हद से बाहर: नये शोध बताते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग का ‘बेक्ड इन’ प्रभाव इतना अधिक है कि धरती को बचाने के वर्तमान लक्ष्य अपर्याप्त हैं | Photo: Pinterest

‘बेक्ड इन ग्लोबल वॉर्मिंग’ के आगे बेअसर हैं तापमान वृद्धि रोकने के प्रयास

एक नये शोध में कहा गया है कि ‘बेक्ड-इन ग्लोबल वॉर्मिंग’ का बढ़ता असर तमाम देशों द्वारा तय किये गये उन लक्ष्यों को बेअसर बताने के लिये पर्याप्त है, जो इन देशों ने पेरिस संधि के तहत अब तक तय किये हैं। लगातार गर्म होती धरती में एक स्थिति ऐसी आती है जब सारे ग्रीन हाउस गैस इमीशन रोक दिये जायें तो भी धरती गर्म होती रहती है। इसे ‘बेक्ड-इन ग्लोबल वॉर्मिंग’ या ‘बेक्ड-इन क्लाइमेट चेंज’ कहा जाता है। नेचर क्लाइमेट चेंज नाम के जर्नल में छपा शोध कहता है कि हालांकि अवश्यंभावी  विनाश लीला को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन अगर सभी देश तेज़ी से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन रोकने की दिशा में काम करें तो इसे सदियों तक टाला ज़रूर जा सकता है।

स्थित कितनी ख़तरनाक है इसका अंदाज़ा लगाने के लिये उत्तरी ध्रुव में जंगलों की आग और अटलांटिक के चक्रवाती तूफान जैसी घटनाओं को देखना होगा। साल 2020 को सबसे गर्म साल बनाने में इन कारकों का अहम रोल रहा जबकि इस साल की शुरुआत में अल निना का ठंडा प्रभाव भी था। साल 2020 तापमान के  मामले में 2016 के बराबर रहा और धरती पर अब तक का सबसे गर्म साल बना।  पिछले 6 साल लगातार तापमान के मामले में रिकॉर्ड तोड़ने वाले रहे हैं और 2011-20 तक का दशक दुनिया में सबसे गर्म दशक बन गया है।

जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाली कॉपरनिक्स क्लाइमेट चेंज सर्विस ने जो आंकड़े जारी किये हैं उसमें यह बात सामने आई है। आंकड़े बताते हैं कि पिछला साल 1981-2010 के मुकाबले 0.6 डिग्री अधिक रहा जबकि उद्योगीकरण से पहले के (1850-1900) के स्तर से यह 1.25 डिग्री अधिक रहा। यूरोप का तो ये आधिकारिक रूप से सबसे गर्म साल रहा।  साल 2020 में भी CO2 इमीशन में बढ़त जारी रही।

सैटेलाइट डाटा अलर्ट से मिली जंगल बचाने में मिली मदद

सैटेलाइट डाटा की मदद से मुफ्त अलर्ट ने अफ्रीका में जंगलों का कटान कम किया है। यह बात एक शोध में सामने आई है।  डाउन टु अर्थ मैग्ज़ीन में छपी ख़बर बताती है कि अफ्रीका के 9 देशों में 2016-18 के बीच पहले के सालों के मुकाबले जंगलों के कटान में 18% गिरावट हुई। कैमरून, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक और कांगो इन देशों में शामिल हैं। घाना और आइवरी कोस्ट में प्राइमरी फॉरेस्ट की क्षति साल 2019 में पहले के मुकाबले 50% घटी। साल 2016 में शुरू किये गये अलर्ट ग्लोबल फॉरेस्ट वॉट नाम के इंटरफेस के ज़रिये भेजे गये। यह अलर्ट सिस्टम हर 8 दिन में वन क्षेत्र और प्लांटेशन वाले इलाकों में तस्वीरों की तुलना कर जंगल के कटने पर उन लोगों को अलर्ट भेजता है जिन्होंने इस सेवा का सब्स्क्रिप्शन लिया हो। इस तकनीक की एक बंदिश ये है कि बादलों के लगे होने पर यह उस क्षेत्र में काम नहीं करती।

संरक्षित वन क्षेत्र में जंगलों का कटान सबसे अधिक घटा। जानकारों के मुताबिक या तो भेजे गये अलर्ट से सरकारों को वर्तमान नीति लागू करने में सहायता मिली या फिर इनसे प्रभावी वन संरक्षण नीति बनाने में मदद हुई।  इस शोध में अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के भूमध्य रेखा और उसके आसपास बसे 22 देशों का अध्ययन किया गया  और जानने की कोशिश की गई कि क्या इन अलर्ट की मदद से जंगल कटान रोकने में मदद मिली। जहां अफ्रीकी देशों में सकारात्मक परिणाम दिखे वहीं अमेरिका और एशिया महाद्वीप में संगठनों को दिये गये अलर्ट के बाद भी पेड़ों का कटान नहीं घटा।

यूपी-बिहार में खराब मौसम की सबसे अधिक चोट

मौसम की मार (एक्स्ट्रीम वेदर) के मामले में साल 2020 भारत के दो बड़े राज्यों यूपी और बिहार के लिये सबसे ख़राब रहा। मौसम विभाग ने जो जानकारी दी है उसके मुताबिक तूफान आने, बिजली गिरने और शीतलहर के कारण दोनों ही राज्यों में 350 से अधिक लोग मरे।  आंकड़े बताते हैं कि भारी बारिश और बाढ़ के कारण पूरे देश में पिछले साल कुल 600 लोगों की मौत हुई जिनमें 54 बिहार और 48 यूपी में मरे। इसी तरह बिजली गिरने और तूफान से पूरे देश में 815 लोगों की जान गई जिनमें यूपी के 220 और बिहार के 280 लोग थे। इसी तरह शीतलहर से (1 जनवरी तक) मरने वाले 150 लोगों में 88 यूपी और 45 बिहार के हैं।

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