हर साल के अंत में होने वाला जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन (कॉप-27) – जिसमें दुनिया भर की सरकारें, कॉर्पोरेट प्रतिनिधियों और एनजीओ समेत मीडिया का जमावड़ा होता है – इस बार मिस्र के शर्म-अल-शेख में हो रहा है। यानी उस महाद्वीप में जहां स्थित देश ग्लोबल वॉर्मिंग के लिये ज़िम्मेदार नहीं हैं फिर भी जलवायु परिवर्तन के सबसे भयानक प्रभावों को झेल रहे हैं। पिछले पांच साल से यह वार्षिक सम्मेलन यूरोपीय देशों में ही हो रहा था और इस बार इसे अफ्रीकी सम्मेलन के तौर पर पेश किया जा रहा है ताकि उन विकिसत देशों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सके जो धरती की तापमान वृद्धि के लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं।
शर्म-अल-शेख सम्मेलन ग्लोबल वॉर्मिंग से उत्पन्न उन गंभीर खतरों के साये में हो रहा है जिनके प्रति लगातार आगाह किया जाता रहा है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बारे में शोधार्थी, वैज्ञानिक और सिविल सोसायटी के लोग लगातार चेतावनी देते रहे हैं और अब जबकि विश्व कोरोना महामारी से उबर रहा है तो उसी वक़्त आपदाओं की अभूतपूर्व मार दिख रही है। इसी साल यूक्रेन पर रूस के हमले ने संकट को और बढ़ा दिया है।
विनाशक आपदाओं का सिलसिला
साल 2022 में हीट वेव के मामले में करीब सवा सौ साल का रिकॉर्ड टूट गया। भारत समेत पूरा दक्षिण एशिया हांफ रहा था तो यूरोप ने पहली बार अनुभव किया कि थर्ड वर्ल्ड कहे जाने वाले कई देश आखिर गर्मी की कैसी मार झेलते हैं। इसका असर मानव की कार्यक्षमता के अलावा फसलों की उपज पर हुआ। इसके बाद पाकिस्तान ने इतिहास की सबसे बड़ी विनाशक बाढ़ देखी और तकरीबन पूरा देश पानी में डूब गया। भारत में बरसात देर से शुरू हुई लेकिन जब हुई तो ऐसी कि किसानों को मॉनसून से पहले और बाद दोनों ही वक्त की फसल से भी हाथ धोना पड़ा।
इसके अलावा हिमालयी वनों से लेकर ऑस्ट्रेलियाई जंगलों तक आग की घटनायें परेशान करने वाली हैं। चक्रवाती तूफानों की मार बढ़ रही है। पहले भारत की पूर्वी तट रेखा ( जो कि आबादी के हिसाब से विरल है) पर ही साइक्लोन आते थे। लेकिन अब बंगाल की खाड़ी से ही नहीं बल्कि अरब सागर से भी चक्रवात उठ रहे हैं और घनी बसावट वाली पश्चिम तट रेखा (जिस पर केरल, गोवा, महाराष्ट्र और गुजरात के कई महत्वपूर्ण शहर बसे हैं) भी ख़तरे में है। समुद्र विज्ञानी कहते हैं कि सागर का पानी गर्म हो रहा है और यह उसी का परिणाम है।
रूस-यूक्रेन युद्ध ने बढ़ाया संकट
यूक्रेन पर रूस के हमले ने पूरी दुनिया में एनर्जी मार्केट को अस्त-व्यस्त कर दिया है। पिछले साल यूके के ग्लासगो में जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल और गैस आदि) से दूर जाने की प्रतिज्ञा करने वाले यूरोपीय देश एनर्जी सिक्योरिटी के लिये घबराये दिख रहे हैं और गैस को जमा करने की प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। रूस द्वारा सप्लाई काट दिये जाने के बाद उन्होंने अफ्रीकी देशों का रूख किया है। ऐसे हालात पूरे यूरोपीय यूनियन – जो कि चीन और अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है – समेत पश्चिमी देशों के वादों पर सवाल खड़े करते हैं।
बढ़ते तापमान रोकने के प्रयास नाकाफी
इस सम्मेलन के ठीक पहले जारी हुई यूएनईपी की ताज़ा इमीशन गैप रिपोर्ट – 2022 बताती है कि इस दिशा में न के बराबर तरक्की हुई है। जो कदम उठाये जाने चाहिये दुनिया के देश उस लक्ष्य से काफी पीछे हैं और उनके पास इसे हासिल करने के लिये कोई विश्वसनीय रोडमैप भी नहीं है।
इस कारण सदी के अंत तक यह तापमान वृद्धि 2.8 डिग्री तक हो सकती है। शर्तों के साथ मौजूदा तय लक्ष्य हासिल होने पर भी यह वृद्धि 2.4 डिग्री तक होगी ही। धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लिये दुनिया को अपने उत्सर्जन में 45% की कटौती (2010 के स्तर से) करनी है लेकिन मौजूदा कदमों से 2030 तक यह लक्ष्य दूर-दूर तक हासिल नहीं हो रहा। अगर सदी के अंत तक धरती की तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक भी रोकना है तो उत्सर्जन में कम से कम 30% की कटौती होनी चाहिये
अर्थव्यवस्था पर भारी चोट
जलवायु परिवर्तन की चोट अलग-अलग रूप में दिखती है। मानव कार्यक्षमता में कमी के साथ, फसलों की बर्बादी और आपदाओं का कारण धन-जन की हानि। ज़ाहिर है इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर होता है। हाल ही जारी क्लाइमेट ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट में इसका बारीक विश्लेषण है। इसके मुताबिक साल 2020 में भारत को चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसी एक्सट्रीम वेदर की घटनाओं से लगभग 87,000 करोड़ डॉलर के बराबर नुकसान हुआ। यह क्षति आने वाले दिनों में तापमान वृद्धि के बाद और बढ़ेगी। रिपोर्ट कहती है कि एक से 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर भारत में चावल का उत्पादन 10-30% तक, और मक्के का उत्पादन 25-70% तक गिर सकता है।
भारत के लगभग 33% हिस्से पर सूखे का खतरा रहता है, और इसमें से 50% क्षेत्र दीर्घकालिक सूखे का सामना कर रहे हैं। पिछले कुछ दशकों में सूखे की घटनाएं न केवल तेज हुई हैं बल्कि इनकी दर भी बढ़ी है। इस साल भारत में धान और गेहूं के साथ सोयाबीन और दालों की फसल पर भी एक्सट्रीम वेदर का असर पड़ा है। ऐसे में शर्म-अल-शेख में देखना होगा कि भारतीय वार्ताकार कैसे विकसित देशों के आगे अपने देश का पक्ष रखते हैं।
क्लाइमेट फाइनेंस का मुद्दा रहेगा प्रमुख
स्पष्ट है कि क्लाइमेट फाइनेंस उन मुद्दों में है जो इस सम्मेलन में प्रमुख रहेंगे। यह विषय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण विकासशील और गरीब देशों में आ रही आपदाओं और उससे होने वाली क्षति (लॉस एंड डैमेज) से जुड़ा है। यह देश विकसित देशों से राहत और पुनर्वास के साथ साफ ऊर्जा के विकल्प तलाशने और आपदाओं से लड़ने की क्षमता विकसित करने के लिये वित्त और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की मांग करते हैं।
हालांकि विकसित देशों ने 2010 में ही वादा किया था कि वह 2020 से 10,000 करोड़ डॉलर की वार्षिक सहायता दिया करेंगे लेकिन पिछले साल ग्लासगो में हुये सम्मेलन में विकसि त देशों ने माना कि वह इस धनराशि को देने में नाकाम रहे हैं। यह गरीब देशों के लिये बड़ी चिन्ता का विषय है क्योंकि धरती के तापमान वृद्धि उनके अस्तित्व के लिये जीने-मरने का सवाल बन गया है।
भारत पर क्लाइमेट चेंज का सर्वाधिक संकट
पिछले 10 सालों में एक के बाद एक कई रिपोर्ट्स कह चुकी हैं कि भारत पर जलवायु परिवर्तन प्रभावों का खतरा सबसे अधिक है। हीटवेव, बाढ़, चक्रवात, सूखा और समुद्र जल सतह में उफान। सीईईडब्लू की यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे भारत के अधिकांश राज्य और जनता क्लाइमेट चेंज के प्रभाव वाले क्षेत्रों में है। जल्दी ही भारत चीन को पीछे छोड़कर दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जायेगा और तब खाद्य सुरक्षा से लेकर सरहदों की हिफाज़त, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सारे अहम विषयों के लिये संसाधनों की भारी कमी होगी। यह सवाल शर्म-अल-शेख में भारतीय वार्ताकारों के दिमाग में ज़रूर रहेंगे और उनके लिये विकसित देशों से कड़े मोलतोल और कूटनीतिक दांवपेंचों को इस्तेमाल करने की चुनौती होगी।
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