दुग्ध उत्पादन उद्योग में सब कुछ दूध की तरह साफ़-सफ़ेद नहीं है। बड़े पैमाने पर इस उद्योग से होते पर्यावरण को नुकसान से लेकर इसके आर्थिक असुंतलन तक पर प्रकाश डालती इस ताज़ा रिपोर्ट के नतीजे आपको अपना नज़रिया बदलने पर मजबूर करते हैं।
हाइलाइट:
– 2015 और 2017 के बीच दुनिया के सबसे बड़े डेयरी निगमों में से 13 का कुल संयुक्त GHG उत्सर्जन 11% बढ़ा है। कुछ निगमों ने 30% की उत्सर्जन वृद्धि की सूचना दी।
– 2017 में, इन कंपनियों ने मिलकर शीर्ष 20 जीवाश्म ईंधन उत्सर्जक, बीएचपी और कॉनकोफिलिप्स, से अधिक जीएचजी का उत्सर्जन किया।
– जैसे-जैसे इन कंपनियों का विस्तार और विकास हुआ, 2015-17 तक दूध उत्पादन में 8 % की वृद्धि हुई, और दुनिया भर में हजारों छोटे-मझोले व्यवसायी बर्बाद हो गए।
– किसानों के बढ़ते कर्ज की वजह से चार प्रमुख डेयरी उत्पादक क्षेत्रों, यूरोप, अमेरिका, न्यूजीलैंड, और भारत, से किसानों की आय में गिरावट दर्ज की गयी।
– कोविड महामारी के इस दौर में ग्रामीण समुदायों और दुग्ध किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए अतिउत्पादन को रोकना और किसानों को उचित मूल्य सुनिश्चित कराना ज़रूरी हो गया है।
ग्रीनहाउस गैसों का ज़िक्र होते ही पहला ख़याल धुआं उगलती फैक्ट्रियों और कारों का ही आता है न? और बात जब गाय, भैंस, दूध, दही वगैरह की हो, तब आपको हरी घास चरते जानवर और उनसे मिलने वाले पौष्टिक दूध का ख्याल आता होगा। है न?
बात सही है। आएंगे भी ऐसे ख्याल। आख़िर कभी इसके इतर किसी ने कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं महसूस की। लेकिन एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के 13 सबसे बड़ी डेयरी निगमों द्वारा वर्ष 2015 से 2017 के बीच ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में औसतन 11 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। बल्कि उनमें से कुछ में तो उत्सर्जन की दर 30 फीसद भी रही। सिर्फ़ इतना ही नहीं, भारत में तो इस उद्योग के पर्यावरण पर पड़े बुरे प्रभाव के साथ साथ इसमें व्याप्त आर्थिक असंतुलन से छोटे किसानों पर काफ़ी मुसीबत आयी।
जी हाँ, न सिर्फ़ गाय-भैंसें, बल्कि बड़े पैमाने पर दुग्ध उत्पादन उद्योग भी पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ाता है। इस बात पर रौशनी डाली है ‘द इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर एण्ड ट्रेड पॉलिसी (आईएटीपी)” की एक ताज़ा रिपोर्ट ने। इस रिपोर्ट, जिसका शीर्षक है ‘बिग डेयरी इज़ ‘मिल्किंग द प्लैनेट: हाऊ बिग डेयरी इज हीटिंग अप द प्लैनेट एण्ड हॉलोइंग रूरल कम्युनिटीज’, में बताया गया है कि वर्ष 2017 में विश्व की कुछ बड़ी दुग्ध उत्पादक कम्पनियों ने मिलकर दुनिया के शीर्ष 20 जीवाश्म ईंधन( फॉसिल फ्यूल)) उत्सर्जकों में से दो उत्सर्जकों, बीएचपी और कोनोकोफिलिप्स, के मुकाबले ज़्यादा ग्रीनहाउस गैसों (GHG) का उत्सर्जन किया।
बात भारतीय परिपेक्ष्य की करें तो इस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की विशालतम सहकारी डेयरी अमूल पर वर्ष 2014 में दामों में आयी गिरावट का सबसे ज्यादा असर पड़ा था, जिसकी वजह से अमूल तथा अन्य प्रमुख भारतीय दुग्ध उत्पादकों को अपने उत्पादों का निर्यात मजबूरन रोकना पड़ा था। नतीजतन, निर्यात के लिये तैयार किये गये मिल्क पाउडर के करीब 75 प्रतिशत हिस्से को फिर से द्रव रूपी दूध में बदलकर उसे घरेलू बाजार में बेचा गया। इस वजह से वर्ष 2015 से 2017 के बीच अमूल के दूध की वार्षिक घरेलू खपत 6.5 मिलियन टन से 9.3 मिलियन टन तक बढ़ गयी। और दूध की इस बेतहाशा आपूर्ति से, मुख्य रूप से, ग्रामीण और असंगठित क्षेत्र में एक या दो गायों के साथ छोटे पैमाने पर काम कर रहे डेयरी किसानों का कारोबार सिकुड़ गया।
सबसे बुरा असर छोटे किसानों पर पड़ा। रिपोर्ट की मानें तो वर्ष 2000 से 2016 के बीच डेयरी कारोबार से जुड़े छोटे किसान परिवारों की तादाद 52से घटकर 45 प्रतिशत रह गयी, वहीं बड़ी संख्या में मवेशी रखने वाले परिवारों के अनुपात में बढ़ोत्तरी हुई। जहां दूध के उत्पादन में बढ़ोत्तरी हुई वहीं,चारे की बढ़ती कीमत के कारण छोटे किसानों को बाजार से बाहर होना पड़ा।
और साल 2015 से 2017 के बीच भारत में अमूल द्वारा सिर्फ़ दुग्ध उत्पादन और खपत में ही बढ़ोत्तरी नहीं हुई। उसके साथ ही ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी 43 फीसद की वृद्धि हुई।
लेकिन वर्ष 2016 में कुछ डेयरी उत्पादों पर 20 प्रतिशत निर्यात सब्सिडी दिये जाने के बाद से दुग्ध उत्पाद निर्यात को विस्तार और स्थिरता हासिल हुई है।
दुग्ध उद्योग के साथ-साथ पर्यावरण के लिए जो संकेट इस रिपोर्ट से मिलते हैं उनके मुताबिक भारतीय बाजार में डेयरी उद्योग में भारी पूंजी लगाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जिसका मतलब है की आने वाले समय में उत्सर्जन, फार्म को नुकसान, क़र्ज़ और ग्रामीण व्यवस्था के विघटन जैसी स्थितियों का उभरना तय है।
भारत भी इस दिशा में बढ़ रहे देशों में शामिल है। सरकार वर्ष 2025 तक दुग्ध प्रसंस्करण की क्षमता में बढ़ोत्तरी की योजना बना रही है। इसके लिये वह ऐसी नीतियां ला रही है जो भारी पूंजी वाले डेयरी औद्योगिक तंत्र के अनुकूल हैं। ज़ाहिर है कि इसका विपरीत असर बेचारे छोटे और मझोले किसानो पर पड़ेगा ।
इस पूरी रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इस रिपोर्ट की लेखिका और IATP यूरोप की निदेशिका, शेफ़ाली शर्मा का कहना है, “सरकारों को दूध की आपूर्ति नियंत्रित करने वाले शक्तिशाली निगमों पर नकैल कसनी चाहिए. ये संस्थाएं छोटे किसानों को तो खलनायक घोषित करा देते हैं । सरकार को तो इन संस्थाओं की वजह से पर्यावरण और जन स्वास्थ्य पर पड़े बुरे प्रभाव का मुआवज़ा वसूल करना चाहिए । ” शेफ़ाली आगे कहती हैं, “जहाँ एक ओर डेयरी संस्थान अपना स्वरुप बड़ा करते चले जा रहे हैं, वहीँ आंचलिक परिवेश के छोटे और मझोले किसान पीड़ित होते चले जा रहे हैं । सरकारों को अब ऐसे किसानों को सशक्त करने की सोचनी चाहिए।” बाहरहाल, इस पूरी रिपोर्ट पर गौर किया जाए तो समझ आता है कि अब इस पूरे उद्योग को पर्यवरण के चश्मे से देखने का वक़्त है और ऐसा करने की वजहें भी साफ़ हैं।
सवाल अब ये नहीं कि दुग्ध उत्पादन उद्योग को पर्यावरण–केंद्रित होना चाहिए या नहीं। आज सवाल ये है कि इस दिशा में कितनी जल्दी क़दम बढ़ाये जायेंगे।
दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
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