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प्लास्टिक की डिमाण्ड ढलान पर, पेट्रोकेमिकल का भविष्य ख़तरे में

ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ 7 साल में 75 फ़ीसद से ज़्यादा गिरेगी प्लास्टिक की माँग जिसके चलते तेल में निवेशित $400 बिलियन डूब सकते हैं।

एक बात तो तय है कि मार्किट में पॉलिथीन बैग्स अब कम दिखते हैं। लोगों में कुछ अवेयरनेस भी बढ़ती हुई दिखती है। ऑनलाइन आर्डर किया हुआ खाना भी मंगवाओ तो अब उस टिपिकल प्लास्टिक कन्टेनर में खाना नहीं भेजा जाता। पैकिंग वगैरह में प्लास्टिक जैसे दूसरे मटीरियल दिखने लगे हैं।  लगता है वाक़ई प्लास्टिक के इस्तेमाल पर कुछ लगाम लग रही है।

अगर प्लास्टिक का यूज़ यूँ ही कम होता रहा और उसके बेहतर आप्शन मिलने लगें, तो क्या पता जल्द ही हम नई प्लास्टिक की ज़रूरत ही न पड़े। ऐसा कुछ होगा तो ज़ाहिर है पर्यावरण प्रेमी बेहद ख़ुश होंगे।  लेकिन एक तबका है जो प्लास्टिक की डिमाण्ड घटने से बेचैन हो रहा है। दरअसल प्लास्टिक की मांग में गिरावट होने से तेल में निवेशित $400 बिलियन का भविष्य खतरे में दिखाई दे रहा है।

भूमि उपयोग और ऊर्जा प्रणालियों में वैश्विक स्तर पर बदलाव लाने में कार्यरत, लंदन की संस्था SYSTEMIQ और कार्बन ट्रैकर ने, फ्यूचर इज़ नॉट इन प्लास्टिक शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी कर बताया है कि प्लास्टिक के उपयोग को घटाने के लिए वैश्विक स्तर पर अनुकूल माहौल होने के चलते साल 2027 तक प्लास्टिक की मांग की वृद्धि दर 4 प्रतिशत प्रति वर्ष से घट कर 1 प्रतिशत प्रति वर्ष से भी कम हो सकती है। इस गिरावट के चलते तेल की माँग में ज़बरदस्त गिरावट संभावित है क्योंकि तब वैकल्पिक ऊर्जा का रुख करना तेल के उत्पादन से भी सस्ता होगा।

तेल कम्पनियां हालाँकि इस उम्मीद में हैं, बल्कि चाहती हैं कि प्लास्टिक की डिमांड बढ़े, लेकिन इस ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ ऐसा कुछ नहीं होने वाला।

अब आप सोच रहे होंगे कि तेल उत्पादक प्लास्टिक की डिमाण्ड क्यों बढ़वाना चाहते हैं। तो माजरा कुछ ऐसा है कि प्लास्टिक का उत्पादन तेल के उत्पादन पर निर्भर करता है। मतलब प्लास्टिक की माँग बढ़ेगी तो तेल का उत्पादन भी उसी क्रम में बढेगा।

लेकिन कार्बन ट्रैकर और SYSTEMIQ  की इस ताज़ा रिपोर्ट से पता चलता है कि असल में $400 बिलियन के पेट्रोकेमिकल क्षेत्र के निवेश असल में जोखिम में है। प्लास्टिक की घटती माँग तेल के उत्पादन को महंगा कर देगा।

कार्बन ट्रैकर के एनर्जी स्ट्रैटेजिस्ट और रिपोर्ट लीड लेखक किंग्समिल बॉन्ड, प्लास्टिक और पेट्रोकेमिकल उद्योग के रिश्ते पर रौशनी डालते हुए कहते हैं, “तेल उद्योग प्लास्टिक की शक्ल में जिस खम्बे पर टिका है, उस सहारे को ही हटा दीजिये और फिर देखिये कैसे ढहता है तेल का साम्राज्य।”

बड़े पैमाने पर ओवरकैपेसिटी के चलते पेट्रोकेमिकल उद्योग पहले से ही प्लास्टिक फीडस्टॉक के रिकॉर्ड स्तर की कम कीमतों का सामना कर रहा है। लेकिन इस ओवरकैपेसिटी के बावजूद यह इंडस्ट्री प्लास्टिक की सप्लाई को 25 प्रतिशत से बढ़ाने की सोच रही है और इस सब में $400 बिलियन दांव पर लगे हैं।

प्लास्टिक उद्योग इस वक़्त किसी डिसरप्शन के लिए एकदम तैयार है। ख़ास तौर से इसलिए क्योंकि प्लास्टिक प्रति वर्ष हम सब पर कम से कम $ 1,000 प्रति टन या 350 बिलियन डॉलर की कीमत पर आती है। और इस कीमत का आंकलन होता है जब हम प्लास्टिक से जुड़े कार्बन डाइऑक्साइड और तमाम हानिकारक गैसों से उत्सर्जन और उनसे जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी लागत को सोचते हैं।

लेकिन इस भारी कीमत के बावजूद प्लास्टिक इंडस्ट्री जितना टैक्स नहीं देती उससे ज़्यादा सब्सिडी का लाभ उठा लेती है। और यही नहीं, फिलहाल प्लास्टिक के उपयोग के तरीकों पर भी कोई ख़ास बाधाएं नहीं है। मतलब जिसका जैसे मन कर रहा है वो प्लास्टिक का इस्तमाल कर रहा है।

यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए की कुल उत्पादित प्लास्टिक में 36 प्रतिशत प्लास्टिक का उपयोग केवल एक बार किया जाता है, 40 प्रतिशत पर्यावरण को प्रदूषित करती है और केवल 5 प्रतिशत ही रीसायकिल होती है।

SYSTEMIQ का मानना है कि इस दिशा में समाधान के रूप में प्रौद्योगिकी पहले से ही उपलब्ध हैं। ऐसी प्रौद्योगिकी जो कि सामान्य से कम लागत पर प्लास्टिक के उपयोग में भारी कमी लाने में सक्षम हैं। समाधान की शक्ल में प्लास्टिक का पुन: उपयोग और बेहतर डिजाइन जैसे विकल्प शामिल है।

अपनी बात रखते हुए SYSTEMIQ के प्लास्टिक प्लेटफ़ॉर्म के लीडर और इस रिपोर्ट के सह-लेखक, योनि शिरन, ने कहा, “मौजूदा प्रणाली की जगह कुछ नया करने में भारी लाभ हैं। आप अपनी लागत आधी कर और प्लास्टिक के विकल्पों पर निर्भर हो कर 700,000 अतिरिक्त नौकरियां और 80 प्रतिशत कम प्रदूषण के बीच रह सकते हैं।”

यूरोप और चीन में नीति निर्माता पहले से ही प्लास्टिक कचरे पर लगाम लगाने के लिए कदम उठा रहे हैं।

मसलन यूरोपीय संघ ने जुलाई 2020 में रीसायकल न हुए प्लास्टिक वेस्ट पर €800/टन के कर का प्रस्ताव किया, और चीन में भी कुछ ऐसे ही हाल हैं। भारत भी ऐसा ही कुछ करने की प्रक्रिया में है। चीन में 2018 में पहला बड़ा कदम उठा जब देश ने प्लास्टिक कचरे के आयात और प्रसंस्करण के लिए बड़े पैमाने पर अपने उद्योग – दुनिया का सबसे बड़ा – को बंद कर दिया, और निर्यातकों को घर पर कचरे के मुद्दे को हल करने के लिए मजबूर कर दिया।

यह ताज़ा रिपोर्ट विकसित बाजारों में प्लास्टिक की माँग में ठहराव की बात करती है। प्लास्टिक की मांग में उसी समय से स्थिरता आ रही है जब से बाज़ार प्लास्टिक के नए विकल्पों की तलाश कर रहे हैं। प्लास्टिक के उत्पादन से लेकर उपयोग तक, उसके निस्तारण से लेकर पुनर्नवीनीकरण तक, हर स्टेज में कार्बन उत्सर्जन होता है। बल्कि इस विश्लेषण में पाया गया है कि एक टन तेल के उत्पादन में जितनी कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है उससे लगभग 2 गुना ज्यादा CO2 प्लास्टिक उत्पादन और उपभोग में होती है। अंततः किंग्समिल बॉन्ड कहते हैं, “प्लास्टिक उद्योगपति शायद किसी मुगालते में जी रहे हैं। उन्हें अगर लगता है कि प्लास्टिक की डिमाण्ड बढ़ेगी और इसी बहाने वो बेलगाम हो कर अपने कार्बन उत्सर्जन को दोगुना कर सकता हैं, तो वह भारी भूल कर रहे हैं। भूल इसलिए क्योंकि पूरी दुनिया फ़िलहाल इस उस उत्सर्जन को शून्य करने के लिए एकजुट हो रहा है।”

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