बाज़ारों में मंदी और प्राकृतिक आपदाओं के बीच विकार्बनीकरण के प्रयास पटरी से उतर गए। लेकिन इसके बावजूद भारत और चीन ने अक्षय ऊर्जा स्थापना में निरंतर प्रगति जारी रखी।
दोनों देश अपने संयुक्त राष्ट्र जलवायु लक्ष्यों से कुछ अधिक ही हासिल करने की ओर अग्रसर हैं।
जीवाश्म ईंधन का दबदबा कायम है
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस समय भारत और चीन दोनों के ऊर्जा मिश्रण में कोयले का प्रभुत्व है।
भारत ने 1990-2018 के बीच (भूमि उपयोग को छोड़कर) उत्सर्जन में 172% की वृद्धि देखी है। ऊर्जा मिश्रण में जीवाश्म ईंधन का हिस्सा अधिक है, जिसमें सबसे अधिक हिस्सा कोयले (44%) और तेल (22%) का है। लो कार्बन का हिस्सा केवल 12% है। 2022 आईए डब्ल्यूईओ का अनुमान है कि 2030 तक भारत में ऊर्जा की मांग प्रति वर्ष 3% से अधिक बढ़ जाएगी, जिसकी एक तिहाई पूर्ती कोयले से होगी।
चीन का उत्सर्जन 1990 के बाद से (भूमि उपयोग को छोड़कर) 269% बढ़ गया है।
नवीकरणीय ऊर्जा प्रतिष्ठान का रिकॉर्ड
भारत ने 2016-2021 के बीच अपनी स्थापित नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में 19% का विस्तार किया, 2022 की पहली तीन तिमाहियों में ही 13 गीगावाट की रिकॉर्ड वृद्धि हुई, जो 2021 में इसी अवधि के दौरान स्थापित क्षमता से 26% अधिक है।
चीन इस साल रिकॉर्ड 156 गीगावाट पवन टर्बाइन और सौर पैनल स्थापित करने जा रहा है, जो पिछले साल के रिकॉर्ड से भी 25% अधिक होगा। इसके अलावा, अनुमान है कि चीन में ईवी की बिक्री इस साल दोगुनी होकर रिकॉर्ड छह मिलियन तक पहुंच जाएगी।
लंबी अवधि के उपायों की बात करें तो भारत की राष्ट्रीय विद्युत योजना, 2022 के मसौदे के अनुसार, 2030 तक स्थापित कोयला क्षमता में पांच साल पहले निर्धारित अनुमानों की तुलना में 18 गीगावाट की कटौती संभावित है। यह कॉप26 में भारत की कोयला फेज-डाउन प्रतिबद्धता के अनुरूप है। इसके अलावा, 2032 तक सौर क्षमता बढ़कर 333 गीगावाट होने की उम्मीद है।
सार्वजनिक क्षेत्र की कुछ बड़ी कंपनियों ने भी नेट जीरो उत्सर्जन की प्रतिज्ञा की है, जैसे भारतीय रेलवे ने 2030 तक, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ने 2046 तक, गेल ने 2040 तक और छत्तीसगढ़ स्वास्थ्य विभाग ने 2050 तक।
इसके अलावा, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने अगले कुछ महीनों में तमिलनाडु और गुजरात के तटों पर 4 गीगावाट अपतटीय पवन ऊर्जा स्थापन के लिए निविदा की घोषणा की है।
इसी तरह, चीन में भी विकार्बनीकरण नीतियां बनाई और लागू की जा रही हैं।
इन उपायों से स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में भारी निवेश हुआ है जिससे प्रति यूनिट लागत में तेजी से कमी आई है, जो बदले में आवश्यक परिवर्तन को गति दे रहा है।
इन सभी उपायों से उत्सर्जन में कमी होने की उम्मीद है।
नवीनतम आईईए वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक के अनुसार, इस वर्ष के एपीएस (अनाउंस्ड प्लेजेस सिनेरियो, या घोषित प्रतिज्ञा परिदृश्य) में 2050 में अनुमानित उत्सर्जन पिछले वर्ष के आकलन की तुलना में 8 गीगाटन सीओ2 कम है, “मुख्य रूप से भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में की गई नेट जीरो उत्सर्जन प्रतिज्ञाओं के कारण।”
वर्तमान प्रगति, नीतिगत उपायों और बड़े निवेशों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि भारत और चीन दोनों अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अच्छी तरह से तैयार हैं। शायद उस से भी आगे बढ़ जाएं। सवाल यह है कि क्या वह अपनी रूढ़िवादी सोच से बाहर निकल सकते हैं और अपने लक्ष्यों को और बढ़ा सकते हैं?
लेखक: होज़ेफ़ा मर्चेंट एक ऊर्जा विश्लेषक हैं, जो ऊर्जा संक्रमण और कार्बन शमन के विशेषज्ञ हैं। उनके शोध का केंद्र ऐसे देश हैं जो प्रमुख रूप से जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं लेकिन स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ रहे हैं। उन्होंने कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी, यूके से अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता और विकास संचार में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की है।
याओ ज़्हे चाइना डायलॉग में वरिष्ठ अधिकारी हैं। ज़्हे ने निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में संचार और नीति विश्लेषण पर काम किया है। उनके पास सिंघुआ विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक की और साइंस पो पेरिस से अंतर्राष्ट्रीय विकास में परास्नातक की डिग्री है।