विकसित देश बाकू में कॉप29 में वही रहस्यमय भाव चेहरों पर लिए आये, जो हर जलवायु वार्ता में उनका लिबास होता है। एक पहेली वाला भाव और अंतिम क्षणों तक पत्ते न खोलने की फितरत। विकासशील देशों के लिए, यह अक्सर बड़ी परेशानी का संकेत होता है: परदे के पीछे बन्द कमरों में होने वाले सौदों की प्रस्तावना जो कमजोर समुदायों की तत्काल और अस्तित्व संबंधी जरूरतों को दरकिनार करते हुए अमीर देशों के लिए जीत का रास्ता सुनिश्चित करती है।
इस वर्ष, $100 बिलियन के वर्तमान जलवायु वित्त लक्ष्य को तीन गुना बढ़ाकर $300 बिलियन कर दिया गया – यह एक सुर्खियाँ बटोरने वाला आंकड़ा था। लेकिन बारीकी से देखें तो इस तीन गुने में कुछ भी उत्साहित करने वाला नही बल्कि यह कई चेतावनियों से भरा हुआ था। पैकेज में सरकारी और निजी फाइनेंस का मिश्रण था। अनुदान और मदद के रूप में जो दिया जाना था वह $1.3 ट्रिलियन की उस राशि से बहुत दूर था, जिसकी जी77+ चीन समूह ने पहले मांग की थी। विकसित देशों ने विकासशील देशों से योगदान का आह्वान किया जिससे निराशा और बढ़ गई।
क्लाइमेट विशेषज्ञ और आईआईएम कोलकाता की प्रोफेसर रूना सरकार ने कहा, “2024 में दुनिया भर में चुनाव होने और कोविड के बाद से राष्ट्रीय बजट में गिरावट के बाद, 2025 में पहले ही कटौती तय थी। इसके आलोक में, 2035 से प्रति वर्ष 300 बिलियन डॉलर का मामूली वादा बहुत हैरान करने वाला नहीं है”।
जैसे-जैसे सम्मेलन समाप्त हुआ, यह प्रश्न पहले से कहीं अधिक बड़ा हो गया: क्या कॉप29 एक जीत थी या दुनिया ने एक और अवसर को दिया? उत्तर, हमेशा की तरह, दृष्टिकोणों के पेचीदा मिश्रण और जलवायु अन्याय की अनसुलझी वास्तविकता में निहित है।
एक धीमी शुरुआत
“वे [विकसित देश] अपने पत्ते मेज पर नहीं रख रहे हैं।” विकासशील देशों के प्रतिनिधिमंडल और विशेषज्ञ कॉप29 के दो चरणों में यही बात दोहराते रहे। यह सम्मेलन तो “फाइनेंस केंद्रित” होना था। और फिर भी, 11 नवंबर को शिखर सम्मेलन शुरू होने से पहले ही, सभी संकेत थे कि कुछ बड़ा होने नहीं जा रहा। इस सम्मेलन में कोई बड़ा नेता नहीं था, और इसलिए कोई बड़ी आवाज़ भी नहीं थी – जिसने अतीत में बातचीत के गतिरोध को दूर करने में मदद की हो। पहले सप्ताह में ही अर्जेंटीना के वॉक आउट से अनिश्चितता और बढ़ गई। राजनीतिक इच्छाशक्ति की यह कमी जल्द ही नागरिक समाज समूहों के लिए सबसे चिंताजनक मुद्दा बनी।
यह सब और निश्चित रूप से, कॉप29 के जलवायु वित्त पाठ में एक नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (एनसीक्यूजी) को लेकर ठंडा रुख जो कि सम्मेलन की शुरुआत में वार्ता का प्रमुख बिंदु था। एनसीक्यूजी ने अब तक के 100 अरब डॉलर के जलवायु वित्त लक्ष्य की जगह पेश किया गया मैकेनिज्म है जो विकसित देशों के लिए विकासशील देशों को भुगतान करने के लिए निर्धारित किया गया था।
लेकिन वार्ता के लगातार दौरों के बाद संधि का जो टेक्स्ट आ रहा था उसमें एक प्रश्न चिन्ह था। यह भी स्पष्ट नहीं था कि इस पैसे का भुगतान कैसे किया जाना था। सार्वजनिक वित्त के माध्यम से, जिसमें अनुदान शामिल होगा? या निजी वित्त के माध्यम से? क्या वित्त के लिए बहुस्तरीय दृष्टिकोण होगा? वास्तव में पैसा कब और कहां से आना शुरू होता है? इन सवालों के जवाब बाकू ओलंपिक स्टेडियम के लंबे गलियारों में बस फुसफुसाहट और अटकलें ही लगाई गईं, लेकिन शिखर सम्मेलन के आखिरी कुछ दिनों तक कभी भी कोई ठोस तथ्य नहीं बताया गया। पहला रहस्य जिसे सुलझाने की जरूरत थी वह यह था कि इस “फाइनेंस सीओपी” में एनसीक्यूजी नंबर क्यों नहीं बताया जा रहा था। किसी संख्या की गणना करने के लिए देशों के पास पूरा एक वर्ष होता था। तो किसने अपना होमवर्क नहीं किया था?
पहले सप्ताह में ही हमें पता चला कि जी77 + चीन ने वास्तव में सार्वजनिक वित्त में प्रति वर्ष $1.3 ट्रिलियन की एनसीक्यूजी संख्या का प्रस्ताव रखा था। पहले चर्चा की जा रही थी कि ट्रिलियन डॉलर की जलवायु वित्त आवश्यकता की घोषणा पहली बार भारत की जी20 अध्यक्षता के तहत 2023 में नई दिल्ली घोषणा में की गई थी। भारत ने इस साल मार्च में जलवायु वित्त में 1 ट्रिलियन डॉलर का प्रस्ताव भी संयुक्त राष्ट्र को सौंपा था। यह महत्वाकांक्षी था, विशेष रूप से यह देखते हुए कि विकसित देशों ने 2022 में ही पिछले 100 अरब डॉलर के लक्ष्य का भुगतान बड़ी मुश्किल से किया जबकि इसका वादा 2009 में कोपेनहेगन सम्मेलन में किया जा चुका था।
1.3 ट्रिलियन डॉलर की संख्या विश्लेषण पर आधारित थी जिसमें विकासशील दुनिया की जरूरतों की गहन गणना की गई थी।इसके बावजूद बारा बार आ रहे संधि के टेक्स्ट में इसे जगह नहीं मिली। यह विकसित देशों द्वारा दूसरे पक्ष को थका देने की एक सोची-समझी रणनीति थी जब तक कि उनकी संख्या को अंततः स्वीकार नहीं कर लिया गया। बाद में यही हुआ भी।
संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व विशेष राष्ट्रपति दूत, जॉन केरी ने कॉप28 में घोषणा की थी कि अमेरिका के पास जलवायु वित्त के लिए कोई पैसा नहीं है। वैश्विक स्तर पर सबसे अमीर देश होने के बावजूद अमेरिका ने पिछले साल लॉस एंड डैमेज फंड में मामूली 17 अरब डॉलर देने का वादा किया था। इसके बजाय, केरी ने कहा कि वित्तीय संस्थानों के गठबंधन, ग्लासगो फाइनेंशियल अलायंस फॉर नेट ज़ीरो (जीएफएएनजेड) जैसे समूहों से जलवायु वित्त पाया जा सकता है। विकसित देशों ने जलवायु वित्त के एक हिस्से के रूप में कार्बन मार्केट्स को शामिल करने पर भी जोर दिया, जिससे कॉप29 में विकासशील देशों से बड़ा झटका लगा। पावर शिफ्ट अफ्रीका के संस्थापक और निदेशक मोहम्मद एडो ने कार्बन मार्केट्स को “भेड़ के भेष में ख़तरनाक भेड़िया” कहा जिसका मकसद सिर्फ ध्यान बंटाना है।
आखिरी काउंटडाउन
पहले सप्ताह में बार संधि का टेक्स्ट रिव्यू किया गया फिर दूसरे हफ्ते गुरुवार तक उपस्थित लोगों को पता नहीं चला कि हो क्या रहा है। भारतीय प्रतिनिधिमंडल के जिन सदस्यों से कार्बनकॉपी ने बात की, वे निश्चित ही आशावादी थे, लेकिन विकसित देशों की एनसीक्यूजी संख्या क्या होगी, इसकी अनिश्चितता एक समस्या ज़रूर थी। विकासशील देशों का आरोप था किजलवायु वित्त बिल का भुगतान करने से बचने के लिए रचनात्मक तरीके अपनाने की कोशिश की जा रही है। गुरुवार को जारी पुनरावृत्ति में स्पष्ट था कि विकासशील देशों को निजी वित्त की ओर प्रोत्साहित करने और निवेश के लिए उपजाऊ जमीन बनाने वाली नीतियां लाने के लिए कहा गया था — यह अधिक निजी वित्त के लिए रास्ता बनाने का एक और प्रयास है। लेकिन संख्या पर सवाल बना रहा।
सम्मेलन में मौजूद पर्यवेक्षक हम जैसे लेखकों को व्यवहारिक होने की सलाह दे रहे थे। दिल्ली स्थित काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के सीनियर फेलो वैभव चतुर्वेदी ने कहा, “कम लागत, ब्याज मुक्त अनुदान के रूप में 1 ट्रिलियन डॉलर आने की उम्मीद कैसे की जाए। बातचीत के लिए यह ठीक है, लेकिन व्यावहारिक रूप से हम ऐसा होने की उम्मीद नहीं करते हैं
उनके मुताबिक, “यूरोपीय संघ [विकसित देशों की ओर से] आखिर में $300 बिलियन डॉलर देने की बात कह सकता था। विकासशील देश स्पष्ट रूप से $1 ट्रिलियन मांग रहे हैं। बीच में कहीं आप $500-600 मिलियन डॉलर मांग सकते हैं और यह आंकड़ा [सीओपी] अध्यक्ष और बाकी सभी को प्रोत्साहित करता है। वे कह सकते हैं ‘$500 बिलियन, जो कि $100 बिलियन की पिछली रकम की तुलना में 5 गुना है। यह उतना अच्छा नहीं है जितना विकासशील दुनिया मांग रही है अभी भी यह एक कामयाबी कही जा सकती है।”
एलएमडीसी और एडीजी के साथ जी77+ चीन के समूह ने देखा कि क्या होने वाला है और तुरंत अपनी रणनीति बदल दी। उन सभी ने कहा कि वे 600 अरब डॉलर के सार्वजनिक वित्त के आंकड़े को स्वीकार करेंगे और बाद में बड़े दावे के लिए काम करेंगे।
300 की मांग
शुक्रवार की रात इस खबर के साथ समाप्त हुई कि समापन सत्र शनिवार को सुबह 10 बजे आयोजित किया जाएगा – कॉप29 के आधिकारिक तौर पर समाप्त होने के एक दिन बाद। वह समय आया और चला गया लेकिन संधि में आखिरकार क्या लिखा जायेगा इस पर अनिश्चितता बनी रही। क्या विकासशील देश 250 अरब डॉलर को अस्वीकार कर देंगे? क्या वे और राशि की मांग करेंगे या वॉकआउट? “एक बुरे समझौते से अच्छा है कि कोई समझौता न हो” यह गूंज पूरे आयोजन स्थल पर सुनाई दे रही थी। विकासशील देशों के वार्ताकारों द्वारा 300 बिलियन डॉलर की मांग करने और पेरिस समझौते के अनुच्छेद 9.1 का उल्लेख रखने की कोशिश करने की सुगबुगाहट — जो विकसित देशों पर वित्तीय संसाधन प्रदान करने का दायित्व डालता है – का दौर शुरू हो गया।
बात आखिरी पल तक खिंच गई। आखिरकार संधि का टेक्स्ट लिखा जाना था और लोगों को वापस घर भी जाना था। आधी रात से ठीक पहले ही लिखित में बात साफ हुई। विकासशील देशों को 300 अरब डॉलर का वादा किया गया, लेकिन इसके लिए जुटाए गए वित्त के रूप में – सार्वजनिक, निजी और अन्य स्रोतों के माध्यम शामिल थे।
फिर खोया मौका
आलोचना के बावजूद, परिणाम पर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ आईं। अच्छी खबर? एक समझौता हुआ. बहुपक्षवाद शायद अभी भी बचा हुआ है। बुरी ख़बरें? विकासशील देशों में बदलावों का समर्थन करने के लिए आवंटित अपर्याप्त धनराशि के साथ, महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) की उम्मीदें कम बनी हुई हैं। विकसित देशों की वहां आगे बढ़ने में अनिच्छा बनी हुई है जहां यह मायने रखता है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की प्रोग्राम ऑफिसर, जलवायु परिवर्तन, सेहर रहेजा ने कहा, “महत्वाकांक्षी एनडीसी के लिए विकसित देशों का आह्वान इस सम्मेलन में लगातार सुना गया था, लेकिन एनडीसी में उच्च महत्वाकांक्षा को संभव बनाने के लिए साधन वास्तव में ज़रूरतों से मेल नहीं खाते हैं। वित्त कितना होगा इस बहस के अलावा, शमन, अनुकूलन, हानि और क्षति के लिए उप-लक्ष्यों की कमी; 10 वर्षों की टाइम लाइन (जो “2035 तक” है ) बहुत लंबी है और अनुदान समकक्ष वित्त पर जोर न दिये जाने से स्थिति और खराब हो गई है। ऐसा लगता है कि यह पूरी तरह से चूक गया अवसर है।”
सच्चाई से दूर एक मरीचिका
सम्मेलन के समापन सत्र में, भारत ने दस्तावेज़ के अनुमोदन से ठीक पहले एक कड़ा हस्तक्षेप करते हुए, इस बात पर अपना गहरा असंतोष व्यक्त किया जिस तरीके संधि का टेक्स्ट स्वीकार करवाया गया । भारत की वार्ताकार चांदनी रैना ने प्रेसीडेंसी पर प्रक्रिया को “चरणबद्ध तरीके से प्रबंधित” करने का आरोप लगाया। उन्होंने यह भी कहा कि मेजबान ने विभिन्न घटनाओं पर समावेशी भावना का पालन नहीं किया है, साथ ही टेक्स्ट को अपनाने पर किसी भी निर्णय से पहले भारत को अपना बयान साझा नहीं करने दिया जैसा कि अनुरोध किया गया था।
चांदनी रैना ने कहा, “भारत लक्ष्य के प्रस्ताव को उसके वर्तमान स्वरूप में स्वीकार नहीं करता है। जो राशि जुटाने का प्रस्ताव है वह बेहद कम है। यह एक मामूली रकम है. यह ऐसा कुछ नहीं है जो हमारे देश के अस्तित्व के लिए आवश्यक अनुकूल जलवायु कार्रवाई में कोई मदद करेगा। यह दस्तावेज़ एक मरीचिका से अधिक कुछ नहीं है। हम इस दस्तावेज़ को अपनाने का विरोध करते हैं।”
कॉप29 के मुख्य वार्ताकार याल्चिन रफ़ीयेव ने जलवायु कार्यकर्ताओं को जेल भेजे जाने के बारे में सवालों का जवाब देने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि उनका ध्यान पूरी तरह से “जलवायु कार्रवाई पर सहमति और महत्वपूर्ण निर्णयों को अपनाने” के प्रयासों पर था।
एक स्थानीय ने कार्बनकॉपी को बताया कि जिस दिन कॉप29 समाप्त हुआ, बाकू में सभी ने जश्न मनाया क्योंकि वे अब फिर से अपना जीवन जी सकते थे। सड़क और मेट्रो पर भीड़ से बचने के लिए स्कूलों, विश्वविद्यालयों और कार्यालयों को घर से ही या दूर स्थान से संचालित करने का आदेश दिया गया था।
अब अगले साल ब्राज़ील में कॉप30 को पहले से ही “एनडीसी कॉप” कहा जा रहा है, जहाँ जीएसटी यानी आकलन का दूसरा दौर भी शुरू होगा।
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