Newsletter - July 29, 2024
क्या चीड़ है उत्तराखंड के जंगलों में आग का असली ‘खलनायक’?
उत्तराखंड में अनियंत्रित जंगलों की आग के लिए अक्सर चीड़ को जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन फायर लाइनों का अभाव, वन कर्मचारियों और आग से लड़ने के लिए संसाधनों की कमी, और क्लाइमेट चेंज के कारण बढ़ता तापमान और शुष्क मौसम भी इसके लिए जिम्मेदार है। इस समस्या के स्थाई समाधान के लिए यह स्वीकार करना जरूरी है।
इस साल मई में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की चीड़ की पत्तियां (पिरूल) साफ़ करते हुए तस्वीरें मीडिया में देखी गईं। मुख्यमंत्री ने सरकार के ‘पिरूल लाओ-पैसे पाओ’ अभियान की घोषणा करते हुए कहा, “पिरूल की सूखी पत्तियां जंगल की आग का सबसे बड़ा कारण हैं,” । इस अभियान का उद्देश्य है स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित करना कि वह चीड़ की पत्तियां इकट्ठा करने में वन विभाग की मदद करें और आर्थिक प्रोत्साहन पायें।
इस साल लंबे समय तक रहे गर्म और शुष्क मौसम के दौरान उत्तराखंड में जंगल की आग की 1,200 से अधिक घटनाएं देखी गईं, जिसमें कुछ वन रक्षकों सहित कम से कम 10 लोगों की जान चली गई। कहा जा सकता है कि सरकार का यह अभियान गंभीर जमीनी हकीकतों से हटकर, केवल सदियों पुराने देवदार के पेड़ों पर दोष मढ़ने का एक प्रयास था।
हालांकि यह सच है कि हिमालय के जंगलों में चीड़ को आग फैलने के एक प्रमुख कारण के रूप में देखा जाता है। चीड़ की ज्वलनशील पत्तियों और तने से निकलने वाली राल (रेसिन) के कारण आग तेजी से फैलती है और नियंत्रण से बाहर हो जाती है। लेकिन, इसके कई और कारण भी हैं, जिनमें प्रमुख दो हैं आग पर काबू पाने के लिए जरूरी फायर लाइनों की अनुपस्थिति और अपर्याप्त फॉरेस्ट गार्ड। फायर लाइनें खुली भूमि की पट्टियां होती हैं जो आग को आगे बढ़ने से रोकती हैं।
जलवायु परिवर्तन भी जंगल की आग को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाता है। सर्दियों की बारिश से भूमि नम हो जाती है और आग को नियंत्रण से बाहर होने से रोकती है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि सर्दियों में होने वाली बारिश का गिरता ग्राफ, लंबी गर्मियां और रिकॉर्ड उच्च तापमान के कारण भी आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। इस साल उत्तराखंड में सर्दियों में जंगल की आग में वृद्धि दर्ज की गई। इस साल करीब पांच महीनों तक उन जंगलों में भी भीषण आग लगी रही जहां चीड़ बहुत कम हैं या नहीं हैं।
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि एक बहुआयामी रणनीति बनाने की बजाय, उत्तराखंड सरकार द्वारा पेड़ों का एक प्रजाति को “खलनायक” बनाना एक अदूरदर्शी रणनीति है, जो लंबी अवधि में हानिकारक साबित होगी। चीड़ हिमालय के पहाड़ों में कई अन्य प्रजातियों के बीच खड़ा एक शंकुवृक्ष है। विशेषज्ञों के अनुसार, केवल इस पर ध्यान केंद्रित करना दर्शाता है कि हिमालय की विस्तृत इकोलॉजी के बारे में सरकार की समझ सही नहीं है और इससे जंगल की आग की समस्या का स्थाई समाधान नहीं हो सकता।
हिमालय के निर्माण के बाद से ही चीड़ भारत के पर्वतीय वनों का एक अभिन्न अंग रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि जंगल की आग पर काबू पाने के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो जंगल के नियमों को स्वीकार करे और आग फैलने के मानवीय कारणों को संबोधित करने का प्रयास करे।
मानव जनित होती है जंगल की आग
जंगल में लगने वाली लगभग सभी तरह की आग मानवजनित होती है और मानवीय गतिविधियों के कारण होती है। ग्रामीण अपने मवेशियों के लिए चारे की बेहतर उपलब्धता की उम्मीद में सूखी घास जला देते हैं। इससे कभी-कभी बड़ी आग लग सकती है। जलती हुई सिगरेट छोड़ना, खाना पकाना या अलाव जलता छोड़ देने से भी जंगल में आग लग सकती है। खराब कचरा प्रबंधन भी स्थानीय लोगों और अधिकारियों को सूखे कचरे से छुटकारा पाने के लिए कचरा जलाने के लिए मजबूर करता है, जिससे आग लग जाती है।
हालांकि यह समझना महत्वपूर्ण है कि हर आग विनाशकारी नहीं होती हैं। आग की छिटपुट घटनाएं इकोसिस्टम को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करती हैं। वे जमीन पर इकठ्ठा हुए खरपतवार को साफ़ करके और पोषक तत्वों को रीसाइकिल करके जंगलों की इकोलॉजी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये आग बीज के अंकुरण में भी मदद करती हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन जंगल की आग के इस उत्पादक प्रभाव को कम करके इसे विनाशकारी बना रहा है।
इसके कारण जंगलों में बार-बार, अनियंत्रित और बड़ी आग लग रही है, जो न केवल जैव विविधता और बहुमूल्य वन संसाधनों को नष्ट कर रही है, बल्कि मिट्टी की ऊपरी परत को नष्ट करके अचानक बाढ़ का खतरा भी बढ़ा रही है।
उत्तराखंड के वन अनुसंधान विभाग के अधिकारियों का कहना है कि बड़ी आग की घटनाएं न केवल मूल्यवान पौधों की प्रजातियों, बल्कि ‘पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियों (जैसे नेटिव चीयर तीतर, कलिज तीतर और कॉमन रोज़ आदि) को भी खतरे में डाल रही हैं, जिनका प्रजनन काल अप्रैल से जून के बीच आग के मौसम दौरान पड़ता है’। जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण तितलियों की कई सौ प्रजातियां ‘लुप्तप्राय होने के कगार’ पर हैं क्योंकि जिन पौधे पर वह आश्रित हैं वह जंगल की आग में नष्ट हो रहे हैं।
जंगल की आग के फैलाव और चीड़ का क्या है संबंध?
जंगल में आग फैलने का कारण चीड़ की ज्वलनशील सूखी पत्तियों को माना जाता है, जो आग के मौसम के दौरान और उससे पहले भारी मात्रा में पेड़ से गिरती हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में जंगल की आग बुझाने में लगे स्वयंसेवी ग्रामीण कमलेश जीना ने कहा, “पिरूल के कारण आग बहुत खतरनाक रूप ले लेती है और तेजी से फैलती है और बेकाबू हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने जंगल में पेट्रोल छिड़क दिया हो। इसे बुझाने में हमारी जान को ख़तरा होता है।”
इसके अलावा, चीड़ के पेड़ों से बाजार में बेचने के लिए राल (रेसिन) निकाली जाती है। राल इकट्ठा करने के लिए पेड़ों के तनों पर निशान बनाए जाते हैं जहां से यह चिपचिपा तरल पदार्थ रिसता है। यह पदार्थ ज्वलनशील होता है।
पिछले पांच दशकों से पश्चिमी और मध्य हिमालय क्षेत्र का अध्ययन कर रहे इतिहासकार शेखर पाठक कहते हैं, “जब आग ऊपर उठती है और [तने से रिसती] राल आग पकड़ लेती है, तो यह जलती हुई गांठ तेज हवा के साथ उड़ सकती है और आग को अन्य हिस्सों में भी फैलाती है। अब हमारे पास इसके फोटोग्राफिक सबूत हैं, इसलिए आग पर काबू पाने के लिए चीड़-पाइन के क्षेत्र को समझना महत्वपूर्ण है।”
हिमालय के जंगलों पर कैसे हुआ चीड़ का प्रभुत्व
आम धारणा है कि चीड़ को अंग्रेज बाहर से यहां लाये लेकिन सच यह है कि चीड़ भारतीय मूल का वृक्ष है। दशकों से इसे पहाड़ी वातावरण में बढ़ने और पनपने के लिए अनुकूल परिस्थितियां मिलीं हैं।
आज भारत में चीड़ की 8 देशी और 21 विदेशी प्रजातियां हैं। इससे मिलने वाली राल के कारण सरकार के लिए चीड़ उगाना हमेशा फायदेमंद रहा है। राल का उपयोग तारपीन तेल, साबुन, कागज, पेंट और रासायनिक उद्योग में किया जाता है।
औपनिवेशिक काल से ही यह सरकार के लिए राजस्व अर्जित करने का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा है। अब भी उत्तराखंड सरकार राल से सालाना करीब 200 करोड़ रुपए कमाती है।
पाठक कहते हैं कि अंग्रेज चीड़ के राल के व्यावसायिक लाभों के बारे में इतने जागरूक थे कि 19वीं शताब्दी की शुरुआत में उन्होंने इसका फायदा उठाने के लिए उत्तराखंड के काशीपुर में एक छोटी फैक्ट्री यूनिट लगाई थी।
“पहाड़ियों पर उपनिवेश स्थापित करने से पहले शायद वह हिमालय में अंग्रेजों का पहला उद्यम था। उस समय, ईस्ट इंडिया कंपनी का कुमाऊं पर प्रशासनिक नियंत्रण नहीं था, लेकिन उन्होंने पहले ही इस संसाधन पर अपनी नजरें जमा ली थीं और वाणिज्यिक पहल शुरू कर दी थी,” पाठक ने कहा।
1850 के दशक में जब अंग्रेज भारत में रेलवे नेटवर्क का विस्तार करने लगे तो हिमालयी जंगलों के इकोलॉजिकल इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। 1853 से 1910 के बीच लगभग 60 वर्षों की अवधि में, रेलवे का नेटवर्क मात्र 32 किमी से बढ़कर 51,000 किमी से अधिक हो गया। रेलवे पटरियों और डिब्बों के लिए भारी मात्रा में लकड़ी की आवश्यकता होती थी। इन जंगलों से सागौन, ओक, देवदार और साल को ईंधन की लकड़ी और निर्माण के लिए काटा गया। इस प्रकार, रेलवे के विस्तार के साथ-साथ हिमालय के जंगलों में चीड़ की मौजूदगी बढ़ती गई।
उत्तराखंड काउंसिल फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी (यूसीओएसटी) के एमेरिटस साइंटिस्ट और भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के पूर्व डीन जीएस रावत ने कहा, “अंग्रेजों के जाने के बाद भी भारत में वनों और अन्य संसाधनों का शोषण जारी रहा। साल और देवदार आमतौर पर चीड़ के साथ अपना हैबिटैट साझा नहीं करते हैं। इसलिए, यह कहना सही नहीं होगा कि ब्रिटिश काल के दौरान व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए साल और देवदार की कटाई के कारण चीड़ का विस्तार हुआ होगा। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि कम ऊंचाई और चौड़ी पत्तियों वाले बांज (ओक) जिसका वैज्ञानिक नाम क्वेरकस ल्यूकोट्रिचोफोरा है, उत्तराखंड में स्थानीय लोगों के लिए ईंधन की लकड़ी और चारे की सबसे पसंदीदा प्रजाति है।”
वह बताते हैं कि यह संभव है कि ओक के जंगलों का क्षरण, विशेष रूप से दक्षिण की ओर ढलानों पर, और ओक के जंगलों में बार-बार आग लगने से चीड़ का विस्तार हुआ। रेलवे स्लीपर बनाने के लिए चीड़ पाइन उपयुक्त नहीं है क्योंकि यह साल की तुलना में कम टिकाऊ और अधिक रालयुक्त होता है। इसलिए बांज को काटा गया लेकिन चीड़ बढ़ता रहा।
पाइन बनाम ओक: विज्ञान पर हावी हैं भावनाएं?
कुछ अन्य शोधकर्ताओं का मानना है कि चीड़ पाइन, बांज के क्षेत्र में अतिक्रमण कर रहा है, जिससे जंगलों में आग लगने का खतरा बढ़ गया है। पहाड़ी इलाकों में जंगल की आग और इकोलॉजिकल संतुलन के संदर्भ में, नुकीली-पत्ती वाले चीड़ पाइन की विशेषताओं की तुलना अक्सर चौड़ी पत्ती वाले बांज (क्वार्कस) से की जाती है क्योंकि वे एक ही हैबिटैट में उगते हैं। आम तौर पर यह माना जाता है कि चीड़ आसपास की भूमि को शुष्क बनाता है, जबकि बांज के पेड़ पानी रोकते हैं और मिट्टी को नमी प्रदान करते हैं, जिससे एक स्वस्थ इकोसिस्टम बनता है। दशकों से हिमालयी क्षेत्र में काम कर रहे कई विशेषज्ञों ने हमें बताया कि चीड़ और बांज को लेकर “कई गलतफहमियां” हैं और ज्यादातर बातें “भावनात्मकता आवेश में कही जाती हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है”।
दो दशकों से अधिक समय से हिमालयी इकोलॉजी पर शोध कर रहे एमबीपीजी कॉलेज, हलद्वानी, नैनीताल में प्राणी विज्ञान के प्रोफेसर चंद्र सिंह नेगी कहते हैं, “सच्चाई आम धारणा के विपरीत है। पाइन ज़ेरिक (खुश्क) परिस्थितियों में बढ़ता है और ओक को अच्छी नमी की आवश्यकता होती है। यदि आप शुष्क परिस्थितियों में ओक लगाएंगे, तो यह नहीं उगेगा। अक्सर लोग कहते हैं कि हम जंगलों को (फॉरेस्ट फायर से) सुरक्षित रखने के लिए चीड़ को काट देंगे और ओक जैसी चौड़ी पत्ती वाली प्रजातियां उगाएंगे, लेकिन यह सफल नहीं होगा।” दूसरी ओर, चीड़ कम नमी की परिस्थिति को भी अपने अनुकूल बना लेता है और शुष्क परिस्थितियों में पनपता है। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र में शुष्क परिस्थितियां बढ़ रही हैं। ओक के विपरीत, चीड़ की पतली, सुई के आकार की पत्तियों का सतह क्षेत्र कम होता है और पेड़ कम पानी खोता है। इसका कोन जैसा आकार, पत्तियों पर मोमी लेप और गहरी जड़ें भी इसके लिए सहायक होती हैं।
इस अध्ययन में पाया गया कि 1991 और 2017 के बीच पश्चिमी हिमालय में बांज वन के हैबिटैट में काफी कमी आई, जबकि देवदार के जंगलों में काफी विस्तार हुआ। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि बांज के जंगल घट रहे हैं और चीड़ पाइन मध्य हिमालय में बांज को विस्थापित कर रहा है।
जैव विविधता विशेषज्ञ और नई दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) के वरिष्ठ फेलो योगेश गोखले का कहना है कि “चीड़ की आक्रामक प्रकृति हिमालय के जंगलों के परिदृश्य को बदल रही है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।” उन्होंने कहा, “हिमालयी क्षेत्र में पाइन की कई प्रजातियां हैं, लेकिन चीड़ पाइन निश्चित रूप से एक समस्या है। मेरा मानना है कि चीड़ पाइन बड़े पैमाने पर उत्तराखंड के वनों की सतह को बदल रहा है। पाइन की सुइयों की परत के कारण कई प्रजातियों का पुनर्जनन बाधित हो रहा है, विशेष रूप से ओक का, जो इसकी अनुपस्थिति में होना चाहिए था।”
लेकिन उत्तराखंड में रानीखेत के बाहर घने जंगलों के बीच बने वन विभाग के अनुसंधान केंद्र में ऐसी कोई चेतावनी नहीं है। बाहर लगे बोर्ड पर साफ लिखा है, ”जंगल में आग चीड़ के कारण नहीं, बल्कि हमारी लापरवाही के कारण लगती है।” यहां आगंतुकों को पाइन से संबंधित जानकारी दी जाती है। देशी चीड़ पाइन के अलावा, पाइन की कई अन्य विदेशी प्रजातियों का उल्लेख मिलता है। “पाइन के बारे में रोचक तथ्यों” में पहाड़ों में मिट्टी के कटाव को रोकने की इसकी गुणवत्ता के अलावा, शुष्क परिस्थितियों में बढ़ने की इसकी क्षमता भी शामिल है।
लेकिन सभी विशेषज्ञ एक बात पर सहमत हैं — कि पिछले कुछ सालों में चीड़ की वृद्धि और फैलाव के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनीं। 1980 के दशक की शुरुआत में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1,000 मीटर से ऊपर पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रतिबंध 2023 में हटा लिया गया था, लेकिन प्रतिबंध के चार दशकों के दौरान चीड़ को अन्य प्रजातियों के मुकाबले स्पष्ट लाभ मिला। रावत ने बताया कि शीर्ष अदालत द्वारा कटाई पर प्रतिबंध अच्छे इरादों के साथ लगाया गया था और इससे जंगलों के बड़े और घने हिस्से बच गए। हालांकि, जंगलों में मुक्त चराई और बांज जैसे चारे के काम आने वाले पेड़ों की शाखों की छंटाई पर पर रोक नहीं लगाई गई।
रावत ने कार्बनकॉपी को बताया, “पेड़ों और पेड़ पौधों की अत्यधिक छंटाई पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया था। परिणामस्वरूप, ओक और अन्य चौड़ी पत्ती वाली प्रजातियों के पुनर्जनन पर असर पड़ा। दूसरी ओर, चीड़ के पौधे और अंकुर न चारे के योग्य थे, न ही ईंधन के काम आ सकते थे। इसके कारण वह बच गए और ओक के इलाकों में फैल गए। इसके अलावा, दक्षिण की ओर ढलानों पर लगातार आग लगने से चीड़ पाइन को फायदा हुआ।”
क्या पाइन इकठ्ठा करने से रुकेगी जंगल की आग?
उत्तराखंड सरकार के एक अनुमान के मुताबिक, हर साल पहाड़ी ढलानों में लगभग 18 लाख टन चीड़ की पत्तियां पैदा होतीं है। सरकार को उम्मीद है कि अगर इसे वन विभाग और स्थानीय समुदायों की मदद से एकत्र किया जाए तो इसका उपयोग बिजली, जैव ईंधन, कुटीर और उर्वरक उद्योग में किया जा सकता है। इस साल मई में उत्तराखंड सरकार ने चीड़ की पत्तियों को इकट्ठा करने का पारिश्रमिक 3 रुपए से बढ़ाकर 50 रुपए प्रति किलोग्राम करने की घोषणा की। लेकिन क्या यह जंगल की आग को नियंत्रित करने का एक स्थाई तरीका है?
एक वरिष्ठ वन अधिकारी ने कहा, “अगर चीड़ पाइन की पत्तियों का उपयोग रोजगार पैदा करने के लिए किया जाए तो कोई नुकसान नहीं है। लेकिन जंगल की आग की समस्या के लिए चीड़ की पत्तियों को इकट्ठा करना कोई व्यावहारिक समाधान नहीं लगता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चीड़ वन इकोलॉजी का एक हिस्सा है।”
चीड़ की पत्तियां मिट्टी को ढकती हैं, और गर्मी में मिट्टी की नमी बनाए रखती हैं, खरपतवार को बढ़ने से रोकती हैं, कटाव को रोकती हैं और धीरे-धीरे ही सही लेकिन अपघटन द्वारा मिट्टी में पोषक तत्व छोड़ती हैं। यद्यपि पाइन नीडल की प्रकृति अम्लीय होती है, विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि वे मिट्टी के पीएच स्तर में महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं करती हैं। वास्तव में, यदि सभी फायदे और नुकसान को एक साथ देखा जाए तो ये पाइन नीडल मिट्टी के लिए अच्छी गीली घास का काम करती हैं।
डॉ एसपी सिंह जंगल की आग को रोकने के लिए चीड़ की पत्तियों को इकट्ठा करने के अभियान को कठोरता से खारिज करते हैं और इसे “पूरी तरह से बकवास” बताते हैं।
“यदि आप किसी अन्य विकसित देश में यह कहें कि आप (जंगल के फर्श को साफ करने के लिए) बिखरी हुई पत्तियां इकट्ठा कर रहे हैं, तो वे आप पर हंसेंगे। यह कूड़ा-कचरा हैबिटैट है। यह मिट्टी को पोषक तत्व प्रदान करता है। इसके अपघटन से कार्बनिक पदार्थ बनता है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। गनीमत है कि वे ऐसा कभी नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनके पास न तो काम करने के लिए लोग हैं और न ही वे इसका (पिरूल) सफलतापूर्वक कोई व्यावहारिक उपयोग कर सकते हैं,” डॉ. सिंह ने कार्बनकॉपी को बताया।
उत्तराखंड सरकार ने 2021 में ईंधन के रूप में चीड़ की पत्तियों का उपयोग करके बिजली पैदा करने की योजना की घोषणा की थी। इसने कुल 150 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए लगभग 60 इकाइयां स्थापित करने की योजना बनाई थी। लेकिन अब तक (कुल 1 मेगावाट से कम क्षमता की) केवल छह इकाइयां स्थापित की गई हैं, जिनमें किसी भी विस्तार की कोई संभावना नहीं है।
उत्तराखंड अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (उरेडा) के अधिकारियों का कहना है कि पायलट प्रोजेक्ट का अनुभव बिल्कुल भी उत्साहवर्धक नहीं है। उरेडा के वरिष्ठ परियोजना अधिकारी वाईएस बिष्ट ने कहा, “25-25 किलोवाट की सभी छह इकाइयां परीक्षण के लिए स्थापित की गईं थीं, लेकिन वह काम नहीं कर सकीं। इसमें कई समस्याएं हैं। [पाइन का] संग्रहण और ढुलाई महंगी है और हमारे पास बेहतर तकनीक नहीं है इसलिए यह उद्यम वित्तीय रूप से व्यवहार्य नहीं है।”
रानीखेत स्थित एक गैर लाभकारी संगठन लोक चेतना मंच के अध्यक्ष और पर्यावरण कार्यकर्ता जोगेंद्र सिंह बिष्ट कहते हैं कि पाइन संग्रह अभियान पहले भी चलाया गया था, लेकिन यह “पूरी तरह से विफल” साबित हुआ।
उन्होंने कहा, “उपाय दो तरह के हो सकते हैं, अल्पकालिक और दीर्घकालिक। पाइन नीडल का संग्रह केवल एक विकल्प है, जो सीमित पैमाने पर ऐसी जगहों पर किया जा सकता है जहां जाना संभव है। हालांकि पिछले अनुभव के आधार पर मुझे इसकी सफलता को लेकर काफी आशंकाएं हैं। दूसरा अल्पकालिक उपाय है कि स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित करके उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए। दीर्घकालिक उपायों में चीड़ के स्थान पर अन्य प्रजातियों के पेड़ लगाना या चीड़ के पेड़ों को काटकर गलियारे बनाना और मिश्रित वनों की रक्षा करना आदि हो सकते हैं। ऐसा कैम्पा फंड (क्षतिपूरक वनीकरण कोष एवं क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण) के उपयोग के लिए नीति में बदलाव करके किया जा सकता है और दूसरा तरीका है अग्निशमन के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत स्थानीय लोगों को यह काम देना।”
बिष्ट का लोक चेतना मंच रानीखेत के बाहरी इलाके में लगभग छह हेक्टेयर क्षेत्र में मिश्रित जंगल उगाने के लिए स्थानीय समुदाय के लोगों के साथ सक्रिय रूप से काम कर रहा है। पिछले छह सालों में जिस वन भूमि में केवल चीड़ का प्रभुत्व था वहां उन्होंने बांज (क्वेरकस), बुरांश (रोडोडेंड्रोन अर्बोरियम), काफल (मिरिका एस्कुलेंटा), देवदार (सेड्रस) और किल्मोड़ा (बर्बेरिस एशियाटिका) सहित दो दर्जन से अधिक प्रजातियां उगाई हैं।
बिष्ट का कहना है, “उचित निगरानी और कुशल वन प्रबंधन [जंगल की आग पर अंकुश लगाने का] स्थाई समाधान है। जंगली क्षेत्रों में चीड़ की वृद्धि को नियंत्रित करना और अन्य प्रजातियों को बढ़ने में सहायता करना इस अभियान का एक हिस्सा हो सकता है। जैसा कि हमने कई जगहों पर किया है, रानीखेत इस प्रयोग का एक उदाहरण है। एक बार जब हम एक निश्चित अवधि के निरंतर प्रयास से मिश्रित वन विकसित कर लेते हैं, तो अन्य प्रजातियां स्वयं चीड़ के विकास को नियंत्रित कर लेंगी।”
केरल के वायनाड जिले में मेप्पाडी के पास पहाड़ी इलाकों में मंगलवार सुबह भारी भूस्खलन हुआ। इस चरम मौसमी घटना से हुई आपदा में कम से कम डेढ़ सौ लोगों के मारे जाने की आशंका है। ख़बर लिखे जाने तक 156 लोगों के शव निकाल लिए गए थे और कई लोगों के लापता होने का समाचार है।मनोरमा के मुताबिक इस आपदा में 50 से अधिक घर तबाह हो गये हैं। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, सैकड़ों अन्य लोगों के मलबे में फंसे होने की आशंका है। स्थानीय अधिकारियों के अनुसार, अधिकांश पीड़ित चाय बागानों में काम करते थे और बागानों के निचले हिस्से में रहते थे। अकेले वायनाड में 45 राहत शिविरों में 3,069 लोग हैं।
वायनाड में सोमवार और मंगलवार की दरमियानी रात को भारी बारिश हुई। वायनाड ज़िले में सामान्य से 5 गुना अधिक बरसात हो गई जिस कारण कई भूस्खलन हुए। बचाव कार्यों में बाधा का सामना करना पड़ा। मौसम विभाग ने 3 अगस्त तक भारी बारिश का पूर्वानुमान किया है और ऑरेंज अलर्ट जारी किया है। वायनाड जिले के अधिकारियों ने बताया कि थोंडरनाड गांव में रहने वाले एक नेपाली परिवार के एक साल के बच्चे की भूस्खलन में मौत हो गई। मनोरमा के अनुसार, भूस्खलन ने चूरलमाला में मुख्य पुल को नष्ट कर दिया है, जिससे भूस्खलन से प्रभावित विभिन्न स्थानों पर कई लोग फंस गए हैं।राहत कार्यों के लिए सेना को बुलाया गया है
समाचार एजेंसी पीटीआई ने वैज्ञानिकों के हवाले से कहा कि केरल में भूस्खलन जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक खनन और इलाके में वन क्षेत्र के नुकसान का मिलाजुला परिणाम हो सकता है। न्यूजवायर ने कहा कि भारत में भूस्खलन हॉटस्पॉट पर 2021 के एक अध्ययन से पता चला है कि केरल में कुल भूस्खलन का 59% प्रतिशत वृक्षारोपण क्षेत्रों में हुआ। रिपोर्ट में 2022 के अध्ययन का हवाला दिया गया है जिसमें पाया गया कि 1950 और 2018 के बीच जिले में 62% जंगल गायब हो गए, जबकि वृक्षारोपण कवर लगभग 1,800% बढ़ गया। रिपोर्ट में एक अध्ययन का भी उल्लेख किया गया है जिसमें पाया गया कि 1950 के दशक तक वायनाड के कुल क्षेत्रफल का लगभग 85% भाग वन आवरण के अंतर्गत था।
कोचीन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (सीयूएसएटी) में वायुमंडलीय रडार अनुसंधान के लिए उन्नत केंद्र के निदेशक एस अभिलाष ने पीटीआई को बताया, “हमारे शोध में पाया गया कि दक्षिणपूर्व अरब सागर का तापमान बढ़ रहा है, जिससे केरल सहित इस क्षेत्र के ऊपर का वातावरण गर्म हो रहा है।” थर्मोडायनामिक रूप से अस्थिर।”
भूस्खलन पश्चिमी घाट के मुख्य क्षेत्र से होकर गुजरने वाली प्रस्तावित महत्वाकांक्षी 4-लेन अनाक्कमपोइल-कल्लाडी-मेप्पादी जुड़वां सुरंग सड़क परियोजना के साथ हुआ है। भारी बारिश ने अक्सर क्षेत्र की पर्यावरण संबंधी संवेदनशीलता को उजागर किया है। इससे पहले अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू ने बताया था कि सुरंग अलाइनमेंट भूस्खलन की संभावना वाले अत्यधिक नाजुक इलाके से होकर गुजरता है।
देश के कई हिस्सों में बाढ़ के बावजूद जुलाई में मॉनसून का वितरण विषम
जुलाई में देश के विभिन्न हिस्सों में भारी बाढ़ देखी गई, फिर भी देश भर में मानसून की बारिश 3% कम है। (मॉनसून की गणना 1 जून से 30 के बीच की जाती है), मुख्य रूप से हाल के वर्षों में मानसून के तेजी से अनियमित, विषम वर्षा पैटर्न देखा गया है और जून के महीने में इसमें 11% की कमी थी।
हिन्दुस्तान टाइम्स के मुताबिक उत्तर पश्चिम भारत में 12% बारिश की कमी है; पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में 10%; मध्य भारत में 4% की कमी; लेकिन प्रायद्वीपीय भारत पर 19% अधिक बारिश हुई। जुलाई में अब तक 4.7% अधिक बारिश देखी गई है, लेकिन ऐसा लगता है कि अधिकांश वर्षा प्रायद्वीपीय भारत में केंद्रित है, जहां महीने भर के दौरान 25% अधिक बारिश दर्ज की गई है। जुलाई में, उत्तर पश्चिम भारत में 1.1% अधिक मॉनसून दर्ज किया गया; मध्य भारत, 5.9% अधिक; और पूर्वी तथा पूर्वोत्तर भारत में 5.4% अधिक।
राजधानी में आईएएस कोचिंग सेंटर में पानी भरने से 3 छात्रों की जान गई
दिल्ली में एक कोचिंग सेंटर में पानी भर जाने से दो लड़कियों समेत कुल 3 छात्रों की जान चली गई। शनिवार को राजेंद्र नगर स्थित राउस आईएएस कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में बारिश का पानी भर गया जहां 30 छात्र पढ़ाई कर रहे थे जिनमें से तीन की जान चली गई। बाकी 27 में से कुछ या तो खुद बाहर निकल आए या उन्हें बाद में निफंस को नहीं निकाला जा सका।
बचाव के लिए गोताखोरों को लगाना पड़ा। मौके पर मौजूद छात्रों ने स्थिति को “भयानक” बताया और ऐसी स्थिति बताई जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। इस घटना से त्रुटिपूर्ण शहरी निर्माण और मौसम विभाग की चेतावनियों पर ध्यान न देने की बात भी सामने आती है। पुराने राजेंद्र नगर के निकटतम मौसम विभाग के पूसा मौसम स्टेशन ने शनिवार शाम 5.30 बजे से 8.30 बजे के बीच 31.5 मिमी बारिश की सूचना दी थी। कुछ छात्रों ने एक सप्ताह पहले भी ऐसी ही स्थिति होने की बात कही जब वहां की सड़क पर कमर तक बारिश का पानी भर गया।
चौबीस घंटों में ही टूटा सबसे गर्म दिन का रिकॉर्ड, जुलाई 22 रहा पिछले 84 सालों में सबसे गर्म दिन
सोमवार यानी 22 जुलाई, 2024 पिछले 84 सालों में दुनिया का सबसे गर्म दिन रहा। महत्वपूर्ण है कि यूरोपीय संघ की कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (सी3एस) ने जुलाई 21 को सबसे गर्म दिन घोषित किया लेकिन यह रिकॉर्ड 24 घंटों में ही टूट गया। रविवार को वैश्विक औसत तापमान 17.09 डिग्री सेल्सियस के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था और सोमवार को यह 0.06 डिग्री बढ़कर 17.15 डिग्री दर्ज किया गया। इस साल अमेरिका, यूरोप और रूस के अलावा एशिया के ज़्यादातर हिस्सों में तापमान काफी ऊंचा रहा।
इससे पहले सबसे गर्म दिन का रिकॉर्ड 6 जुलाई, 2023 ने बनाया था जब वैश्विक तापमान 17.08 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया था। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि पिछले सभी वर्षों और जुलाई 2023 के बाद के तापमानों के बीच महत्वपूर्ण अंतर है। सी3एस के निदेशक कार्लो बूनटेम्पो ने कहा कि पिछले 13 महीनों के तापमान और पिछले रिकॉर्ड के बीच का अंतर चौंका देने वाला है।
जुलाई 2023 से पहले, पृथ्वी का सर्वाधिक दैनिक औसत तापमान अगस्त 2016 में दर्ज किया गया था, जो 16.8 डिग्री सेल्सियस था। हालांकि, 3 जुलाई, 2023 के बाद से 57 दिन ऐसे रहे हैं जब दैनिक तापमान 2016 के इस रिकॉर्ड से अधिक रहा है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह साल, पिछले वर्ष 2023 के रिकॉर्ड को तोड़कर धरती पर अब तक सबसे गर्म वर्ष बन सकता है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन और एल नीनो प्रभाव – जो अप्रैल में समाप्त हुई – ने इस वर्ष तापमान को और अधिक बढ़ा दिया है।
क्लाइमेट साइंटिस्ट, आईपीसीसी रिपोर्ट के लेखकों में एक और पुणे स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटिओरोलॉजी में वैज्ञानिक रॉक्सी कोल ने एक्स पर लिखा, “हम ऐसे युग में हैं जहां मौसम और जलवायु के रिकॉर्ड अक्सर हमारी सहनशीलता की सीमा से आगे निकल रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप [मानव] जीवन और [लोगों की] आजीविका की भारी हानि हो रही है।”
निर्माण गतिविधियों और अंधाधुंध पर्यटन से हिमालयी मर्मोट पर छाया संकट
हिमालय में हो रहे निर्माण और विकास गतिविधियों और बढ़ते पर्यटन प्रभावों के कारण दुर्लभ स्तनधारी जीव हिमालयी मर्मोट के अस्तित्व पर संकट छा सकता है। यह बात आदिकैलाश के जोलिंगकोंग क्षेत्र में उत्तराखंड वन विभाग की रिसर्च विंग की रिपोर्ट में सामने आई है। हिमालयी मर्मोट 2900 से 5500 मीटर की ऊंचाई पर पाये जाते हैं।
उत्तराखंड वन विभाग की रिसर्च विंग के प्रमुख संजीव चतुर्वेदी के मुताबिक अप्रैल से जून के बीच जोलिंगकोंग गांव के पास 17 मर्मोट के व्यवहार का अध्ययन किया गया जिनमें उनके द्वारा बिल खोदने, बैठने के तरीके, आपस में दोस्तान लड़ाई और भोजन तलाशते समय सतर्कता जैसे व्यवहार का अध्ययन किया गया। इस स्टडी में यह पाया गया है कि सड़क, होटल जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण और ट्रैकिंग रूट्स के कारण इस क्षेत्र में मर्मोट के बिलों को नुकसान हो रहा है और भोजन क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। पर्यटकों द्वारा इस क्षेत्र में छोड़ा गया फूड वेस्ट मर्मोट को इंसानी भोजन पर निर्भर बना रहा है जिससे उसके द्वारा अपना प्राकृतिक भोजन तलाशने की प्रवृत्ति पर असर पड़ सकता है। शोध में कहा गया है कि अगर इस गतिविधियो को नियंत्रित नहीं किया गया तो निश्चित ही इस प्रजाति के अस्तित्व पर संकट छा जायेगा।
एक्सट्रीम हीट को प्राकृतिक आपदाओं की सूची में शामिल नहीं करेगी सरकार
सरकार ने संसद में कहा कि उसका हीटवेव को एक अधिसूचित आपदा के रूप में वर्गीकृत करने का कोई इरादा नहीं है। यदि हीटवेव को आपदा घोषित कर दिया जाता है तो आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत इससे प्रभावित लोगों को वित्तीय सहायता दी जा सकती है। गौरतलब है कि देश में इस साल अभूतपूर्व हीटवेव देखी गई, जिसने सैकड़ों लोगों की जान ले ली।
सरकार ने कहा कि 15वें वित्त आयोग ने मौजूदा अधिसूचित सूची में और अधिक आपदाओं को शामिल करने पर विचार किया, लेकिन हीटवेव को सूची में शामिल करने से मना कर दिया। सरकार ने कहा कि “आयोग ने अपनी रिपोर्ट के अनुच्छेद 8.143 में कहा है कि आपदाओं की मौजूदा सूची राज्य आपदा शमन कोष और राष्ट्रीय आपदा शमन कोष से फंडिंग के लिए काफी हद तक राज्यों की जरूरतों को कवर करती है और इसलिए सूची का दायरा बढ़ाने का अनुरोध बहुत महत्वपूर्ण नहीं है।”
वर्तमान सूची के अनुसार 12 आपदाओं के लिए राष्ट्रीय आपदा मोचन निधि/राज्य आपदा मोचन निधि (एसडीआरएफ) से सहायता दी जा सकती है: चक्रवात, सूखा, भूकंप, आग, बाढ़, सुनामी, ओलावृष्टि, भूस्खलन, हिमस्खलन, बादल फटना, कीटों का हमला, पाला और शीतलहर।
निकोबार में 72,000 करोड़ का प्रोजेक्ट प्रतिबंधित क्षेत्र में नहीं: विशेषज्ञ पैनल
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी)द्वारा गठित विशेषज्ञ पैनल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि निकोबार द्वीप में प्रस्तावित 72,000 करोड़ का प्रोजेक्ट संरक्षित तटीय क्षेत्र (आईसीआरज़े-आईए) में नहीं है। यह सरकार द्वारा दी गई पिछली जानकारी से भिन्न है कि बंदरगाह, हवाई अड्डा, टाउनशिप का 7 वर्ग किमी हिस्सा संरक्षित तटीय क्षेत्र में आता था।
ग्रेट निकोबार ‘समग्र विकास’ परियोजना की कल्पना नीति आयोग द्वारा की गई थी और मुख्य योजना में अन्य सुविधाओं के साथ एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल का निर्माण भी शामिल है। एनजीटी ने प्रोजेक्ट को मिली फॉरेस्ट क्लीयरेंस के फैसले पर दखल देने से इनकार कर दिया था लेकिन पर्यावरण संबंधी अनुमति की समीक्षा करने के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में विशेषज्ञ पैनल का गठन पिछले वर्ष किया था। अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के निष्कर्ष पहली बार सार्वजनिक हुए हैं। पैनल के निष्कर्ष अंडमान और निकोबार द्वीप समूह एकीकृत विकास निगम (ANIIDCO) द्वारा शुक्रवार को एनजीटी की कोलकाता पीठ को दिए एक हलफनामे में प्रस्तुत किए गए। महत्वपूर्ण रूप से, एनजीटी ने कहा कि परियोजना क्षेत्र को सीआरजेड आईए में दिखाया गया था जहां बंदरगाह की अनुमति नहीं है।
कोस्टल रेग्युलेशन ज़ोन (सीआरजेड) मानदंडों के कथित उल्लंघन और एचपीसी के निष्कर्षों का विवरण मांगने पर दायर दो याचिकाओं के जवाब में एनजीटी के समक्ष हलफनामा दायर किया गया था। आरटीआई अधिनियम के तहत यह जानकारी मांगे जाने पर अस्वीकार कर दिया गया था। निगम ने रक्षा उद्देश्यों के कारण गोपनीयता की दलील देकर पैनल की बैठक के मिनट्स (विवरण) साझा नहीं किए।
भारत के जंगलों में एक साल में 2 लाख से अधिक आग की घटनायें, पूरी धरती में सदी के अंत तक इन घटनाओं में होगी 50% वृद्धि
बीते साल 2023-24 के फायर सीज़न में भारत में दो लाख से अधिक फॉरेस्ट फायर की घटनायें हुईं। सरकार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के आंकड़ों के हवाले से कहा कि नवंबर 2023 से जून 2024 के बीच देश में 2,03,544 घटनायें हुईं जबकि 2022-23 में इसी दौरान 2,12,249 घटनायें हुईं थी। महत्वपूर्ण है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभावों और जाड़ों में कम बरसात के कारण जंगलों में आग की संख्या और भयावहता बढ़ रही हैं।
उधर संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का कहना है कि हर साल धरती पर 34 से 37 करोड़ हेक्टेयर जंगल जल जाता है और सदी के अंत तक फॉरेस्ट फायर की भीषण घटनाओं में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है। करीब 20 साल बाद जंगलों की आग को नियंत्रित करने के लिए अपडेटेड दिशानिर्देशों को जारी करते हुए एफएओ ने यह बात कही। जलवायु परिवर्तन से जुड़े पर्यावरणीय बदलाव, जैसे कि सूखा, हवा का उच्च तापमान और तेज़ हवाओं के परिणामस्वरूप फायर सीज़न अधिक लंबा और गर्म, शुष्क मौसम वाला होने की संभावना है।
खनन गतिविधियों पर कर लगाने की शक्ति राज्यों के पास: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने 25 जुलाई को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि खनन गतिविधियों पर कर लगाने की शक्ति राज्यों के पास है और खनिजों पर दी जाने वाली रॉयल्टी टैक्स नहीं है। इस फैसले से खनिज समृद्ध राज्यों को राजस्व में भारी वृद्धि मिलने की उम्मीद है। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि खनन पट्टाधारकों से “रॉयल्टी” लेना कर लगाने की शक्ति से पूरी तरह से अलग है और दोनों का संबंध नहीं है।
डाउन टू अर्थ के अनुसार, इस फैसले से केंद्र और राज्यों के बीच खनिजों पर कर लगाने के मुद्दे पर बहस प्रभावी रूप से समाप्त हो गई है। इससे पहले केंद्र ने कहा था कि संविधान की सूची 1 की प्रविष्टि 54 के तहत खनिज अधिकारों पर कर लगाने का विधायी अधिकार उसके पास है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि चूंकि खनिज अधिकारों पर कर लगाने की शक्ति सूची 2 की प्रविष्टि 50 में दी गई है, इसलिए संसद संबंधित राज्यों में खनन पर कर लगाने के लिए अपनी विधायी शक्तियों का उपयोग नहीं कर सकता है।
भोज वेटलैंड से छिन सकता है रामसर साइट का दर्जा
भोपाल के भोज वेटलैंड को रामसर कन्वेंशन की सूची से हटाए जाने से बचाने के लिए भारत को एक कठिन लड़ाई लड़नी पड़ रही है। रामसर साइट्स ‘अंतर्राष्ट्रीय महत्व के वेटलैंड्स’ की एक वैश्विक सूची है।
गौरतलब है कि भोज वेटलैंड के कैचमेंट एरिया से एक सड़क का निर्माण होना है, जिसकी खबर कुछ लोगों ने रामसर कन्वेंशन को दी। इसके बाद रामसर कन्वेंशन सचिवालय ने वेटलैंड की इकोलॉजी को होनेवाले संभावित नुकसान पर भारत से स्पष्टीकरण मांगा है। जवाब में अब भारत सरकार को सड़क परियोजना को ‘अत्यावश्यक राष्ट्रीय हित’ बताना पड़ेगा। फिर कन्वेंशन द्वारा जमीन पर भारत के दावे की समीक्षा की जाएगी।
भोज वेटलैंड को रामसर साइट का दर्जा अगस्त 2002 में मिला था।
सड़क की धूल के प्रबंधन में खर्च की गई एनसीएपी की 64% फंडिंग: सीएसई
राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) का सर्वाधिक ध्यान सड़क की धूल को कम करने पर केंद्रित रहा है, जबकि प्रदूषण करने वाले वाहनों और अन्य उत्सर्जक स्रोतों के लिए बहुत कम फंडिंग दी गई है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के विश्लेषण में यह बात सामने आई है। एनसीएपी की शुरुआत 2019 में 131 प्रदूषित शहरों के लिए स्वच्छ वायु लक्ष्य निर्धारित करने और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टिकुलेट प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से की गई थी।
कुल 10,566 करोड़ रुपए की धनराशि का 64% सड़क बनाने, चौड़ीकरण, गड्ढों की मरम्मत, पानी का छिड़काव, और मशीनों से सफाई करने आदि में खर्च किया गया है। केवल 14.51% धनराशि का उपयोग बायोमास प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए किया गया है, जबकि वाहनों से होनेवाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए12.63% और औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण के लिए मात्र 0.61% का उपयोग किया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सड़क की धूल होनेवाले प्रदूषण का नियंत्रण फंडिंग के केंद्र में रहा है।
एनसीएपी का लक्ष्य है 2019-20 के स्तर से 2025-26 तक पार्टिकुलेट प्रदूषण को 40% तक कम करना। यह भारत में वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए पहला प्रदर्शन-लिंक्ड फंडिंग कार्यक्रम है।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 2023-24 की रिपोर्ट के अनुसार, एनसीएपी में 131 शहरों के लिए वित्त वर्ष 2019-20 से 2025-26 की अवधि के लिए 19,711 करोड़ रुपए निर्धारित किए गए हैं। इसमें से लगभग ₹3,172.00 करोड़ 82 शहरों के लिए और लगभग ₹16,539.00 करोड़ सात शहरी समूहों और 42 दस लाख से अधिक की आबादी वाले शहरों के लिए आवंटित किए गए हैं। एनसीएपी कार्यक्रम और पंद्रहवें वित्त आयोग दोनों के तहत वित्त वर्ष 2019-20 और वित्त वर्ष 2023-24 (3 मई 2024 तक) के बीच 131 शहरों को लगभग ₹10,566.47 करोड़ जारी किए गए थे।
सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि एनसीएपी के उद्देश्य और लक्ष्य हमेशा सराहनीय रहे हैं, लेकिन इसके तहत ध्यान और निवेश काफी हद तक धूल नियंत्रण पर केंद्रित है, न कि उद्योगों या वाहनों के उत्सर्जन पर।
सुप्रीम कोर्ट ने बीमा नवीनीकरण के लिए प्रदूषण सर्टिफिकेट अनिवार्य करने का आदेश लिया वापस
सुप्रीम कोर्ट ने अपना 2017 का आदेश वापस ले लिया है, जिसमें थर्ड-पार्टी बीमा पॉलिसी के नवीनीकरण के लिए वैध प्रदूषण नियंत्रण (पीयूसी) प्रमाणपत्र अनिवार्य कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि इस निर्देश को अक्षरश: लागू करने की अनुमति दी गई, तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे क्योंकि कुछ वाहन थर्ड-पार्टी बीमा के बिना ही चलते रहेंगे।
कोर्ट का आदेश बीमा कंपनियों की शीर्ष संस्था जनरल इंश्योरेंस काउंसिल (जीआईसी) की याचिका पर आया है। जीआईसी का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अदालत का आदेश मोटर दुर्घटना पीड़ितों के लिए हानिकारक साबित हो रहा है क्योंकि लगभग 55% वाहनों के पास बीमा कवर नहीं है। इससे सड़क दुर्घटनाओं में मुआवजे के दावों के निपटान की मांग करने वाले पीड़ितों के लिए बड़ी कठिनाई उत्पन्न हो रही है।
दुनिया की नदियों में प्रवेश कर रहा है भारत का ठोस कचरा: अध्ययन
एक नए अध्ययन के अनुसार, कूड़े के विशाल लैंडफिल और खराब अपशिष्ट प्रबंधन के कारण भारत दुनिया की नदियों में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले देशों में से एक बन सकता है। इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एप्लाइड सिस्टम एनालिसिस (आईआईएएसए) के अध्ययन के अनुसार, 2020 में दुनिया की नदियों में अपशिष्ट रिसाव का 10% हिस्सा भारत में पैदा हुए ठोस म्युनिसिपल कचरे से आया था।
मोंगाबे की रिपोर्ट के अनुसार, अध्ययन के निष्कर्षों से स्पष्ट है कि भविष्य में जनसंख्या बढ़ने और शहरीकारण धीमा होने की स्थिति में, भारत और चीन की नदियों में अपशिष्ट का रिसाव बढ़ेगा क्योंकि जल निकायों के पास रहने वाले ग्रामीण लोगों की संख्या बढ़ेगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2022 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भारत की 605 नदियों में से आधे से अधिक को प्रदूषित पाया था।
एनजीटी ने खेतों में धान की पराली प्रबंधन के बारे में पंजाब से जवाब मांगा
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने धान की पराली को दूसरी जगह ले जाने की बजाय खेतों में ही प्रबंधित करने के बारे में पंजाब से कई सवाल पूछे हैं। एनजीटी राज्य में पराली जलाने से संबंधित एक मामले की सुनवाई कर रही थी। सर्दियों के मौसम के दौरान दिल्ली में होनेवाले वायु प्रदूषण के लिए अक्सर परली जलाने को दोषी ठहराया जाता है।
एनजीटी अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव की पीठ ने कहा कि ट्राइब्यूनल ने धान की फसल के अवशेषों के उसी स्थान पर (इन-सीटू) प्रबंधन के बारे में विशेष जानकारी मांगी थी क्योंकि यह एक “महत्वपूर्ण तरीका” है जिसमें मशीनों की मदद से बचे हुए डंठल और धान की जड़ों को हटाना शामिल है।
धान की पराली का मूल स्थान पर प्रबंधन मुख्य रूप से मशीनों द्वारा किया जाता है। हालांकि पिछले सप्ताह पारित एक आदेश में पीठ ने कहा कि राज्य सरकार की रिपोर्ट में इन-सीटू प्रबंधन के बारे में कुछ पहलुओं का खुलासा नहीं किया गया है।
एक नई रिपोर्ट बताती है कि ग्रीन इकॉनॉमी की मदद से इस दशक के अंत तक पूरे अफ्रीका महाद्वीप में 33 लाख नई नौकरियां उपलब्ध हो सकती हैं। इनमें 60% नौकरियां कुशल कामगारों को मिलने की संभावना है जिससे मध्य वर्ग में ग्रोथ का ग्राफ ऊपर जा सकता है क्योंकि नवीनीकरणीय ऊर्जा और ई मोबिलिटी के साथ निर्माण क्षेत्र में तेज़ी आयेगी। यह रिपोर्ट महाद्वीप के पांच देशों – इथियोपिया, कांगो, कीनिया, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका से मिले रुझानों पर निर्भर है।
फोरकास्टिंग ग्रीन जॉब्स इन अफ्रीका नाम से प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ज़्यादातर नौकरियां सौर ऊर्जा क्षेत्र में होंगी। डेवलपमेंट एजेंसी एफएसडी अफ्रीका के द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में महाद्वीप की सरकारों और निवेशकों से अपील की गई कि वो ग्रीन एनर्जी में निवेश करें। महत्वपूर्ण है कि अफ्रीका महाद्वीप में दुनिया की कुल आबादी का 20% है लेकिन ग्लोबल एनर्जी निवेश का केवल 3% ही यहां लगता है।
कर्नाटक में मिला 1,600 टन लिथियम का भंडार
केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा है कि परमाणु खनिज अन्वेषण और अनुसंधान निदेशालय (एएमडी) को कर्नाटक में 1,600 टन लिथियम का भंडार मिला है।
मांड्या जिले के मार्लागल्ला क्षेत्र में मिला यह भंडार भारत के नवीकरणीय ऊर्जा उद्योग के लिए महत्वपूर्ण है। सिंह ने बताया कि लिथियम भंडार का मूल्यांकन करने के लिए कर्नाटक के यादगिरी जिले में बुनियादी सर्वेक्षण और सीमित सबसर्फेस ड्रिलिंग भी की गई थी।
छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के कुछ हिस्सों में भी एएमडी की खोज जारी है। एएमडी को ओडिशा, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में पेगमाटाइट बेल्ट के अलावा राजस्थान, बिहार और आंध्र प्रदेश में महत्वपूर्ण अभ्रक बेल्ट मिली हैं।
सोलर सेल, मॉड्यूल बनाने में प्रयोग किए जाने वाले सोलर ग्लास पर लगेगा 10% सीमा शुल्क
वित्तीय वर्ष 2024-25 के आम बजट के अनुसार, सोलर सेल या मॉड्यूल के निर्माण में उपयोग किए जाने वाले सोलर ग्लास पर इस साल 1 अक्टूबर से 10% सीमा शुल्क लगेगा। पीवी मैगज़ीन और अन्य मीडिया संस्थानों बताते हैं कि सोलर सेल या मॉड्यूल के निर्माण में इस्तेमाल किए जाने वाले टिन्ड कॉपर इंटरकनेक्ट पर भी 1 अक्टूबर से 5% सीमा शुल्क लगेगा।
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि “देश में सोलर ग्लास और टिन्ड कॉपर इंटरकनेक्ट की पर्याप्त मैनुफैक्चरिंग क्षमता को देखते हुए, मैं उन्हें दी जाने वाली सीमा शुल्क में छूट नहीं बढ़ाने करने का प्रस्ताव करती हूं”।
नवीकरणीय ऊर्जा सिस्टम इनवर्टर के निर्माण में उपयोग के लिए सक्रिय ऊर्जा नियंत्रक (एईसी) पर सीमा शुल्क में मिलनेवाली छूट भी 30 सितंबर से समाप्त हो जाएगी।
जम्मू-कश्मीर में सरकारी भवनों पर लगाए जाएंगे रूफटॉप सोलर
जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने 400 करोड़ रुपए की एक परियोजना को मंजूरी दे दी है जिसके तहत सभी सरकारी भवनों पर ग्रिड-स्तरीय रूफटॉप सोलर ऊर्जा प्रणाली स्थापित की जाएगी।
एक आधिकारिक प्रवक्ता ने बताया कि उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की अध्यक्षता में संपन्न प्रशासनिक परिषद की बैठक में सभी सरकारी भवनों पर ग्रिड-टाइड रूफटॉप सौzर ऊर्जा प्रणालियों की स्थापना करने की मंजूरी दे दी गई। इस परियोजना के तहत केपैक्स (पूंजीगत व्यय) मोड में 400 करोड़ रुपए की लागत से 70 मेगावाट की कुल क्षमता वाले रूफटॉप सोलर स्थापित किए जाएंगे, 200 मेगावाट क्षमता रेस्को मोड में लगाई जाएगी।
यह परियोजना जम्मू और कश्मीर ऊर्जा विकास एजेंसी (जेकेईडीए) द्वारा कार्यान्वित की जाएगी।
बढ़ाई गई इलेक्ट्रिक मोबिलिटी प्रमोशन योजना की अवधि, होगा 778 करोड़ का निवेश
भारी उद्योग मंत्रालय के अनुसार, इलेक्ट्रिक मोबिलिटी प्रमोशन स्कीम 2024 (ईएमपीएस 2024) को 30 सितंबर, 2024 तक बढ़ा दिया गया है। इसका कुल निवेश 500 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 778 करोड़ रुपए कर दिया गया है। यह कार्यक्रम पहले 1 अप्रैल से 31 जुलाई, 2024 तक चलना तय हुआ था। इसके तहत भारत में ईवी एडॉप्शन को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है।
778 करोड़ रुपए के परिव्यय को दो हिस्सों में बांटा गया है, जिसमें 769.65 करोड़ रुपए इलेक्ट्रिक दोपहिया और तिपहिया वाहनों के डिमांड इंसेंटिव और सब्सिडी के लिए है, जबकि योजना प्रबंधन के लिए 8.35 करोड़ रुपए दिए हैं, जिसमें परियोजना प्रबंधन एजेंसी शुल्क और सूचना, शिक्षा और संचार (आईईसी) गतिविधियां शामिल हैं। कार्यक्रम का संशोधित लक्ष्य 5,60,789 इलेक्ट्रिक वाहनों की सहायता करना है, जिसमें 60,709 इलेक्ट्रिक तिपहिया और 5,00,080 इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहन शामिल हैं। उन्नत तकनीक को प्रोत्साहित करने के लिए इंसेंटिव केवल उन्नत बैटरी से लैस ईवी के लिए उपलब्ध होगा। इस योजना के लिए फंड प्रत्येक परिभाषित श्रेणी में लक्षित वाहनों की संख्या तक ही सीमित है।
इलेक्ट्रिक वाहनों से खुश नहीं है 51% उपयोगकर्ता: सर्वे
दिल्ली-एनसीआर, मुंबई और बेंगलुरु में 500 इलेक्ट्रिक कार उपयोगकर्ताओं पर किए गए एक हालिया सर्वे में सामने आया है कि उनमें से 51 प्रतिशत वापस आईसीई (अंतर्दहन इंजन) वाहनों पर जाना चाहते हैं। सर्वे के अनुसार ईवी उपयोगकर्ताओं की प्रमुख समस्याएं हैं चार्जिंग स्टेशनों की कमी, नियमित मेंटेनेंस में सामने आने वाली परेशानियां और ईवी की ख़राब रीसेल वैल्यू।
आसानी से उपलब्ध, सुरक्षित और चालू चार्जिंग स्टेशनों की कमी 88% ईवी उपयोगकर्ताओं की परेशानी का सबब है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 20,000 से अधिक चार्जिंग स्टेशनों के बावजूद ईवी मालिक मानते हैं कि यह स्टेशन आसानी से नहीं मिलते हैं। ज्यादातर ईवी मालिक 50 किमी की दूरी के भीतर ही यात्रा करते हैं।
जबकि 73% ईवी मालिकों की चिंता मेंटेनेंस की लागत को लेकर है।
फेम-III के तहत सब्सिडी चाहिए तो ईवी में लगाएं घरेलू उपकरण
भारी उद्योग मंत्रालय एक फेज्ड मैनुफैक्चरिंग प्रोग्राम (पीएमपी) पर हितधारकों के साथ चर्चा कर रहा है, जिसमें यदि इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) निर्माताओं को प्रस्तावित फास्टर एडॉप्शन एंड मैनुफैक्चरिंग ऑफ़ (हाइब्रिड एंड) इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (फेम-III) योजना के तहत सब्सिडी चाहिए तो उन्हें अधिक से अधिक घरेलू निर्मित पार्ट्स का प्रयोग करना होगा।
हितधारकों के साथ हालिया चर्चा में, मंत्रालय ने फेम-III में पीएमपी के तहत घटकों की संख्या 18 से घटाकर 12 करने का सुझाव दिया। पावर और कंट्रोल वायरिंग हार्नेस, कनेक्टर, मिनिएचर सर्किट ब्रेकर, इलेक्ट्रिक सुरक्षा उपकरण, लाइटिंग और बॉडी पैनल जैसे घटकों को सूची से हटा दिया गया है, इनका निर्माण अब घरेलू स्तर पर करना होगा।
इसके अलावा, मंत्रालय ने दोहराया कि ईवी के अन्य सभी हिस्सों, घटकों और सब-असेंबली को घरेलू स्तर पर निर्मित और असेंबल किया जाना चाहिए। मंत्रालय ने ऑटोमोबाइल कंपनियों से प्रस्तावित बदलावों पर फीडबैक मांगा है।
आर्थिक मंदी से निपटने के लिए चीन ने दोगुनी की ईवी सब्सिडी
चीन ने अपनी गिरती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए पुराने मॉडलों को बदलने के लिए खरीदी गई इलेक्ट्रिक कारों पर सब्सिडी दोगुनी कर दी है। जो ग्राहक पारंपरिक कारों से इलेक्ट्रिक वाहनों पर स्विच करते हैं, उन्हें प्रति वाहन 20,000 युआन ($2,770) की सब्सिडी दी जाएगी। अप्रैल की शुरुआत में 10,000 युआन की सब्सिडी का प्रस्ताव था लेकिन अब उसे दोगुना कर दिया गया है। साल 2020 के बाद से इलेक्ट्रिक वाहन चीन की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। जून में चीनी ग्राहकों को 856,000 प्लग-इन हाइब्रिड और प्योर इलेक्ट्रिक कारों की सप्लाई की गई, जो पिछले साल के इसी महीने की तुलना में 28.6% अधिक है।
भारत की ऊर्जा क्षमता में कोयले का महत्वपूर्ण स्थान रहेगा: आर्थिक सर्वे
अपनी एनर्जी सिक्योरिटी के लिए भारत ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों का उपयोग करेगा। इस ऊर्जा मिश्रण में ताप ऊर्जा (थर्मल पावर) की एक बड़ी जगह रहेगी जिसमें कोयला मुख्य ईंधन होगा जो देश की बिजली की ज़रूरतों के लिए बेस लोड देगा। यह बात साल 2023-24 के आर्थिक सर्वे में कही गई है। इस इकोनॉमिक सर्वे को सरकार ने बजट के एक दिन पहले पेश किया गया।
सरकार ने कहा कि क्लीन एनर्जी के अपने राष्ट्रीय संकल्पों (एनडीसी) को पूरा करने और अल्प कार्बन उत्सर्जन वाले रास्ते को अपनाते समय भारत ऊर्जा क्षेत्र में किसी तरह के ख़तरों को भी न्यूनतम रखना चाहेगा इसलिए न्यूक्लियर एनर्जी और बायो एनर्जी का प्रयोग करते हुए वह नवीनीकरणीय ऊर्जा के सभी स्रोतों का एकीकरण करेगा। सरकार ने आर्थिक सर्वे में सोलर ईवी पैनलों के लिए आयात पर भारी निर्भरता को रेखांकित किया और कहा कि यह मजबूरी उसके लिए उलझन वाली स्थिति पैदा कर सकती है।
सर्वे में कहा गया है कि सरकार स्वच्छ कोयला प्रौद्योगिकियों को सक्रिय रूप से अपनाने पर भी ध्यान केंद्रित कर रही है। इसमें कोयला गैसीकरण मिशन, कोल बेड मीथेन गैसों का निष्कर्षण, कोयले से हाइड्रोजन की खोज, कार्बन कैप्चर और भंडारण, और वॉशरी के माध्यम से कोयला लाभकारी, आदि, कोयला बिजली संयंत्रों के लिए अल्ट्रा सुपर-क्रिटिकल प्रौद्योगिकियों को बढ़ाने की की आवश्यकता है शामिल है।
साफ ऊर्जा में वृद्धि 2025 तक दुनिया में कोयले की मांग स्थिर रहेगी: आईईए
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की तेजी से बढ़ती हिस्सेदारी के बावजूद वैश्विक कोयले की मांग इस वर्ष और अगले वर्ष अपेक्षाकृत स्थिर रहेगी और उसमें कमी नहीं होगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि जलविद्युत में धीमी गति से सुधार और सौर और पवन ऊर्जा के तेजी से प्रसार, कुछ प्रमुख देशों में बिजली की तेज़ी से बढ़ती मांग को पूरा नहीं कर पा रहे।
दुनिया में कोयला उपभोग से सबसे आगे रहने वाले दो देशों, चीन और भारत में 2023 में ग्रोथ का ग्राफ तेज़ रहा, जिससे वैश्विक कोयले के उपयोग में 2.6% की वृद्धि हुई जो अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। जबकि कोयले की मांग बिजली और औद्योगिक दोनों क्षेत्रों में बढ़ी, मुख्य चालक कम जलविद्युत उत्पादन और तेजी से बढ़ती बिजली की मांग के कारण पैदा हुए अंतर को भरने के लिए कोयले का उपयोग था।
कोल इंडिया ने कोयला-गैसीकरण संयंत्र के लिए बीएचईएल के साथ साझेदारी की
कोयला गैसीकरण और कोयला-से-रसायन के लिए कोल इंडिया ने एक ऐसे बाजार में प्रवेश किया है जो दशकों से मंत्रालयों के बीच विवाद का विषय रहा है। कोल इंडिया ने भारत कोल गैसीफिकेशन एंड केमिकल्स (बीसीजीसीएल) की स्थापना के लिए भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (बीएचईएल) के साथ साझेदारी की है, जिसका इरादा सीआईएल की कोयला खदानों का उपयोग करके लगभग 6,60,000 टन अमोनियम नाइट्रेट उत्पन्न करने का है।
अधिकारियों का अनुमान है कि इस परियोजना पर कुल मिलाकर लगभग 11,782 करोड़ रुपये की लागत आएगी, जिसमें से 1,350 करोड़ रुपये विस्तृत फिज़ियेबिलिटी अध्ययन (डीएफआर) बनाने में खर्च होंगे। सीआईएल और बीएचईएल ने मई 2024 में बीसीजीसीएल को एक संयुक्त उद्यम के रूप में स्थापित करने के लिए सहयोग किया।