- सैकड़ों साल से सुरक्षित ओरण (चारागाह) को लेकर राजस्थान में स्थानीय लोग और ग्रीन एनर्जी कंपनियां आमने सामनें हैं। इन कंपनियों के खिलाफ लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं।
- पक्षियों को पावर लाइन से होने वाले खतरे को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने मार्च 2021 में देगराय ओरण में पावर कंपनियों को अंडर ग्राउंड पावर लाइन डालने का आदेश दिया।
- भारतीय वन्य जीव संस्थान ने 2020 में अपनी रिपोर्ट में हाइटेंशन पावर लाइनों को गोडावण के लिए बड़ा खतरा बताया है। इससे जैसलमेर क्षेत्र में हर साल करीब 83,000 पक्षियों के जान गंवाने का अनुमान लगाया गया है।
‘ओरण उपजै औषधी, ओरण लाभ अनेक, ओरण बचावण आवसक, निश्चै कारज नैक।‘ यानी ओरण के अंदर कई प्रकार की औषधियां उत्पन्न होती है। ओरण के अनेक लाभ हैं। ओरण को बचाना आवश्यक है और निश्चित रूप से यह एक नेक कार्य है।
कवि दीप सिंह भाटी ने ओरण यानी जंगल और चारागाहों का महत्व बताने के लिए 23 साल पहले ऐसे 31 दोहे लिखे जो आज भी स्थानीय लोगों के बीच काफी मशहूर है। इससे दिखता है कि स्थानीय लोगों के लिए ओरण के क्या महत्व हैं। ये लोग ओरण को अपने अस्तित्व से जोड़ कर देखते हैं।
आज इसी ओरण को लेकर ग्रीन एनर्जी कंपनियां और स्थानीय लोग आमने-सामने हैं। एक तरफ कंपनियां इस क्षेत्र में पाए जाने वाले गोडावण यानी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को स्वच्छ ऊर्जा के विकास में रोड़ा बता रहीं हैं तो दूसरी तरफ ग्रामीणों का आरोप है कि यहां बीते डेढ़ साल से कई सोलर कंपनियां ओरण के मायने बदलने की ही कोशिश कर रही हैं। पावर कंपनियों के खिलाफ और ओरण को बचाने के लिए सांवता, भीमसर, दवाड़ा, रासला, अचला और आसपास 10-12 गांव के लोगों ने हाल ही में 60 किलोमीटर पैदल यात्रा कर पावर कंपनियों के खिलाफ जिला कलक्टर को ज्ञापन सौंपा।
इन ग्रामीणों का आरोप है कि कंपनियां सोलर पावर प्लांट के लिए ओरण के बीचों-बीच से हाइटेंशन पावर लाइन निकाल रही हैं।
देगराय ओरण से गुजर रही पावर लाइन के खतरों को बताते हुए जैसलमेर जिले के सांवता गांव निवासी सुमेर सिंह भाटी कहते हैं, “ओरण में सोलर कंपनी ने पावर लाइन की ऊंचाई सिर्फ बीस फीट ही रखी है। ऊंट की ऊंचाई 10 फीट और उस पर बैठे इंसान की करीब तीन फीट ऊंचाई होती है। ऐसे में हाइटेंशन पावर लाइन और उनके बीच की दूरी सिर्फ सात फीट रह जाती है। यह ऊंट और उनके पालकों की जान के लिए बेहद खतरनाक है। राजस्थान में सबसे ज्यादा ऊंट इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं। मेरे पास करीब 400 ऊंट हैं। हमारी आजीविका इसी पर आधारित है।”
देगराय ओरण है इस विवाद का केंद्र
ओरण के इतिहास के साथ-साथ पर्यावरण प्रेमी और स्थानीय निवासी पारथ जगाणी के अनुसार देगराय ओरण का इतिहास 602 साल पुराना है। उस वक्त के ताम्रपत्र के अनुसार संवत 1476 यानी साल 1419 में जैसलमेर के राजा विक्रमदेव अजमेर के पुष्कर में स्नान करने आए। यहां उन्होंने चंद्रमा और सूर्य को साक्षी मानकर अपनी रियासत जैसलमेर में देगराय मंदिर के चारों ओर 12 कोस (एक कोस में लगभग 3 किलोमीटर) भूमि को ओरण के रूप में दान कर दिया। दान की ये भूमि 60 हजार बीघा तय हुई। घोषणा कराई गई कि ओरण भूमि पर कोई हल नहीं जोतेगा। पेड़-पौधे नहीं काटेगा और ना ही जानवरों का शिकार किया जाएगा। ये जगह सिर्फ जानवरों को चराने के लिए काम में ली जाएगी।
पारथ आगे बताते हैं, “ग्रामीण इस परंपरा को 602 साल से निभा रहे हैं। हमारे लिए इस ओरण की धार्मिक और सामाजिक मान्यता है। आज देगराय ओरण रेगिस्तान के बीचों-बीच एक घना जंगल है। इसमें घास के कई मैदान भी हैं। जहां सांवता, भीमसर, दवाड़ा, रासला, अचला और आसपास 12 गांव की सारे मवेशी चरते हैं।”
पारथ कहते हैं, “बीते एक दशक से इस क्षेत्र में बाहरी कंपनियों और सरकार का दखल काफी बढ़ा है। कंपनियां यहां सोलर के बड़े-बड़े प्लांट स्थापित कर रही हैं। इसी तरह के एक प्लांट के लिए देगराय ओरण में से बिजली की बड़ी लाइन निकाली जा रही हैं। हम इसी पावर लाइन का विरोध कर रहे हैं।”
आजादी के साथ शुरू हुई समस्या और विकृत होती गयी
देगराय मंदिर ट्रस्ट और ओरण बचाओ समिति के सचिव दुर्जन सिंह ने मोंगाबे-हिंदी को विस्तार से इस समस्या का मूल कारण समझाया। वे बताते हैं, “आजादी के बाद जब जमीनों की पैमाइश हुई तो ओरण की ये जमीन सरकारी खाते में दर्ज हो गई। ग्रामीणों ने भी इस पर कोई ध्यान भी नहीं दिया। साल 1999 में एक निजी सोलर पावर कंपनी जब यहां काम करने आई तो उसने ओरण की भूमि से पेड़ काटने शुरू किए। तब हमने सारे रिकॉर्ड निकलवाए। प्रशासन ने हमारे विरोध के बाद 60,000 में से 24,000 बीघा भूमि को ओरण मान लिया। लेकिन तब से बाकी बची 36,000 बीघा भूमि को ओरण भूमि दर्ज कराने की मांग सारे गांव कर रहे हैं।”
दुर्जन सिंह कहते हैं, “पहले तो सरकारों ने इस 36,000 बीघा भूमि में से पावर कंपनियों को काम करने की छूट दी। लेकिन अब जो बाकी 24,000 बीघा भूमि ओरण के नाम दर्ज है उसमें भी ये कंपनियां बड़े-बड़े टावर लगा रही हैं। हाइटेंशन पावर लाइन निकाली जा रही हैं। इससे ओरण में रहने वाले सैकड़ों तरह के पक्षी और जानवरों को खतरा पैदा हो गया है।”
बता दें कि इस क्षेत्र में कई पावर कंपनी काम कर रही हैं। ओरण क्षेत्र में एक कंपनी सक्रिय है-रिन्यू पावर प्राइवेट। मोंगाबे-हिन्दी ने इस कंपनी के स्थानीय मैनेजर सुनील जोशी से फोन पर बात की। उन्होंने कहा, “हम नियमों के तहत ही यहां काम कर रहे हैं। किसी भी तरह के कानून और नियम नहीं तोड़े जा रहे।” यह कहकर जोशी ने फोन काट दिया।
जब जैसलमेर जिले के डीएफओ (डीएनपी) कपिल चंद्रवाल से बात की गयी तो उन्होंने स्पष्ट किया कि देगराय ओरण उनके क्षेत्राधिकार में नहीं आता बल्कि वहां के सारे अधिकार जिला कलक्टर और रेवेन्यू विभाग के पास हैं। पर कपिल चंद्रवाल ने माना कि स्थानीय लोगों की कंपनियों को लेकर काफी शिकायतें हैं।
हाइटेंशन पावर लाइन से अति दुर्लभ गोडावण को भी खतरा
गोडावण राजस्थान का राज्य पक्षी भी है। सर्दियों के दिनों में ओरण में गोडावण देखे जाते हैं। पारथ बताते हैं, “सितंबर 2020 में हाइटेंशन लाइन से एक गोडावण की मौत हुई थी। मार्च 2021 में यहां अंतिम बार गोडावण देखा गया है।”
बता दें कि गोडावण वन्यजीव संरक्षण कानून 1972 के शेड्यूल 1 के तहत संरक्षित पक्षी है। इसके अलावा 2020 में जंगली जानवरों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर हुए कन्वेंशन में भी गोडावण को अति दुर्लभतम पक्षी माना गया। दुनिया में सिर्फ राजस्थान में ही ये पाए जाते हैं और इनकी संख्या महज 120-130 है। भारतीय वन्यजीव संस्थान सहित कई वैज्ञानिक गोडावण को लुप्त होने से बचाने में लगे हैं, लेकिन उनके घर के आसमान की तारबंदी हाइटेंशन पावर लाइन से की जा रही है।
हाइटेंशन पावर लाइन से अन्य पक्षी और जानवरों को खतरा बना रहता है। भारतीय वन्य जीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) ने 2020 में अपनी रिपोर्ट में पावर लाइंस के कारण पक्षियों के मरने पर चौंकाने वाले आंकड़े दिए हैं। इसके अनुसार जैसलमेर जिले में डेजर्ट नेशनल पार्क और आसपास के क्षेत्र में हाइटेंशन पावर लाइन से साल में 83,868 पक्षी मर जाते हैं। प्रत्येक एक हजार वर्ग किलोमीटर में 20 हजार पक्षी बिजली के तारों में उलझ कर दम तोड़ते हैं। रिपोर्ट कहती है, 33 केवी से कम लाइन में प्रति किलोमीटर 3.22 और इससे ज्यादा की पावर लाइन के कारण प्रति किलोमीटर 6.25 पक्षी मरते हैं।
सुमित डूकिया गुरू गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ एनवायरमेंट मैनेजमेंट विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में वे कहते हैं, “बीते दिनों मीडिया में एक रिपोर्ट आई कि भारत के ग्रीन एनर्जी के सपने के बीच गोडावण आ रहा है। देगराय ओरण रासला से सटा हुआ जंगल है जोकि डेजर्ट नेशनल पार्क का सैटेलाइट एनक्लोजर भी है। देगराय ओरण में भी गोडावण (विशेषकर सर्दियों में) अपना आशियाना बनाते हैं। जनवरी से फरवरी 2021 में हमारे द्वारा की गई एक स्टडी में सामने आया कि ओरण में 45 बड़े पक्षी हाइटेंशन पावर लाइन की चपेट में आने के कारण मरे हैं। फिलहाल देगराय ओरण से पांच लाइन गुजर रही हैं जो 33 किलो वॉल्ट (केवी) से 12 मेगावाट तक की है। ओरण के बाहर पावर कंपनियों ने 765 केवी का पावर स्टोरेज स्टेशन भी बनाया है।”
देगराय ओरण में चल रहे इन प्रोजेक्ट पर बात करने के लिए मोंगाबे-हिंदी ने राजस्थान रिन्यूएबल एनर्जी निगम लिमिटेड के जनरल मैनेजर सुनित माथुर, जैसलमेर जिला कलक्टर आशीष मोदी को फोन पर कई बार संपर्क करने की कोशिश की। एसएमएस भी किए, लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया।
सर्वोच्च न्यायालय, एनजीटी के आदेश भी कंपनियों ने ताक पर रखे
देगराय ओरण में चल रहे इस काम को रोकने के लिए कई पर्यावरण प्रेमी और ग्रामीणों ने सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में भी केस किया। जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट में केस दायर करने वाले पर्यावरणविदों में से एक एमवी रंजीतसिंह झाला मोंगाबे-हिंदी को बताते हैं, “जनवरी 2019 से मार्च 2021 तक केस चला। सुप्रीम कोर्ट ने यहां चल रहे काम को रोकने और तार-खंभों पर रिफलेक्टर लगाने का स्पष्ट आदेश दिया।”
रंजीतसिंह आरोप लगाते हैं, “कंपनियों ने न्यायालय के आदेश की सरेआम अवहेलना की है। लॉकडाउन में भी यहां धड़ल्ले से काम हुआ है। दिखाने के लिए कहीं-कहीं साधारण रेडियम के रिफलेक्टर लगाए हैं जो रोशनी पड़ने पर ही चमकते हैं। अब क्या कोई पक्षी साथ में टॉर्च लेकर उड़ेगा? गोडावण उड़ते वक्त भी अगल-बगल में देखता है इसीलिए इनके बिजली के तारों से टकराने की घटना अधिक होती है। चूंकि नर गोडावण उड़ान ज्यादा भरता है इसीलिए तारों से टकरा कर मरने में इनकी संख्या अधिक है।”
सुमित डूकिया कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट ने लो-लेवल पावर लाइन को भूमिगत करने का आदेश कंपनियों को दिया। हाइटेंशन पावर लाइन को भी भूमिगत करने की संभावना तलाशने के लिए तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया। इस कमेटी में भारतीय वन्यजीव संस्थान में वैज्ञानिक डॉ. सुत्रिथा दत्ता, रिन्यूअल एनर्जी मंत्रालय में वैज्ञानिक डॉ. राहुल रावत और कॉर्बेट फाउंडेशन के देवेश गढ़वी शामिल हैं।
सुमित का दावा है कि पावर कंपनियों ने इस कमेटी के सामने अब तक अपने प्रतिनिधि नहीं भेजे हैं। कंपनियां अंडर ग्राउंड लाइन डालने से कतरा रही हैं क्योंकि उनका दावा है कि इससे उनकी लागत बढ़ जाएगी।”
जब मोंगाबे-हिन्दी ने इस कमिटी के अधिकृत मेल पर कुछ प्रश्न पूछे जैसे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के पालन की अभी क्या स्थिति है? क्या ग्रीन एनर्जी कंपनी के प्रतिनिधि कमेटी के सामने हाजिर हुए? क्या हाइटेंशन पावर लाइन भूमिगत किया जाना है? अगर हां तो कंपनियां ऐसा क्यों नहीं कर रही हैं?
इसके जवाब में कमेटी ने बस इतना कहा कि किसी कंपनी को अभी तक हाइटेंशन पावर लाइन सर के ऊपर से ले जाने की अनुमति नहीं दी गयी है।
इस समस्या का कानूनी समाधान सर्वोच्च न्यायालय और एनजीटी की अगली सुनवाइयों में निकले या शायद न निकले। मगर समाधान को समझने के लिए जमीन के बही-खातों से आगे यहां की लोक संस्कृति की रगों में बसी ओरण की कहानियों को समझना जरूरी है। दीप सिंह मारवाड़ में गाए जाने वाला एक लोकगीत सुनाते हैं..
माता म्हारी रे! अरणकी रे लागा आछीयोड़ा मां फूल, ऐ फूलड़ा, अरे मां फूलड़ा म्हारा राज।
इस गीत के अर्थ में इस विवाद के समाधान का मर्म बसा है। इन पंक्तियों में विवाह के बाद बेटी अपनी विदाई के वक्त रोते हुए मां से कहती है- हे मां, आज मैं खुद की रोपी और सींची अरणी बहिन से बिछड़ रही हूं। इस अरणी के पौधे पर पुष्पित, पल्लवित फूल मुझे बहुत याद आएंगे। हे मेरी मां, तुम इस हरीभरी अरणी की रक्षा करना।
अरणी का पौधा यहां ओरणों में संभवत: सबसे ज्यादा दिखने वाला पौधा है। विदा होकर जाती बेटी के लिए मायके में छूट रहे परिजनों की तरह ही अरणी के पौधे पर खिले फूल भी अमूल्य यादों जैसे हैं। इसे संजोना यहां पीढ़ी-दर-पीढ़ी संभाली जाने वाली जिम्मेदारी है। पिछले कुछ सालों से देगराय ओरण की छाती पर चल रहे बुलडोजर इन संजोई हुई यादों को रौंद रहे हैं। यहां पेड़ नहीं काटे जा रहे हैं, इंसान और कुदरत के बीच के रिश्ते पर कुल्हाड़ी चल रही है। जाहिर है, दर्द लंबे समय तक रहेगा। हालांकि अभी वक्त है, न्यायालय, एनजीटी या सरकार कोई भी प्रकृति के साथ इस रिश्ते का महत्व समझे तो दर्द की दवा और अब तक मिले घावों की मरहम मिल सकती है। इस रिश्ते को बचाने के लिए लड़ रहे गांव वालों का सवाल यही है-क्या कोई है जो जंगल को बचाने की उनकी गुहार सुनेगा?
ये स्टोरी मोंगाबे हिन्दी से साभार ली गई है।
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