भारत की ग्रीन बॉन्ड योजना का फ्रेमवर्क भले ही स्वच्छ प्रौद्योगिकी में निवेश की समस्या को दूर करता हो, लेकिन इसके कुछ दूसरे नुकसान भी हो सकते हैं।
भारत ने पिछले महीने अपनी संप्रभु ग्रीन बॉन्ड योजना की रूपरेखा जारी की। इस योजना की घोषणा सबसे पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2022 के बजट भाषण में की थी। इसका उद्देश्य सरकारी परियोजनाओं को क्लाइमेट एक्शन के आधार पर वित्तपोषित करना है। इस योजना की एक “सराहनीय कदम” के रूप में प्रशंसा हो रही है, लेकिन इसमें कुछ समस्याएं भी हैं।
इस योजना के फ्रेमवर्क में सीएनजी-आधारित सार्वजनिक परिवहन जैसी कई परियोजनाओं को “हरित” परियोजना के अंतर्गत रखा गया है, जो ‘ग्रीन लोन’ प्राप्त करने के योग्य हैं।
सवाल यह है कि क्या इस योजनाओं के तहत परियोजनाओं का चयन एक मजबूत, विश्वस्तरीय, विज्ञान-आधारित प्रक्रिया द्वारा होता है या फिर वित्तीय संस्थानों, नौकरशाही और निहित राजनैतिक स्वार्थों द्वारा।
इन बांड्स का उद्देश्य है हरित परियोजनाओं को कम ब्याज दरों पर वित्तपोषित करने के लिए बाजार निवेश (ऋण) आकर्षित करना, जिन्हें “ग्रीनियम” कहा जाता है।
इस कदम को भारत द्वारा अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता को “मजबूत” करने और वैश्विक जलवायु निवेशकों के बीच “विश्वसनीयता” बनाए रखने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।
कैसे काम करता है ग्रीन बॉन्ड
भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) इसी महीने में ग्रीन बांड्स की पहली किश्त बेचने की तैयारी कर रहा है। निजी कंपनियां प्रमाणित ग्रीन बॉन्ड खरीद सकती हैं और इन बांडों पर आवधिक ब्याज प्राप्त कर सकती हैं। वहीं चयनित परियोजनाओं से सरकार की आय ब्याज सहित बॉन्ड की मूल राशि का भुगतान करने में सहायक होगी।
सरकार का लक्ष्य 16,000 करोड़ ($1.94 बिलियन) रुपए के बॉन्ड जारी करने का है। इस योजना के तहत एक ‘हरित परियोजना’ वह है जो सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के सिद्धांतों के अनुसार ऊर्जा दक्षता को प्रोत्साहित करती है, कार्बन उत्सर्जन और ग्रीनहाउस गैसों को कम करती है, जलवायु लचीलापन और/या अनुकूलन और मूल्यों को बढ़ावा देती है और प्राकृतिक पारितंत्र और जैव-विविधता में सुधार करती है।
मुख्य आर्थिक सलाहकार की अध्यक्षता वाली एक हरित वित्त कार्य समिति, वित्तपोषण के लिए सरकारी परियोजनाओं का चयन करेगी।
हरित वित्तपोषण के योग्य परियोजनाएं हैं:
– सौर, पवन, बायोमास, जलविद्युत ऊर्जा परियोजनाएं (भंडारण के साथ)
– सरकारी भवनों में ऊर्जा की बचत करने वाले प्रतिष्ठान, पब्लिक लाइटिंग व्यवस्था में सुधार के लिए एलईडी, नई कम कार्बन वाली इमारतों के साथ-साथ मौजूदा इमारतों में ऊर्जा-दक्षता रेट्रोफिटिंग।
– बिजली ग्रिड घाटे को कम करने के लिए परियोजनाएं
– जलवायु अवलोकन और पूर्व चेतावनी तंत्र से संबंधित परियोजनाएं
– सार्वजनिक परिवहन में ईवी, इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए सब्सिडी, जिसमें चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण शामिल है
– पर्यावरण की दृष्टि से कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन और जलीय कृषि का स्थायी प्रबंधन; वानिकी प्रबंधन, जिसमें वनीकरण/पुनर्वनीकरण, प्रमाणित जैविक कृषि परियोजनाएं, तटीय और समुद्री पर्यावरण परियोजनाएं शामिल हैं; जैव-विविधता संरक्षण, जिसमें लुप्तप्राय प्रजातियों, आवासों और पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण शामिल है।
बॉन्ड फ्रेमवर्क ‘अच्छा’, लेकिन खतरों से परे नहीं
ओस्लो (नॉर्वे) की अंतर्विषयक पर्यावरण अनुसंधान एजेंसी सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट रिसर्च (सिसेरो) ने भारत के ग्रीन बॉन्ड ढांचे का विश्लेषण किया और इसे इंटरनेशनल कैपिटल मार्केट एसोसिएशन (आईसीएमए) ग्रीन बॉन्ड प्रिंसिपल्स (2021) के अनुरूप पाया। इस फ्रेमवर्क के तहत बॉन्ड पर मूलधन और ब्याज का भुगतान परियोजनाओं के प्रदर्शन के अधीन नहीं है। यानी निवेशकों पर किसी भी प्रकार के परियोजना-संबंधित जोखिमों का बोझ नहीं होता। जोखिम सरकार द्वारा वहन किए जाते हैं, क्योंकि डी-रिस्किंग पूंजी बाजार से हरित निवेश लाने की एक शर्त है।
सिसेरो ने पाया है कि इस योजना की रूपरेखा अच्छी है, लेकिन इसके कुछ नुकसान भी हैं।
सिसेरो ने पाया कि हालांकि इस योजना की रूपरेखा में परियोजनाओं के भौतिक जलवायु परिवर्तन जोखिमों और लचीलेपन पर विचार किया जाएगा, लेकिन स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है की किन मानदंडों का उपयोग करके ऐसा किया जाएगा।
सिसेरो की शेड्स ऑफ ग्रीन रिपोर्ट में पाया गया कि कुछ खर्चों से भविष्य में उत्सर्जन होने का खतरा है, जिसे कार्बन लॉक-इन कहा जाता है। ‘निवेशकों को पता होना चाहिए कि कई परियोजनाओं से लॉक-इन उत्सर्जन का खतरा है, जैसे ऐसी नई इमारतों का वित्तपोषण जिनमें ऊष्मा उत्पन्न करने के लिए जीवाश्म ईंधन या जल का प्रयोग किया जाए; ऐसे खर्च जो अप्रत्यक्ष रूप से थर्मल कोयला बिजली उत्पादन के विस्तार और प्राकृतिक गैस-आधारित सार्वजनिक परिवहन का समर्थन कर सकते हैं,’ रिपोर्ट ने कहा।
यह भी आशंका है कि नवीकरणीय ऊर्जा, जैसे कि पवन और सौर ऊर्जा के विस्तार के लिए सब्सिडी बड़ी कंपनियों को दी जा सकती है जो कोयला-आधारित बिजली उत्पादन में भी भारी रूप से लिप्त हैं।
सीएनजी पर ‘ग्रीन’ लेबल
जिस तरह यूरोपीय संघ ने प्राकृतिक गैस और परमाणु ऊर्जा को ऊर्जा के स्थायी स्रोतों के रूप में वर्गीकृत किया है, भारत ने “अपेक्षाकृत स्वच्छ संपीड़ित प्राकृतिक गैस (सीएनजी)” पर निवेश/व्यय को अनुमति दी है, लेकिन केवल सार्वजनिक परिवहन परियोजनाओं में उपयोग किए जाने पर।
इस फ्रेमवर्क में सीएनजी का उपयोग करने वाले निजी वाहनों के लिए सब्सिडी का कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि विश्लेषकों का कहना है कि भारत में सार्वजनिक परिवहन में बसों और ट्रेनों के साथ-साथ ऑटो, टैक्सी और ऐप-आधारित ओला और ऊबर जैसे व्यक्तिगत परिवहन भी शामिल हैं, और सीएनजी को “ग्रीनियम” के तहत शामिल करने से निवेशक दूर रहेंगे।
आईईईएफए के शांतनु श्रीवास्तव का कहना है कि ‘हरित’ के रूप में वर्गीकरण करने के मानदंडों को कमज़ोर नहीं करना चाहिए और ऐसे संसाधनों को इसमें शामिल नहीं करना चाहिए जिन्हें कुछ निवेशक गैर-हरित की तरह देख सकते हैं, जैसे गैस या परमाणु ऊर्जा, भले ही उनमें तेल या कोयले की तुलना में उत्सर्जन कम होता हो। यदि किसी वर्गीकरण में कम उत्सर्जन वाली संक्रमणकालीन परिसंपत्तियां शामिल हैं, तो उसे ‘ग्रीन’ के बजाय ‘ब्राउन’ कहा जाना चाहिए। ऐसे पेंशन फंड या निजी इक्विटी फंड जिनके लिए हरित परिसंपत्तियों में निवेश अनिवार्य है, गैर-हरित परिसंपत्तियों वाले बॉन्ड में निवेश क्यों करेंगे?
जिन परियोजनाओं की अनुमति नहीं है उनमें प्रमुख हैं जीवाश्म ईंधन का नया या मौजूदा निष्कर्षण, उत्पादन और वितरण — सुधार और संशोधन सहित; या जहां मुख्य ऊर्जा स्रोत जीवाश्म-ईंधन आधारित है; परमाणु ऊर्जा उत्पादन, प्रत्यक्ष अपशिष्ट भस्मीकरण; शराब, हथियार, तम्बाकू, गेमिंग, या ताड़ के तेल उद्योग, और ऐसी नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाएं हैं जो संरक्षित क्षेत्रों से उत्पन्न होने वाले फीडस्टॉक का उपयोग करके बायोमास से ऊर्जा पैदा करती हैं; लैंडफिल परियोजनाएं और 25 मेगावाट से बड़े जलविद्युत संयंत्र।
स्वतंत्र लेखा परीक्षकों की आवश्यकता
इस फ्रेमवर्क के अनुसार, जेएफडब्लूसी के सदस्य परियोजनाओं का मूल्यांकन करेंगे। नीति आयोग के “जलवायु विशेषज्ञ” और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के प्रतिनिधि, पर्यावरण और सामाजिक प्रासंगिकता के मामलों पर जेएफडब्लूसी का मार्गदर्शन करेंगे। वित्त मंत्रालय परियोजनाओं की आर्थिक व्यवहार्यता सहित मूल्यांकन की प्रक्रिया की निगरानी करेगा।
श्रीवास्तव ने कहा कि इस प्रेमवर्क में परियोजनाओं की चयन प्रक्रिया के स्वतंत्र तीसरे पक्ष द्वारा ऑडिट, आय के प्रबंधन और आवंटन और आय के प्रभाव पर रिपोर्टिंग शामिल नहीं है।
इस बारे में भी बहुत कम जानकारी है कि अनावंटित फंड का क्या होगा।
यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या इन बांड्स के द्वारा मौजूदा परियोजनाओं का वित्तपोषण किया जा सकता है। श्रीवास्तव ने चेतावनी दी कि जिन कॉरपोरेट्स ने ग्रीन बांड्स लिए हैं, उन्होंने मौजूदा परियोजनाओं का पुनर्वित्तपोषण करने के लिए भारी मात्रा में इसका इस्तेमाल किया है। फ्रेमवर्क यह भी स्पष्ट रूप से नहीं बताता है कि बॉन्ड आय का उपयोग पुनर्वित्तपोषण की तुलना में वित्तपोषण के लिए किया जाएगा या नहीं और किस अनुपात में किया जाएगा।
बॉन्ड के मुकाबले टैक्स अधिक कारगर
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग के सहायक प्रोफेसर रोहित आज़ाद के अनुसार, केवल ऋण के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं के वित्तपोषण की अपनी सीमाएं हैं।
बॉन्ड और ऋण का प्रयोग प्रदूषक अपनी ‘ब्राउन’ गतिविधियों में विविधता लाने के लिए कर सकते हैं। यह ग्रीनवाशिंग और उत्सर्जन पर लगाम लगाने में विफल रहते हैं। जो काम कार्बन टैक्स कर सकता है, वह बॉन्ड नहीं कर सकते।
उदाहरण के लिए, यदि निजी क्षेत्र के बड़े उत्सर्जकों पर कर लगाया जाता है, तो उत्पन्न राजस्व का उपयोग उनके उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढांचे को निधि देने के लिए किया जा सकता है, लेकिन ग्रीन बॉन्ड के साथ ऐसा नहीं हो सकता है, आज़ाद ने कहा।
दूसरा, जीवाश्म-ईंधन व्यवसायों के लिए ग्रीन बॉन्ड में निवेश करना या नवीकरणीय ऊर्जा कंपनियों का स्वामी होना आम बात है। “ऐसी कंपनियों के ब्राउन साइड पर टैक्स कहां लगता है? वास्तव में, बॉन्ड से उन्हें अपने पोर्टफोलियो में विविधता लाने में मदद मिलती है, जबकि टैक्स के द्वारा जीवाश्म ईंधन पक्ष को नियंत्रित किया जा सकता है,” उन्होंने कहा।
अंत में, सवाल उठता है कि क्या ग्रीन बांड्स को क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है? आखिर यह भी एक तरह से निश्चित रिटर्न वाला लोन ही है जिसमें कोई जोखिम नहीं है। या फिर उन्हें उनके असली रूप में ही देखा जाना चाहिए — ऋण साधन जो डीकार्बोनाइजेशन में निजी निवेशकों को एक हिस्सा देते हैं। हालांकि ऋण के साधन के तौर पर इसमें स्वाभाविक रूप से कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन सारा भार जनता पर देना शायद ही निष्पक्षता के उस सिद्धांत के अनुरूप है जो वैश्विक जलवायु वित्त की एक आवश्यक विशेषता है।