केंद्र सरकार अपने मौजूदा स्वास्थ्य और ऊर्जा बजट से महज़ 0.6 प्रतिशत के आवंटन से देश की 39,000 स्वास्थ्य इकाइयों पर सौर ऊर्जा व्यवस्था सुनिश्चित कर सकती है।
हर साल-दो साल बाद अख़बारों में एक ख़बर आती है कि फ़लाने शहर के ढिकाने गाँव के “स्वास्थ्य केंद्र में मोमबत्ती की रौशनी में हुआ प्रसव”। एक-आध बार तो “टॉर्च जला कर हुआ कट्रेक्ट का आपरेशन” भी पढने को मिला है।
ऐसी ख़बरों में कुछ अखबार अगर डॉक्टर की क़ाबलियत का बखान करते हैं, उसके सेवा भाव और समर्पण की बात करते हैं, तो तमाम अखबार डॉक्टर की आलोचना भी करते हैं। लेकिन जिस एहम पहलू पर मीडिया में मुद्दा बनना चाहिए, उस पर शायद ही कभी पढ़ने को मिलता है। और वो है कि टॉर्च या मोमबत्ती जलाने की ज़रुरत ही क्यों पड़ी?
इस सवाल का जवाब इतना जटिल भी नहीं। ज़ाहिर है स्वास्थ्य केंद्र पर बिजली की उपलब्धता नहीं रही होगी।
वैसे इसकी भी तमाम वजहें हो सकती हैं। क्या पता लाल-फीता-शाही के चलते स्वास्थ्य केंद्र का बिजली का बिल न जमा हुआ हो और बिजली काट दी गयी हो। या क्या पता, उस इलाके में शाम से सुबह तक बिजली ही न आती हो। या फिर क्या पता उस स्वास्थ्य केंद्र तक बिजली पहुंची ही न हो।
बात स्वास्थ्य केंद्र की करें तो पहले नज़र कुछ आंकड़ों पर डाल लेना ठीक रहेगा। रुरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स 2018-19 के मुताबिक़ भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था सँभालने के लिए देश में 1,57,411 उप केंद्र हैं, 24,855 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, और 5,335 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। ज़ाहिर है इन सभी स्वास्थ्य इकाइयों पर सर्जरी नहीं होती, लेकिन अब ये स्वास्थ्य केंद्र हैं तो यहाँ इलाज के लिए इन्सान तो आयेगा ही। और इलाज सिर्फ़ इसलिए तो टाला नहीं जा सकता क्योंकि यहाँ बिजली नहीं है।
अब महिला की प्रसव पीड़ा हो या किसी आदमी की तबियत ख़राब हो—ये सब सूरज का उजाला देख कर तो होता नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो कायदे से तो एक स्वास्थ्य इकाई को चौबीस घंटे सक्रिय होना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं। क्यों नहीं होता, इस पर विस्तार से चर्चा हो सकती है। लेकिन फ़िलहाल बात टॉर्च और मोमबत्ती की।
बात स्वास्थ्य इकाई की सक्रियता की हो रही थी। तो भले ही वहाँ एक बार को मौके पर डॉक्टर न हो, लेकिन कम्पाउण्डर या नर्स या एएनएम या आशा की उपस्थिति में कम से कम किसी मरीज़ या गर्भवती को लिटाने के लिए साफ़ सुथरी उजाले वाली व्यवस्था तो ज़रूरी है ही।
मगर इस उजाले पर ही तो अव्यवस्था का अँधेरा छाया है। रुरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स के मुताबिक़ लगभग 3 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और लगभग 25 प्रतिशत ग्रामीण उप केंद्र बिना बिजली व्यवस्था के काम कर रहे हैं। ऐसी सभी स्वास्थ्य इकाइयों को जोड़ें तो पता चलता है कि लगभग 39000 स्वास्थ्य इकाइयों में बिजली व्यवस्था नहीं है।
अब यहाँ ये जान लीजिये कि ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा केंद्र देश की 65 प्रतिशत आबादी की चिकित्सा आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इस त्रिस्तरीय सेवा व्यवस्था के अंतर्गत ये केंद्र आमतौर पर टीकाकरण, प्रसव, बच्चों की देखभाल जैसी सेवाओं के लिए संपर्क का पहला बिंदु होते हैं।
पिछले दस सालों में हेल्थकेयर डिलीवरी में सुधार तो हुआ है, लेकिन इस सबके बावजूद राजस्थान, झारखंड, असम, यूपी, मिज़ोरम, जैसे राज्यों में मातृ मृत्यु दर और टीकाकरण की दरों के सरकारी लक्ष्यों को पूरा होने में मुश्किलें बनी हुई हैं। मुश्किलों की वजह मुख्य रूप से स्टाफ की कमी और आवश्यक उपकरण और बुनियादी ढांचे में कमी है। लेकिन बिजली की अपर्याप्त और अनियमित आपूर्ति भी महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सेवा उपकरणों के कामकाज को बाधित करती है। अँधेरे कमरों में, बिना बिजली सप्लाई के, स्वास्थ्यकर्मी कितना इलाज कर पाएंगे? शायद इसी वजह से उनकी उपस्थिति नहीं सुनिश्चित हो पा रही हो।
अब ज़रा ध्यान दीजियेगा। इन-पेशेंट और आउट-पेशेंट सेवाओं के अलावा, इन स्वास्थ्य केंद्रों द्वारा प्रदान की जाने वाली दो सबसे महत्वपूर्ण सेवाएं, जहाँ नियमित और विश्वसनीय विद्युत् आपूर्ति की आवश्यकता होती है, वो हैं प्रसव और टीकाकरण। और जो प्रसव रात में होते हैं, उनमें माँ के आराम के लिए लाईट और पंखों की ज़रूरत होती है। इसके अलावा, जब एक बच्चा पैदा होता है, तो तमाम बार उसके बेहतर स्वास्थ्य के लिए रेडिएंट वार्मर्स की ज़रूरत होती है। ये एक बेहद सरल सा उपकरण है लेकिन इसके लिए भी बिजली चाहिए।
बात टीकों की करें, तो अधिकांश टीकों को 4 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रखा जाना चाहिए। इसके लिए भी बिजली की नियमित आपूर्ति की आवश्यकता होती है। इसके अलावा सर्जरी के यंत्रों का विसंक्रमण करने वाले आटोक्लेव के लिए भी बिजली चाहिए।
लेकिन बिहार, असम, और झारखण्ड में तो लगभग 65 प्रतिशत उप केंद्र बिना बिजली सप्लाई के काम करते हैं और अपनी सीमा और संसाधनों से ज़्यादा बड़ी जनसंख्या को सेवा देते हैं। और जहाँ कहीं बिजली आती भी है, वहां या तो नियमित नहीं है और या फिर वोल्टेज में फ़्लक्चुएशन इतना है कि उपकरणों के ख़राब होने का डर बना रहता है।
याद रहे, ये 2020 है। ये प्राचीन काल नहीं जहाँ वैद और हकीम अँधेरी गुफाओं और कमरों में बैठ कर जड़ी बूटी पीस कर दवाएं बना रहे हों। ये डॉक्टर और नर्स बल्ब और ट्यूब लाइट की रौशनी में मॉडर्न मेडिसिन पढ़ कर आये हैं। इन्हें बिजली के उपकरणों की मदद से मर्ज़ पकड़ना और फिर इलाज करना आता है। इन्हें स्वास्थ्य इकाई पर रोकना है, तो कुछ तो मॉडर्न करना ही पड़ेगा। लेकिन जब न बिजली है न डॉक्टर, तो ऐसे हालात में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हो भी तो भला कैसे?
इस सवाल का जवाब देते हुए, ऊर्जा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय, देश के लगभग 20 बुद्धिजीवियों, उद्यमियों, और विशेषज्ञों ने सरकार को दो महीने पहले, एक खुला पत्र लिखा। इन सबने मुख्य रूप से सुझाव दिया कि भारत में जिन 39,000 स्वास्थ्य केन्द्रों पर बिजली व्यवस्था नहीं सुनिश्चित हो पाई है, वहाँ सौर ऊर्जा की मदद से बिजली व्यवस्था सुनिश्चित की जाये।
इन बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों ने बात की है डीसेंट्रिलाइज्ड रेन्युब्ल एनेर्जी की और बताया है कैसे ये एक गेम चेंजर साबित हो सकती है। सरल शब्दों में समझाया जाये तो इन बुद्धिजीवियों ने वक़ालत की है रिन्युबल एनेर्जी की ऐसी व्यवस्था जिसमें स्वास्थ्य इकाई अपनी बिजली ज़रूरतों के लिए बिना पारंपरिक बिजली कनेक्शन के भी सक्रिय रह सके। और सरल भाषा में कहें तो सोलर पैनल लगा कर बिजली व्यवस्था बनाने की बात की है।
इन सब ने वैसे मुख्य रूप से चार बातें कहीं हैं। इन चार बातों पर अगर सरकार गौर करे तो स्थितियां सुधर सकती हैं। ये बातें हैं:
- छतीसगढ़ की तर्ज़ पर रुरल क्लिनिक्स को सोलराइज़ करना शुरू किया जाये;
- वित्तीय वर्ष 2020-21 में स्वास्थ्य और ऊर्जा के कुल बजट के महज़ 0.6 प्रतिशत को इस काम के लिए अलग कर लिया जाये तो इन स्वास्थ्य इकाइयों को सोलाराइज़ किया जा सकता है;
- मौजूदा संसाधनों की मदद से लम्बे समय के लिए कारगर सिस्टम को स्थापित किया जा सकता है, और,
- नवाचार को बढ़ावा दिया जाये जिससे सस्ते, बेहतर, और एनेर्जी एफिशिएंट मेडिकल इक्विपमेंट बनाए जा सके
अपनी विस्तृत प्रतिक्रिया देते हुए, इस खुले पत्र को लिखने वालों में से एक, हेल्थी एनेर्जी इनिशिएटिव (इंडिया) की श्वेता नारायण, कहती हैं, “बदलते मौसम और चरम मौसम की घटनाओं की वास्तविकताओं को देखते हुए, स्वास्थ्य जैसी आवश्यक सेवाओं के लिए सौर ऊर्जा आत्मनिर्भरता प्राप्त करना महत्वपूर्ण है। जन स्वास्थ्य व्यवस्था और ख़ास तौर से स्वास्थ्य संकट के दौरान बेहतर परिणाम उत्पन्न करने के लिए, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों को सोलाराइज़ करना एक महत्वपूर्ण कदम होगा।”
इस पत्र में छतीसगढ़ का विशेष उल्लेख करते हुए बताया गया है कि राज्य में सौर उप-केंद्रों के हाल के अनुभव से पता चलता है कि छत के फोटो वोल्टायिक पैनल और बैटरियों को जोड़ने के साथ स्वास्थ्य सेवाओं में काफी सुधार हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य देखभाल के बेहतर परिणाम (विशेषकर मातृ और नवजात शिशु के लिए) आये, जिससे न सिर्फ़ संवेदनशील चिकित्सा उपकरणों की सुरक्षा हुई, धन की बचत भी हुई। इसी प्रकार भारत को ग्रामीण क्लीनिकों के लिए ऐसी स्वच्छ ऊर्जा व्यवस्था स्थापित करने में, प्रति व्यक्ति सिर्फ $ 0.37 अमरीकी डालर का खर्च आयेगा। मतलब तीस रूपये प्रति व्यक्ति से भी कम का खर्च।
ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों पर बिजली न होने के इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखते हुए केंद्र सरकार ने पहले कहा है कि उसके द्वारा चलाई गयी सौभाग्य योजना का फोकस क्योंकि सिर्फ़ घरों पर था, इसलिए उसके अंतर्गत घर तो सभी आच्छादित हो गए, लेकिन कुछ स्वास्थ्य इकाइयाँ छूट गयीं।
अब जो हुआ सो हुआ। लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं कि भूल को सुधारा नहीं जा सकता। केंद्र सरकार अगर चाहे, तो अब भी अपने मौजूदा स्वास्थ्य और ऊर्जा बजट के महज़ 0.6 प्रतिशत से इन स्वास्थ्य इकाइयों को ऊर्जा के लिए आत्मनिर्भर बना सकती है। इस आत्मनिर्भरता से न सिर्फ़ आज हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर होगी, इससे हमारे देश का कल भी बेहतर होगा।
दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
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