भारत में वन संरक्षण कानून 1980 सहित वनों के रखरखाव के लिए कई कानून हैं जो गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए वनों को खत्म करने से संबंधित हैं। तस्वीर– Pixabay

[विश्लेषण] अंधाधुंध हो रही जंगलों की कटाई लेकिन इसकी वित्तीय कीमत बढ़ाने को लेकर परहेज

देश में जंगलों की वित्तीय कीमत के आकलन के लिए एक फार्मूला अपनाया जाता है जिसमें संशोधन की मांग कई सालों से उठ रही है। बीते जनवरी (2022) सुप्रीम कोर्ट की बनाई एक कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में सरकार के फॉर्मूले की आलोचना की। इस फॉर्मूले को नेट प्रजेंट वैल्यू (एनपीवी) के नाम से जाना जाता है। सरकार इसी फॉर्मूले से रुपए में जंगलों की कीमत तय करती है। इस कमिटी ने मौजूदा कीमत में सार्थक बढ़ोत्तरी की सिफारिश की जिसे प्रोजेक्ट डेवलपर्स पेड़ काटने के एवज में चुकाना होता है। हालांकि सरकार की मंशा कुछ और ही प्रतीत होती है। इस रिपोर्ट आने के कुछ ही दिन में सरकार ने पुरानी कीमत में 1.5 गुणा की मामूली बढ़ोत्तरी कर खानापूर्ति कर ली।

दरअसल, विकास परियोजनाओं के लिए जंगल की जमीन का इस्तेमाल करने वाले डेवलपर्स को वन संरक्षण कानून, 1980 (एफसीए) के तहत एकमुश्त रकम का भुगतान करना होता है। पेड़ों की कटाई के लिए ये पैसा सरकार के पास जमा कराना होता है। इसे ही एनपीवी कहा जाता है। हालांकि ये रकम कई चीजों मसलन जंगल की गुणवत्ता और उनके प्रकार से तय होती है। साल 2009 से सरकार एनपीवी के लिए प्रति एकड़ वन भूमि के लिए 4,38,000 रुपए से लेकर 14 लाख रुपए तक लेती है।

सुप्रीम कोर्ट ने साल 2008 में एक आदेश दिया था। इसके तहत भारत सरकार को हर तीन साल में एनपीवी को संशोधित करना था। लेकिन कई समितियों की सिफारिशों के बावजूद सरकार ऐसा करने में विफल रही।

इसी दौरान, पिछले साल जनवरी में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एनपीवी को 1.51 गुना बढ़ाने का प्रस्ताव रखा। ये गणना थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित थी। हालांकि, ऐसा करते हुए मंत्रालय ने अपनी ओर से ही 2014 में गठित एक अन्य विशेषज्ञ समूह की सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया। इस समूह ने एनपीवी में चार गुना बढ़ोतरी का सुझाव दिया था।

हसदेव अरण्य का जंगल। यह प्राचीन जंगल पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। तस्वीर- मयंक अग्रवाल/मोंगाबे
हसदेव अरण्य का जंगल। यह प्राचीन जंगल पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। तस्वीर- मयंक अग्रवाल/मोंगाबे

इसके बाद, पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेषज्ञ समिति बनाई। इसकी अगुवाई वन्यजीवों के जानकार और भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट के पूर्व अध्यक्ष एम. के. रंजीतसिंह को सौंपी गई। समिति के अन्य सदस्यों में जाने-माने पर्यावरणविद और पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारी शामिल थे। समिति ने 4 जनवरी, 2022 को सर्वोच्च न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी।

हालांकि रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है लेकिन मोंगाबे-हिन्दी ने रिपोर्ट का विश्लेषण किया और पाया कि सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नियुक्त समिति ने केंद्र सरकार की आलोचना की है। समिति ने कोर्ट को बताया कि पर्यावरण मंत्रालय ने एनपीवी में बदलाव के लिए जो तरीका सुझाया है वो “वैज्ञानिक” नहीं है और इसकी बुनियाद पुराने आंकड़े और पद्धति है। समिति ने चेतावनी दी कि एनपीवी में संशोधन के लिए डब्ल्यूपीआई पर “आंख मूंदकर” भरोसा करना “असल उद्देश्य को ही खत्म कर देगा”- क्योंकि यह सामाजिक लागत (सोशल कॉस्ट) को सही तरीके से नहीं दर्शाता है।

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की समिति को वनों को दूसरे काम में लगाने (विकास परियोजनाओं के लिए पेड़ों की कटाई) के मौजूदा तरीकों के मूल्यांकन का काम सौंपा गया था। उसे पेड़ों की कटाई को नियंत्रित करने के लिए वैज्ञानिक नीति दिशानिर्देश तैयार करने के लिए भी कहा गया था। दस्तावेजों की समीक्षा से पता चलता है कि अदालत समिति की रिपोर्ट पर विचार करती, इससे पहले ही 6 जनवरी को भारत सरकार जंगलों को काटने की कीमत में मामूली बढ़ोतरी की अपनी योजना पर आगे बढ़ गई। इसका मकसद परियोजनाओं की लागत को स्थिर रखते हुए उनमें बढ़ोतरी को रोकना था।

पर्यावरण मंत्रालय ने सभी राज्यों को सूचित किया कि एनपीवी में 1.53 गुना बढ़ोतरी अब सभी तरह के वनों के लिए लागू होगी। सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त समिति ने एनपीवी की दरों में पर्याप्त वृद्धि का सुझाव दिया था और एनपीवी की उचित गणना के लिए एक अलग समिति बनाने की सिफारिश की थी।

पर्यावरण मंत्रालय के सचिव, वन महानिदेशक, सहायक वन महानिरीक्षक और एनपीवी के वैज्ञानिक प्रभारी से एनपीवी नीति पर फैसला और समिति के सुझावों पर सवाल भी पूछे गए लेकिन इनका जवाब नहीं मिला।  

कई मंत्रालय ने कीमत बढ़ाने का किया था विरोध

एनपीवी में मामूली बढ़ोतरी के बारे में अब तक कोई आधिकारिक जवाब नहीं आया है लेकिन पिछले 10 सालों के दस्तावेज और रिपोर्ट की समीक्षा करने के बाद इस पर कोई हैरानी नहीं हुई। वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट की तरफ से बनाई गई समिति विशेषज्ञों की पहली बॉडी नहीं है, जिसने एनपीवी को बढ़ाने की सिफारिश की है। कम से कम दो और विशेषज्ञ समूहों ने एनपीवी में पर्याप्त वृद्धि की सिफारिश की थी।

साल 2014 में भारतीय वन प्रबंधन संस्थान (आईआईएफएम) ने अपने अध्ययन में एनपीवी में चार गुना बढ़ोतरी का सुझाव दिया था। इस अध्ययन को पर्यावरण मंत्रालय ने मार्च, 2012 में स्वीकृति दी थी। यही नहीं, अगस्त 2014 में पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम की अगुवाई में गठित समिति ने पांच गुना वृद्धि की सिफारिश की थी। इस समिति का गठन पर्यावरण कानूनों की समीक्षा के लिए हुआ था।

ऊंचाई से पन्ना टाइगर रिजर्व का जंगल कुछ इस तरह दिखता है। मध्य प्रदेश में कुल 94,689 वर्ग किलोमीटर के संरक्षित वन (प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट) हैं। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी
ऊंचाई से पन्ना टाइगर रिजर्व का जंगल कुछ इस तरह दिखता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

दस्तावेजों से पता चलता है कि पर्यावरण मंत्रालय ने शुरू में आईआईएफएम रिपोर्ट की ओर से सुझाई गई चार गुना वृद्धि को लागू करने पर विचार किया था। लेकिन कोयला, इस्पात और बिजली मंत्रालयों सहित कई मंत्रालयों और विभागों ने परियोजना लागत में अचानक वृद्धि के डर से इस कदम का विरोध किया था। कोयला मंत्रालय ने दलील दी कि “प्रस्तावित एनपीवी दरें 77 प्रतिशत से बढ़कर 437 प्रतिशत हो जाएंगी” और इसलिए “नई परियोजनाएं लागू करने लायक नहीं रहेंगी।” इसमें आगे कहा गया है कि “एनपीवी दरों में बार-बार संशोधन परियोजनाओं की व्यवहार्यता पर असर डालता है।”

मंत्रालयों के बीच चर्चा के बाद, पर्यावरण मंत्रालय ने जनवरी 2021 में आईआईएफएम रिपोर्ट के सुझाव के मुताबिक अचानक चार गुना वृद्धि के साथ आगे नहीं बढ़ने का फैसला किया।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त समिति ने चार गुना बढ़ोतरी को जायज माना। इसने आईआईएफएम रिपोर्ट में प्रस्तावित पद्धति को ज्यादा उन्नत पाया।

सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से नियुक्ति समिति के अध्यक्ष रंजीतसिंह, राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव का ओहदा संभाल चुके हैं। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “जब मैं पर्यावरण मंत्रालय में था तो प्रधानमंत्री खुद पर्यावरण मंत्री थे। तब एक एकड़ वन भूमि के लिए भी प्रधानमंत्री की मंजूरी आवश्यक थी। यह मामला महज जंगल की भूमि को दूसरे काम में लगाने भर का नहीं है बल्कि इसके असर से जुड़ा है।”

वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री वनों और पारिस्थितिक तंत्रों की कीमत का आकलन करने के लिए उनके कई उपयोग पर विचार करते हैं।

आईआईएफएम अध्ययन की प्रमुख लेखकों में से एक मधु वर्मा ने कहा कि एनपीवी की गणना की मौजूदा पद्धति कार्बन के बाजार मूल्य का इस्तेमाल करती है, जो इसकी सामाजिक लागतों का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं है। “हमारे (आईआईएफएम के) अध्ययन में हमने लोगों की आजीविका और समूची अर्थव्यवस्था पर असर डालने वाले मूल्यों को चुना और फिर गणना की।”

सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त समिति की जनवरी 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, एनपीवी की गणना की मौजूदा पद्धति पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह वाटरशेड जैसी वनों की तरफ से दी जाने वाली पारिस्थितिकी तंत्र वाली सेवाओं के मूल्य का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं करती है।

हसदेव वन एक वक्त में नो गो क्षेत्र था, यानी यहां कोई गैर वन संबंधी गतिविधि नहीं हो सकती थी। खनन से यहां का सूक्ष्म जलवायु प्रभावित होगा। नतीजतन घुसपैठिए प्रजाति के वनस्पति जंगल में प्रवेश करेंगे। तस्वीर- मयंक अग्रवाल/मोंगाबे
हसदेव का जंगल। हाल ही में इस वन के कुछ संवेदनशील खानों में खनन की इजाजत दे दी गयी और इसके लिए लाखों पेड़ों की कटाई होनी है। तस्वीर- मयंक अग्रवाल/मोंगाबे

आईआईएफएम की ओर से प्रस्तावित एनपीवी की गणना की विधि वनों के कई दूसरे इस्तेमाल को ध्यान में रखती है और इसलिए इसे जंगलों के मूल्यांकन के मौजूदा तरीके से ज्यादा अपडेटेड माना जाता है। मधु वर्मा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “जो सबसे नया बदलाव हुआ है (जनवरी 2022 में हुआ संशोधन) उसमें पर्यावरण मंत्रालय ने सिर्फ महंगाई दर को ध्यान में रखा है, जो पर्याप्त नहीं होगा।”

नेट प्रजेंट वैल्यू वनों को दूसरे काम में लगाने को हतोत्साहित करने में विफल रहा

एफसीए 1980 के मुताबिक, पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी के बाद गैर-वन कामों के लिए, वन भूमि के हस्तांतरण के लिए मुआवजे का भुगतान करना होता है। इसके बाद इसे क्षतिपूरक वनीकरण (कैम्पा- जंगल की कटाई के एवज में लगाए जाने वाले पेड़) कानून, 2016 के तहत बनाए गए फंड में डाल दिया जाता है। फिर इसका इस्तेमाल राज्यों को गैर-वन या निम्नीकृत वन भूमि पर वन लगाने के लिए करना होता है।

साल 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने टी.एन. गोदावर्मन मामले (जो शुरू में नीलगिरी के जंगलों के अवैध वनों की कटाई से जुड़ा था और बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने इसका विस्तार करके देश भर में वन प्रबंधन को इसमें शामिल कर लिया) में आदेश दिया था कि डेवलपर्स को भुगतान की गई रकम के अलावा क्षतिपूरक वनीकरण के लिए एनपीवी की रकम भी देनी होगी।

ऐसा जंगलों को दूसरे कामों में लगाने की लागत बढ़ाकर वनों को विकास परियोजनाओं से बचाने के लिए किया गया था। इसका एक और मकसद वनों को किसी भी तरह के नुकसान की उचित भरपाई करना भी था। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नियुक्त समिति की रिपोर्ट की मोंगाबे-हिन्दी की तरफ से की गई समीक्षा से पता चलता है कि इन सभी नीतियों को लागू करने में कई मसले सामने आए।

समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि चूंकि डेवलपर्स मामूली मुआवजे का भुगतान करके आसानी से वन भूमि का अधिग्रहण कर सकते हैं, इसके चलते वन भूमि का शुद्ध नुकसान होता है। इसने यह भी बताया कि मौजूदा क्षतिपूरक वनरोपण तंत्र से काटे हुए जंगलों की जगह शायद ही कोई नया वन आबाद हुआ है। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि अकेले पर्यावरण मंत्रालय ने 2016 से 2019 के बीच 69 लाख पेड़ों को काटने की अनुमति दी थी।

वास्तव में, पिछले कुछ सालों में, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की ऑडिट रिपोर्ट और कई खबरों ने कैम्पा फंड के इस्तेमाल से संबंधित कई मुद्दों को उजागर किया है। इनमें वन लगाने के लिए भूमि हस्तांतरण में देरी, गैर-मौजूद क्षतिपूरक वृक्षारोपण और जंगल लगाने के लिए सामुदायिक भूमि का जबरन अधिग्रहण जैसे मुद्दे शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट, 2013 की सीएजी रिपोर्ट पर भी रोशनी डालती है। सीएजी रिपोर्ट में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के रिकॉर्ड का हवाला देते हुए बताया गया था कि वन विभाग को जितनी भूमि मिलनी थी उससे 30 प्रतिशत कम मिली। यही नहीं कुल भूमि के महज सात फीसदी पर ही वन लगाए गए।

शीर्ष अदालत की समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया है कि पिछले 15 सालों से एनपीवी में संशोधन नहीं होने के चलते “दूसरे कामों में लगाई जा रही प्राकृतिक पूंजी का कम मूल्यांकन किया जा रहा है।”

समिति ने एनपीवी का सही मूल्यांकन करने के लिए इसकी कार्यप्रणाली को पूरी तरह बदलने की सिफारिश की है। इसमें पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की एक सूची और नेट प्रजेंट वैल्यू में संशोधन के लिए डाटा सोर्स को शामिल करने को कहा है।

सरकार ने इस साल जनवरी में एनपीवी को संशोधित करते समय इनमें से कोई भी कदम नहीं उठाया। पर्यावरण मंत्रालय ने अभी तक समिति की सिफारिशों पर प्रतिक्रिया नहीं दी है। वहीं मूल्यांकन को गति देने वाला मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है।

जानकारों का तर्क है कि नेट प्रजेंट वैल्यू में वृद्धि से भी वन भूमि को दूसरे कामों में लगाने से रोकने में बहुत कम मदद मिलेगी। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के पर्यावरण शोधकर्ता कांची कोहली ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “वन शासन के बारे में अधिक मौलिक प्रश्नों को हल करने की बजाय, एनपीवी जैसी प्रक्रियाएं मुख्य मुद्दे को भटकाने का तरीका बन गई हैं। वन को दूसरे काम में लगाने की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने की जरूरत है साथ ही इसमें सबकी सहमति हो यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

उन्होंने कहा, “पिछले दो दशकों में, नेट प्रजेंट वैल्यू ने वन भूमि को दूसरे कामों में लगाने को कम या हतोत्साहित नहीं किया है।”

यह रिपोर्ट  मोंगाबे से साभार ली गई है। 

लेखक लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच से जुड़े शोधकर्ता हैं। लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच ,भारत में भूमि संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधन से जुड़े विषयों पर काम कर रहे शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है। इस खभर का अनुवाद विशाल कुमार जैन ने किया है। इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। 

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