अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत में 2030 तक 450 गीगावॉट क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है। इस लक्ष्य को पूरा करने में सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी 290 गीगावाट होगी। यानी 60 फीसदी। अगर अभी से देखा जाए तो देश के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पाने के लिए सरकार के पास महज 10 साल का समय बचा है। इस लक्ष्य को पाने के लिए हर साल 25 गीगावॉट क्षमता का सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित करना होगा।
इस लक्ष्य को पाने के लिए भारत को अपने वैश्विक स्तर पर जरूरी उपकरणों के साथ-साथ संयंत्रों को बनाने के लिए जरूरी खनिजों की आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी।
इससे पहले भारत ने वर्ष 2015 में अक्षय ऊर्जा को लेकर एक लक्ष्य निर्धारित किया था। इसमें साल 2022 तक 175 गीगावॉट क्षमता के संयंत्र स्थापित करना था। इसमें 100 गीगावॉट क्षमता सौर ऊर्जा की होनी थी। वर्तमान में भारत में 95 गीगावॉट की अक्षय ऊर्जा स्थापित की जा चुकी है और इसमें 40.5 गीगावॉट सौर ऊर्जा शामिल है।
बावजूद इसके कि भारत ने सौर ऊर्जा के क्षेत्र में काफी तरक्की की है, आने वाला समय इस क्षेत्र के लिए चुनौतियों से भरा है।
मनोज गुप्ता, फॉर्टम इंडिया के सोलर एंड वेस्ट टू एनर्जी के वाइस प्रेसिडेंट मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “भारत 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य पा सकता है, लेकिन अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है।” कंपनी फॉर्टम इंडिया का संबंध अक्षय ऊर्जा की परियोजनाओं से है।
“इस लक्ष्य को पाने के लिए भारत को 250 गीगावॉट से अधिक क्षमता अगले 10 साल में हासिल करना होगा। इसके लिए हर साल 25 से 30 गीगावॉट क्षमता स्थापित करने की जरूरत होगी, जो कि वर्तमान रफ्तार से दोगुनी है। ऐसा करना आसान नहीं होगा,” गुप्ता कहते हैं।
उन्होंने कहा कि पिछले पांच साल में भारत में करीब 34 गीगावॉट सौर ऊर्जा की क्षमता हासिल हुई है।
“हमारे देश में सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने के लिए जरूरी उपकरण बनाने की सालाना क्षमता 10 गीगावॉट प्रति वर्ष की है। यह लक्ष्य प्राप्ति के लिए बढ़ी मांग को पूरा करने में काफी नहीं होगा। हमने वर्ष 2015 से 2019 तक देश की जरूरत पूरा करने के लिए 80 फीसदी संयंत्र आयात किए,” गुप्ता ने बताया। उन्होंने कहा कि सोलर सेल और मॉड्यूल आयातित करने पर पिछले पांच वर्ष में तकरीबन 12.4 बिलियन डॉलर (वर्तमान में करीब 90 हजार करोड़ रुपए) खर्च हुए।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस रफ्तार से सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता में वृद्धि की बात करते हैं उसके लिए हर साल लाखों सोलर मॉड्यूल की जरूरत होगी और इसके लिए जरूरी उपकरण और बैटरी की सप्लाई भी सतत होनी जरूरी है।
ब्रिज टू इंडिया (बीटीआई) के अक्षय ऊर्जा के कंसल्टेंट विनय रुस्तगी कहते हैं, “हर एक मेगावाट सोलर ऊर्जा की स्थापित क्षमता प्राप्त करने के लिए तीन हजार सोलर मॉड्यूल की जरूरत होगी।”
“कुछ वर्ष पहले यह जरूरत 4500 सोलर मॉड्यूल की थी, लेकिन मॉड्यूल का आकार और तकनीकी दक्षता बढ़ने की वजह से यह कम होकर तीन हजार रह गई है,” रुस्तगी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। देश में इसे बनाने की क्षमता को बढ़ाने के बावजूद इसके लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ेगा।
आयात पर अत्यधिक निर्भर है भारत का सौर ऊर्जा क्षेत्र
इस साल मार्च में नवीन और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय ने माना कि अन्य देशों की तरह भारत का सौर ऊर्जा क्षेत्र सोलर उपकरणों के आयात पर अत्यधिक निर्भर है।
सरकार ने माना कि कुछ देश अपने यहां निर्मित सोलर मॉड्यूल बेतहासा भारत को निर्यात कर रहे हैं। इसको अंग्रेजी में डम्प करना भी कहते हैं। इससे स्थानीय उत्पादन क्षमता प्रभावित हो रही है। इसे रोकने के लिए सरकार ने आयात पर कर लगाया है।
सरकार के मुताबिक कोविड-19 महामारी की वजह से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार प्रभावित हुआ है जिससे सोलर मॉड्यूल और सोलर सेल का आयात भी प्रभावित हो रहा है।
भारत में सौर ऊर्जा के लक्ष्य को देखते हुए भारत के भीतर ही उपकरण निर्माण की क्षमता विकसित करनी होगी ताकि आयात पर निर्भरता कम से कम हो, मंत्रालय ने कहा।
मंत्रालय ने आगे कहा कि उपकरण निर्माण की क्षमता बढ़ाने के साथ इसके निर्यात की तरफ भी जोर दिया जाएगा, जिससे दूसरे वंचित देश भी ऊर्जा के नवीन स्रोत की तरफ कदम बढ़ा सकें।
भारत में सौर ऊर्जा संबंधी उपकरण बनाने वाले निर्माता कंपनियां चीन जैसे देश से कच्चा माल मंगाती है इसमें कई तरह के धातु शामिल हैं। अगर आपूर्ति प्रभावित रही तो इसके निर्माण पर भी असर होगा।
मई 2021 में आई एक रिपोर्ट का कहना है कि देश में ऊर्जा के क्षेत्र में बदलावों के लिए बड़ी मात्रा में उपकरणों को आयात करने की जरूरत होगी।
सौर ऊर्जा से बिजली पैदा करने के लिए जिस मॉड्यूल की जरूरत होती है उसमें ग्लास, सिलिकॉन, कॉपर, सिल्वर, एल्यूमिनियम, कैडमियम, टेलुरियम, इंडियम, गैलियम और सेलेनियम शामिल हैं।
इन खनिजों का उत्पादन दुनिया के मुट्ठीभर देश में ही होता है, जो कि कई देशों के लिए चिंता का विषय है। उदाहरण के लिए आईईए रिपोर्ट ने पाया कि दक्षिण अफ्रीका और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो में विश्व का 70 फीसदी प्लेटिनम और कोबाल्ट का उत्पादन होता है। चीन में 60 फीसदी दुर्लभ खनीज पाए जाते हैं जिसका उपयोग सौर उर्जा के लिए मॉड्यूल बनाने में होता है।
“इन वजहों से सोलर पैनल, पवन चक्की, बैटरी और इलेक्ट्रिक मोटर बनाने वाली कंपनियां कच्चा माल के लिए आयात पर निर्भर हैं। कोविड-19 की वजह से सप्लाई चेन भी प्रभावित हुआ है,” रिपोर्ट का कहना है।
सौर ऊर्जा के टिकाऊ विकास के लिए भारत को चाहिए दूरगामी नीति
भारत जैसे देश जहां सोलर पैनल बनाने में प्रयुक्त खनीज उपलब्ध नहीं है, वहां अक्षय ऊर्जा के लक्ष्य को पाने के लिए दूरगामी नीतियों की जरूरत होगी। इन नीतियों में चीन जैसे देशों के साथ अच्छे संबंध स्थापित करना भी शामिल हो सकता है।
गैर लाभकारी शोध संस्थान सेंटर फॉर एनर्जी फायनेंस (सीइएफ) से जुड़े ऋषभ जैन बताते हैं, “लक्ष्य के आधार पर खनीजों की जरूरत का आंकलन कर सरकार आने वाले समय में उन देशों के साथ इसकी आपूर्ति को लेकर नीतियां बना सकती है।”
वह सुझाते हैं कि सरकार को सौर उपकरण बनाने में कम से कम खनीज की खपत और खराब उपकरणों के दोबारा प्रयोग को भी प्राथमिकता देनी चाहिए।
बैटरी की जरूरत पर रुस्तगी कहते हैं, “भारत में अबतक इस बात का आंकलन नहीं हुआ है कि 450 गीगावॉट के लक्ष्य को पाने के लिए हमारे पास संसाधनों की कितनी कमी है। इस समय देश में न बैटरी बन रही है न ही खनीज का भंडार है। हम बाहर से बना बनाया सामान आयात कर रहे हैं। सरकार ने बैटरी बनाने की तरफ ध्यान दिया है लेकिन अभी देश में बैटरी नहीं बन रही है।”
इसके अलावा, जिन खनीज का प्रयोग सौर ऊर्जा में होता है, उसका खनन भी पर्यावरण, प्रदूषण और दूसरे सामाजिक कारणों की वजह से प्रभावित हो सकता है।
वर्ष 2019 में आई सिडनी की संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ सस्टेनेबल फ्यूचर (आईएसएफ) की एक रिपोर्ट कहती है कि अगर इन खनीजों के उत्पादन को ठीक से नहीं किया गया तो इसका कुप्रभाव उत्खनन में लगे मजदूर, पानी, खेती और बांधों पर पड़ सकता है।
ये स्टोरी मोंगाबे हिन्दी से साभार ली गई है।
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