पेड़ नहीं जंगल चाहिये: सरकारें स्वस्थ जंगल का तबाह कर पेड़ों का झुनझुना थमा देती हैं लेकिन पेड़ लगाने के मामले में भी ईमानदारी कम और लापरवाही के साथ भ्रष्टाचार का बोलबाला है.

आरे की विनाशलीला, पेड़ काटना बनी हमारी आदत

मुंबई के आरे क्षेत्र में सरकार की देखरेख में पेड़ कटे और जब तक सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया तब तक चिन्हित किये गये 2,185 में से 2,145 पेड़ काटे जा चुके थे। यानी 98% पेड़ों का सफाया। अब मुंबई मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (MMRC)  कह रही है कि वह शहीद हुये इन पेड़ों के बदले आरे और पड़ोस में बने संजय गांधी नेशनल पार्क में 24,000 पेड़ लगायेगी।

लेकिन क्या पेड़ लगाना किसी जंगल की भरपाई हो सकती है। अक्सर देखा गया है कि पेड़  काट कर उसकी भरपाई के लिये दिये गये आदेश खानापूरी की तरह होते हैं। अक्सर प्रेस में फोटो खिंचाने के लिये नेता, मंत्री और अधिकारी पेड़ लगाते हैं और फिर उनका कोई ख़याल ही नहीं रखता। कई बार अधिक पेड़ लगाने के चक्कर में पौंध इतनी करीब रोप दी जाती है कि पेड़ पनप ही नहीं पाते।

असल में जंगलों को काटने के लिये ठेकेदारों, निजी कंपनियों के साथ सरकार में बैठे अधिकारियों ने हमेशा ही नये तरीके तलाशे हैं। सरकार के अपने आंकड़े कहते हैं कि 1980 से आज तक 15 लाख हेक्टेयर जंगल काटे जा चुके हैं। इनमें से 20% जंगल 2010 से लेकर अब तक काटे गये। ग्लोबल वॉच की रिपोर्ट कहती है कि भारत ने 2001 से 2018 के बीच 16 लाख हेक्टेयर हरित कवर खोया। 

विकास परियोजनाओं के नाम पर पेड़ कटना भी लगातार जारी है। इसकी एक बड़ी मिसाल उत्तराखंड के संवेदनशील हिमालय में पेड़ों का अंधाधुंध कटान है जहां चारधाम यात्रा मार्ग के लिये  50 हज़ार से अधिक पेड़ तो आधिकारिक रूप से काटे गये।  इसी तरह उत्तर प्रदेश के वन अभ्यारण्य और मध्य प्रदेश समेत देश के तमाम हिस्सों में जंगलों पर मानो सरकार ने हमला बोला हुआ है।

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