जलवायु परिवर्तन के प्रभाव साल-दर-साल बदतर होते जा रहे हैं। दुनिया का कोई भी हिस्सा इसके विनाशकारी परिणामों से अछूता नहीं है। सितंबर 2024 में नेपाल में भीषण बाढ़ ने काठमांडू और आस-पास के जिलों को अपनी चपेट में ले लिया, जिससे भूस्खलन हुए और कई घर बह गए, सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों विस्थापित हुए। इससे पहले मार्च और जून के बीच, भारत और पाकिस्तान में रिकॉर्ड तोड़ तापमान और लंबे समय तक चलने वाली हीटवेव देखी गई, जिससे दैनिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। कई मौतें हुईं और बड़े पैमाने पर लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। उधर कैरेबियन और दक्षिणी अमेरिका में 2024 के मध्य से ही तूफानों ने तबाही मचाई हुई है; और कनाडा में अभूतपूर्व जंगलों की आग ने बहुत बड़े वनक्षेत्र को झुलसा दिया है। ये आपदाएं एक चिंताजनक प्रवृत्ति को उजागर करती हैं: कि जलवायु परिवर्तन अब कोई भविष्य का ख़तरा नहीं बल्कि हमारे सामने खड़ा संकट है, जो सबसे कमज़ोर क्षेत्रों और आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।
जलवायु महासम्मेलन (कॉप29) से पहले, सवाल कायम है कि क्या विकसित देश अंततः क्लाइमेट फाइनेंस पर अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करेंगे, या फिर एक बार फिर विफलता ही हाथ लगेगी, जिसका खमियाजा लाखों लोगों को अपनी जान गंवा कर भुगतना होगा?
चेतावनियों के बावजूद क्लाइमेट फाइनेंस के मोर्चे पर नाकामी
अक्टूबर 2024 में यूएनईपी ने अपनी ताजा एमिशन गैप रिपोर्ट जारी की, जिसने साबित कर दिया कि भले ही 2030 तक उत्सर्जन में आवश्यक कटौती के लिए विभिन्न देश अपनी सभी वर्तमान जलवायु प्रतिज्ञाओं को पूरा करें, तो भी इस सदी के अंत तक धरती के तापमान में 2.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने का अनुमान है। यदि ऐसा हुआ तो धरती कई खतरनाक टिपिंग पॉइंट्स को पार कर जाएगी, जिससे खाद्य सुरक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और जैव विविधता को खतरा होगा। वर्तमान वैश्विक उत्सर्जन और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए आवश्यक कटौती के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। इस विफलता का एक प्रमुख कारण है विकसित देशों से अपर्याप्त वित्तीय सहायता। विकासशील देशों को अधिक वित्तीय संसाधन मुहैया कराए बिना दुनिया के सबसे कमजोर समुदायों की बिगड़ते जलवायु प्रभावों से रक्षा नहीं की जा सकेगी।
यूएनईपी रिपोर्ट के तुरंत बाद, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) सिंथेसिस रिपोर्ट जारी की गई। 195 पार्टियों के योगदान को संकलित करती यह रिपोर्ट दोहराती है कि क्लाइमेट फाइनेंस नहीं मिलने के कारण कई विकासशील देश अपनी जलवायु प्रतिबद्धताएं पूरी करने में असमर्थ हैं। रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि मिटिगेशन एम्बिशन और फंडिंग में उल्लेखनीय वृद्धि के बिना दुनिया और अधिक उत्सर्जन की राह पर है। रिपोर्ट का अनुमान है कि 2030 में कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन 2019 की तुलना में केवल 2.6% कम होगा — जो 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के अनुरूप रहने के लिए आवश्यक कटौती से बहुत कम है। ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन में काफी कम योगदान देने वाले विकासशील देश जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं, फिर भी उन्हें आवश्यक शमन (मिटिगेशन) और अनुकूलन (अडॉप्टेशन) उपायों को लागू करने के लिए बहुत कम समर्थन मिल रहा है।
विकासशील देश लंबे समय से क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा बदलने की मांग कर रहे हैं, जिसमें कर्ज की बजाय अनुदान को प्राथमिकता दी जाए और हानिकारक लोन साइकिल को ख़त्म किया जाए। ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ), अडॉप्टेशन फंड और हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) फंड (एफआरएलडी) जैसे बहुपक्षीय जलवायु फंडों से अनुदान यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि क्लाइमेट एक्शन कमजोर देशों को वित्तीय संकट में न धकेल दे।
नया जलवायु वित्त लक्ष्य: कौन देगा, किसे मिलेगा और कितना
नए कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनसीक्यूजी) — यानि पुराने 100 अरब डॉलर के लक्ष्य को बदलकर 2025 के लिए नए वित्तीय लक्ष्य के निर्धारण को इस महीने बाकू में कॉप29 जलवायु सम्मेलन के दौरान अंतिम रूप दिया जाना है।
अफ्रीकी देश, अरब समूह और भारत जैसे विकासशील देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने में सहायता के लिए पब्लिक फाइनेंस के रूप में सालाना कम से कम 1 ट्रिलियन डॉलर की मांग कर रहे हैं। जैसा कि इस लेख में रेखांकित किया गया है, विकसित देश इस बात पर सहमत हैं कि पब्लिक फाइनेंस को एनसीक्यूजी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनना चाहिए, लेकिन कितना फाइनेंस देना है इस बात पर अस्पष्टता बनी हुई है। संयुक्त राज्य अमेरिका समेत विकसित देश इस बात जोर दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जिस स्तर में फाइनेंस आवश्यक है, उस तक पहुंचने के लिए एनसीक्यूजी की संरचना एक वैश्विक निवेश लक्ष्य के रूप में करनी चाहिए जो फंडिंग और निवेश के कई स्रोतों में विभाजित हो। इस परिभाषा में न केवल स्वच्छ ऊर्जा और रेसिलिएंस परियोजनाओं में निवेश करने वाली निजी कंपनियां शामिल होंगी (जिनसे पहले से ही ज्यादातर अमीर देश और कुछ बड़े विकासशील देश लाभान्वित होते हैं) बल्कि इसमें वे प्रयास भी शामिल होंगे जो विकासशील देश पहले से ही, अमीर देशों से अडॉप्टेशन या लॉस एंड डैमेज के लिए पर्याप्त समर्थन मिले बिना, अपने दम पर कर रहे हैं।
जबकि, द गार्जियन में प्रकाशित एडवोकेसी ग्रुप ऑयल चेंज इंटरनेशनल द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि अमीर देश संपत्ति और कॉर्पोरेट टैक्स के संयोजन के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन पर कार्रवाई के माध्यम से सालाना 5 ट्रिलियन डॉलर जुटा सकते हैं। रिपोर्ट का अनुमान है कि अरबपतियों पर संपत्ति कर लगाकर वैश्विक स्तर पर 483 अरब डॉलर जुटाए जा सकते हैं, जबकि वित्तीय लेनदेन पर टैक्स लगाकर 327 अरब डॉलर जुटाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, बड़ी प्रौद्योगिकी, हथियार और लक्जरी फैशन जैसे क्षेत्रों में बिक्री पर टैक्स से 112 अरब डॉलर प्राप्त किए जा सकते हैं, और दुनिया भर में मिलिट्री पर होनेवाले सार्वजनिक खर्च का 20% पुनर्आवंटन करके 454 अरब डॉलर मिल सकते हैं। जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी ख़त्म करके अमीर देशों में 270 अरब डॉलर और वैश्विक स्तर पर लगभग 846 अरब डॉलर का सार्वजनिक वित्त उपलब्ध हो सकता है, जबकि जीवाश्म ईंधन निष्कर्षण पर टैक्स लगाकर अमीर देशों में 160 अरब डॉलर और दुनिया भर में 618 अरब डॉलर पैदा किए जा सकते हैं।
विवाद का एक और बड़ा मुद्दा यह है कि फाइनेंस किसे देना चाहिए और किसे मिलना चाहिए। विकसित देश जोर दे रहे हैं कि चीन, खाड़ी देशों जैसे धनी विकासशील और भारत जैसी अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं को शामिल करके डोनर्स की सूची को और व्यापक किया जाए। लेकिन इससे कॉमन बट डिफ़रेंशिएटेड रिस्पॉन्सिबिलिटीज़ ऐंड रिस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज़ (सीबीडीआर-आरसी) का सिद्धांत कमजोर होता है, जो यूएनएफसीसीसी फ्रेमवर्क का केंद्र है। सीबीडीआर-आरसी का अर्थ है कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ कार्रवाई में विकसित देशों को विकासशील और अल्पविकसित देशों की तुलना में ज़्यादा ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, क्योंकि विकसित देशों ने विकास के दौरान सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन किया है और वह जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं। विकासशील देश और सिविल सोसाइटी इसी बात पर जोर देते हैं कि ऐतिहासिक प्रदूषकों के रूप में औद्योगिक देशों को क्लाइमेट फाइनेंस के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी उठानी चाहिए।
जबकि चीन और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने अनिवार्य योगदान को नकारा है, और इस बात पर जोर दिया है कि विकसित देश दूसरों से मांग करने से पहले अपने दायित्वों को पूरा करें।
इस लेखक ने द हिंदुस्तान टाइम्स से कहा था, “पिछले 150 से अधिक वर्षों से जीवाश्म ईंधन पर आधारित औद्योगीकरण से समृद्ध हुए अमीर देश 1990 के दशक से उत्सर्जन की गिनती शुरू नहीं कर सकते। वे जलवायु परिवर्तन के लिए ऐतिहासिक रूप से ज़िम्मेदार हैं, और अब समय आ गया है कि उन्हें यह जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। विकासशील देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस डोनेशन या व्यावसायिक निवेश नहीं है — यह क्षतिपूर्ति का मामला है। इस संकट का बोझ उन लोगों पर नहीं डाला जाना चाहिए जो इसके लिए बमुश्किल जिम्मेदार हैं।”
विकसित देशों का तर्क है कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को अपनी बढ़ती संपत्ति और उत्सर्जन के कारण फाइनेंस में योगदान देना चाहिए, लेकिन वे जलवायु परिवर्तन के लिए अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। यह क्लाइमेट जस्टिस का एक मूल सिद्धांत है, जो उन्हें क्लाइमेट एक्शन की फंडिंग के लिए मुख्य रूप से जवाबदेह बनाता है। इसके बावजूद, एक ओर ग्लोबल साउथ द्वारा व्यापक योगदान पर जोर देते हुए विकसित देशों ने दूसरी ओर जीवाश्म ईंधन के उपयोग का विस्तार जारी रखा है, और अधिकांश जिम्मेदारी दूसरों पर डाल दी है।
वहीं, उदाहरण के लिए, चीन ने महत्वपूर्ण स्वैच्छिक योगदान दिया है, जिसमें 2013 से 2022 के बीच क्लाइमेट एक्शन के लिए 45 अरब डॉलर शामिल हैं। इसी तरह, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और दक्षिण कोरिया ने क्रमशः फंड फॉर रिस्पॉन्डिंग टू लॉस एंड डैमेज (एफआरएलडी) और जीसीएफ में योगदान दिया है।
विकसित देश पब्लिक फाइनेंस को उन देशों तक सीमित करने का प्रयास कर रहे हैं जिन्हें वे सबसे कमजोर मानते हैं — जिन्हें अल्पविकसित देश (एलडीसी), लघुद्वीपीय विकासशील राज्य (एसआईडीएस) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। हालांकि इसे क्लाइमेट फाइनेंस की दिशा और प्रभाव में सुधार करने के तरीके के रूप में तैयार किया गया है लेकिन कई विकासशील देश इसे एक विभाजनकारी रणनीति के रूप में देखते हैं जिसका उद्देश्य बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को आवश्यक समर्थन से वंचित करना है। इस रणनीति से विकासशील देशों की एकता कमजोर होने का खतरा है, जैसा कि एनसीक्यूजी वार्ता के अंतिम चरण और कॉप28 में हानि और क्षति कोष के गठन के दौरान हुआ था।
इस बात पर भी असहमति बढ़ रही है कि क्या एनसीक्यूजी में लॉस एंड डैमेज (हानि और क्षति) के लिए फंडिंग शामिल होनी चाहिए। सिविल सोसइटी समर्थित विकासशील देशों की दलील है कि हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) को शमन (मिटिगेशन) और अनुकूलन (अडॉप्टेशन) के साथ क्लाइमेट फाइनेंस का तीसरा स्तंभ माना जाना चाहिए। उनकी सिफारिश के कारण कॉप27 में फंड फॉर रिस्पॉन्डिंग टू लॉस एंड डैमेज (एफआरएलडी) का गठन हुआ, जो अब यूएनएफसीसीसी के वित्तीय तंत्र का एक हिस्सा है। हालांकि, अमीर देश एनसीक्यूजी में लॉस एंड डैमेज को शामिल करने का विरोध करते हैं। इसके लिए वह पेरिस समझौते हवाला देते हैं, जिससे इस तरह के समर्थन को बाहर रखा गया है। बढ़ती जलवायु संबंधी आपदाओं को देखते हुए, अधिक समय तक यह रुख बनाए रखना कठिन है।
क्या कॉप29 में विश्वास बहाल होगा?
क्लाइमेट फाइनेंस केवल भविष्य की परियोजनाओं के बारे में नहीं है; यह ग्लोबल नॉर्थ द्वारा दशकों से पहुंचाई गई पर्यावरणीय क्षति की भरपाई का मामला है। नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित 2023 का एक अध्ययन ग्लोबल नॉर्थ और साउथ के कार्बन उत्सर्जन के बीच विशाल असमानताओं पर प्रकाश डालता है। अध्ययन के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, कनाडा, इज़राइल और अन्य अमीर देशों ने अपने कार्बन बजट के उचित हिस्से से आगे जा चुके हैं, 2050 तक यह वृद्धि तीन गुना अधिक होने की संभावना है। कार्बन बजट के इस बड़े हिस्से की लागत बहुत अधिक है: इन देशों पर सदी के मध्य तक कम उत्सर्जन करने वाले देशों का लगभग 192 अरब डॉलर बकाया है, यानि प्रति व्यक्ति सालाना 940 डॉलर। जलवायु संकट पैदा करने के लिए क्षतिपूर्ति और मुआवज़े की मांगें तेज़ हो रही हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या कॉप29 के दौरान अंततः इस घोर अन्याय पर ध्यान देने की शुरुआत होगी।
विकसित देशों की विश्वसनीयता खतरे में है। पिछले जलवायु सम्मेलनों में किए गए फाइनेंस के वादे बार-बार विफल रहे हैं, और क्लाइमेट एक्शन को न्याय की बजाय निवेश के रूप में देखा जाता है।
विकासशील देशों ने अपने बकाया मुआवजे के लिए बहुत लंबा इंतजार किया है। यदि समृद्ध देश पर्याप्त, सुलभ और पारदर्शी क्लाइमेट फाइनेंस प्रदान करने में विफल रहते हैं, तो संभव है कॉप29 भी टूटे वादों के लंबे इतिहास में एक और अध्याय बन जाए। वैश्विक क्लाइमेट जस्टिस का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि क्या विकसित देश अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सकते हैं या क्या उनकी निष्क्रियता दुनिया को और गहरे जलवायु संकट की ओर धकेल देगी।
पोस्ट स्क्रिप्ट – अमेरिका राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रम्प की सत्ता में वापसी से इस बात का पर्याप्त अंदेशा है कि बाकू सम्मेलन में जलवायु न्याय को लेकर संघर्ष बढ़ेगा। जीवाश्म ईंधन उत्पादन को बढ़ाने, जलवायु समझौतों को खारिज करने और जलवायु वित्त का विरोध करने की उनकी ज़िद एक नए, साहसिक और न्यायसंगत क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य की दिशा में संभावित प्रगति को ख़तरा है। ऐसे समय में जब दुनिया के देश विनाशकारी जलवायु प्रभावों को रोकने के कोशिश कर रहे हैं, ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक और जीवाश्म ईंधन उत्पादक होने के कारण अमेरिका का कर्तव्य है कि वह इस मुहिम का नेतृत्व करे।
ट्रम्प के रुख से वैश्विक स्तर पर भरोसा विश्वास कम होने और बढ़ते जलवायु संकट में कमजोर देशों के अलग-थलग पड़ने का खतरा है। अब पहले से कहीं अधिक, राज्यों, जनता और जलवायु कार्रवाई के लिए प्रतिबद्ध कंपनियों को विकासशील दुनिया के साथ सच्ची एकजुटता दिखाने के लिए अपने घरेलू प्रयासों को मजबूत करना चाहिए।
(हरजीत सिंह एक क्लाइमेट एक्टिविस्ट हैं और फॉसिल फ्यूल ट्रीटी इनिशिएटिव में ग्लोबल एंगेजमेंट निदेशक हैं। वह @harjeet11 हैंडल से एक्स पर पोस्ट करते हैं।)