भारत में ग्राउंड वॉटर में बढ़ रहा है यूरेनियम: रिपोर्ट

केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) की वार्षिक भूजल गुणवत्ता रिपोर्ट, 2025 के अनुसार, भारत भर में कई राज्यों में ग्राउंड वॉटर में यूरेनियम (uranium) का स्तर सुरक्षित सीमा (30 ppb यानी 30 माइक्रोग्राम प्रति लीटर) से अधिक पाया गया है। CGWB ने देश के अलग अलग राज्यों से कुल 15,000 सैंपलों का अध्ययन किया।

इस मामले में पंजाब देश के सबसे असुरक्षित राज्यों में है जहां 53% नमूनों में यूरेनियम का स्तर (मॉनसून पूर्व सर्वे में) सुरक्षित सीमा से अधिक पाया गया। मॉनसून के बाद किये गये सर्वे में तो पंजाब से लिए गये 62.5% नमूनों में यूरेनियम का स्तर सुरक्षित सीमा दिल्ली में, 86 निगरानी स्थलों पर किए गए परीक्षणों में कुल 83 नमूनों में से 24 नमूनों — यानी लगभग 13.35 % से 15.66 % — में यूरेनियम स्तर तय मानकों से अधिक पाया गया।

रिपोर्ट में यह बताया गया है कि प्रदूषण मुख्यतः उन क्षेत्रों में ज्यादा है जहाँ भूजल की खपत अधिक है और aquifer (भूजल स्तर) गिर चुका है — जैसे दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि। यह भी स्पष्ट किया गया है कि मानसून-पूर्व और मानसून-पश्चात दोनों मौसमों में नमूनों में यूरेनियम पाया गया और कई नमूनों में यह 30 पीपीबी (पार्ट्स प्रति बिलियन) से अधिक था, जो कि सुरक्षित सीमा से ऊपर है। विश्लेषकों का कहना है कि यह स्थिति स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है — क्योंकि लंबे समय तक यूरेनियम युक्त जल पीने से गुर्दे और हड्डियों को नुकसान, कैंसर या अन्य बीमारियाँ हो सकती हैं।

सीजीडब्ल्यूबी रिपोर्ट इस उभरते खतरे की ओर चेतावनी देती है: भूजल की नियमित निगरानी, दूषित जल स्रोतों की पहचान, और प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षित जल उपलब्ध कराने के लिए तुरंत कार्रवाई की जरूरत है।

भारत का कोई बड़ा शहर 10 सालों में हासिल नहीं कर पाया सेफ एक्यूआई लेवल

भारत के किसी भी बड़े शहर ने पिछले दस वर्षों (2015–20 नवंबर 2025) में सुरक्षित वायु गुणवत्ता (एक्यूआई) हासिल नहीं की। एक नए अध्ययन में दिल्ली को दशकभर देश का सबसे प्रदूषित शहर बताया गया, जहाँ 2025 में औसत एक्यूआई लगभग 180 रहा।

दिल्ली स्थित क्लाइमेट ट्रेंड्स के अध्ययन में पाया गया कि कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, चंडीगढ़ और विशाखापट्टनम में प्रदूषण स्तर ‘मध्यम लेकिन असुरक्षित’ श्रेणी में रहा। बेंगलुरु की हवा सबसे साफ रही, लेकिन उसका एक्यूआई भी ‘गुड’ श्रेणी से ऊपर ही रहा।

अध्ययन के अनुसार, 2020 के बाद कई शहरों में मामूली सुधार दिखा, लेकिन कोई शहर सुरक्षित एक्यूआई के करीब भी नहीं पहुँचा। उत्तर और पश्चिम भारत के शहर — लखनऊ, वाराणसी और अहमदाबाद — लगातार खतरनाक प्रदूषण दर्ज करते रहे।

दिल्ली में इस वर्ष पराली जलने में भारी कमी के बावजूद हवा में सुधार नहीं हुआ, जिससे स्पष्ट है कि स्थानीय प्रदूषण स्रोत + मौसम विज्ञान मिलकर सर्दियों की स्मॉग को और घातक बना रहे हैं। अक्टूबर में बारिश की कमी और कमजोर पश्चिमी विक्षोभों ने प्रदूषकों की प्राकृतिक सफाई को रोका, जिससे स्मॉग जल्द बन गया।
अध्ययन ने कहा कि भारत का प्रदूषण संकट ‘राष्ट्रीय, स्थायी और संरचनात्मक’ है — जिसके लिए सख्त नीति, विज्ञान-आधारित समाधान, और दीर्घकालिक शहरी योजना सुधार जरूरी हैं।

वायु-प्रदूषण से फेफड़ों का संकट हृदय रोग से अधिक तेज़ी से बढ़ रहा

भारत में फेफड़ों से जुड़ी बीमारियाँ — खासकर Chronic Obstructive Pulmonary Disease (COPD) — अब हृदय की बीमारियों से भी अधिक तेजी से बढ़ रही हैं। हालिया रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि वायु-प्रदूषण, धूल, स्मॉग और औद्योगिक प्रदूषक हवा में फैल रहे हैं, जो सांस की नली व फेफड़ों को धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त कर रहे हैं।

पिछले दशकों में भारत में फेफड़ों की क्षमता विश्व के अन्य देशों की तुलना में हमेशा कम रही है। अब, बढ़ती कार्बन उत्सर्जन, प्रदूषित हवा, वाहन व उद्योगों से निकलने वाले धुएँ व पार्टिकुलेट्स के कारण, फेफड़ों की रक्षा के लिए जिस सीमित जमीनी बचाव-क्षमता थी वह धीरे-धीरे खो रही है। विशेषज्ञ कहते हैं कि अब COPD सिर्फ धूम्रपान करने वालों की बीमारी नहीं रही — अधिकतर मरीज वे हैं जो कभी सिगरेट तक नहीं पीते, लेकिन हवा या घरेलू प्रदूषण के संपर्क में लगातार रहते हैं।

हृदय रोगों पर भारी निवेश व ध्यान दिया गया है, लेकिन फेफड़ों की सेहत पर जो संकट मंडरा रहा है, उसे बहुत ही कम समझा गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि फेफड़ों से जुड़ी गिरावट एक बार शुरू हो जाए, तो उसे वापस लाना मुश्किल है — उपचार से केवल लक्षणों में राहत मिलती है, लेकिन नलियाँ व वायु-मार्ग पहले जैसी नहीं रह पाते।

इसलिए विशेषज्ञ अब वायु-गुणवत्ता सुधार, प्रदूषण नियंत्रण, स्वच्छ ऊर्जा व जलवायु-स्मार्ट नीतियों को प्राथमिकता देने की सख्त वकालत कर रहे हैं। क्योंकि अगर हवा नहीं साफ हुई, तो फेफड़ों की बढ़ती बीमारियों के कारण लाखों लोग धीरे-धीरे दम तोड़ देंगे।

जलवायु परिवर्तन से माइक्रोप्लास्टिक का खतरा बढ़ा

एक नए वैज्ञानिक अध्ययन ने चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक माइक्रोप्लास्टिक संकट को और गंभीर बना रहा है। फ्रंटियर्स इन साइंस में प्रकाशित इस विश्लेषण में सैकड़ों अध्ययनों की जांच की गई और पता चला कि बढ़ता तापमान, चरम मौसम और जंगल की आग से हवा, पानी, मिट्टी और वन्यजीवों में प्लास्टिक प्रदूषण बढ़ रहा है।

वैज्ञानिकों ने कहा कि आमतौर पर प्लास्टिक को केवल ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने वाले कारक के रूप में देखा जाता है, लेकिन अध्ययन बताता है कि जलवायु परिवर्तन भी प्लास्टिक को ज्यादा खतरनाक बना रहा है। गर्मी से प्लास्टिक तेजी से टूटता है, जबकि तूफान और बाढ़ उसे दूर-दूर तक फैलाते हैं। हांगकांग में आए टाइफून के बाद समुद्री तटों पर माइक्रोप्लास्टिक 40 गुना बढ़ गया था।

जंगल की आग इमारतों और वाहनों को जलाकर प्लास्टिक कण और विषैले रसायन हवा में छोड़ देती है। अध्ययन ने चेताया है कि पिघलती समुद्री बर्फ भी जल्द ही बड़ी मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक छोड़ सकती है। वैज्ञानिकों ने वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक उपयोग घटाने और एक बाध्यकारी वैश्विक प्लास्टिक संधि की मांग की है।

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