चिंता का सबब: कोरोना के कारण फील्ड रिसर्च में बाधा आ रही है और इससे जलवायु परिवर्तन का असर जानने के लिये की जा रही महत्वपूर्ण मॉनिटरिंग प्रभावित होगी। फोटो – Stripes.com

कोरोना का असर पड़ सकता है क्लाइमेट मॉनिटरिंग पर: रिसर्च

कोरोना महामारी का असर वैज्ञानिकों के फील्ड वर्क पर भी पड़ रहा है। अब इस बात का ख़तरा है कि क्लाइमेट मॉनिटरिंग और रिसर्च पर इसका असर पड़ेगा क्योंकि डाटा इकट्टा करने के बड़े प्रोजेक्ट या तो रद्द कर दिये गये हैं या फिर फिलहाल रोक दिये गये हैं। हालांकि यह लम्बे समय तक चलने वाले रिसर्च प्रोजेक्ट हैं लेकिन वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर महामारी के दुष्प्रभाव लंबे समय तक चले तो मौसम और जलवायु परिवर्तन की रोज़ाना की मॉनिटरिंग पर भी असर पड़ेगा। 

उत्तरी ध्रुव: ओज़ोन परत में दिखा नया छेद

यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने आर्कटिक के ऊपर ओज़ोन की परत में एक नया छेद देखा है जो बनना शुरू हुआ है। हालांकि उत्तरी ध्रुव में ओज़ोन की परत का क्षय सामान्य बात है लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही एक्सट्रीम वेदर की घटनायें और वायुमंडलीय दबाव को इस छेद का कारण माना जा रहा है। वैज्ञानिकों को भरोसा है कि यह होल अप्रैल के अंत तक बन्द हो जायेगा फिर भी यह पर्यावरण के लिहाज से संकट का संकेत माना जा रहा है। इस छेद का क्षेत्रफल 10 लाख वर्ग किलोमीटर है जो दक्षिण ध्रुव में बने 2.5 करोड़ वर्ग किलोमीटर के होल से काफी छोटा है।

जलवायु परिवर्तन: वन्य जीवन पर खतरा

नेचर पत्रिका में छपे एक शोध में दुनिया की उन जगहों को चिन्हित किया गया है जहां ग्लोबल वॉर्मिंग के लगातार बढ़ने से इकोसिस्टम अचानक बिगड़ जायेगा। यह शोध 100×100 किलोमीटर के टुकड़ों (ग्रिड) में की गई और इसके लिये 1850 से 2005 तक के डाटा का इस्तेमाल किया गया है। इस शोध में पक्षियों, स्तनधारियों और सरीसृप वर्ग समेत कुल 30,652 प्रजातियों का अध्ययन किया गया। 

शोधकर्ताओं ने पाया है कि किसी भी ग्रिड में प्रजातियां बढ़ते तापमान के साथ खुद को ढाल पा रही हैं लेकिन एक नियत तापमान के बाद सभी अपने एक साथ अपने असहज़ होने लगीं। इससे निष्कर्ष निकाला गया है कि अगर तापमान को इतना बढ़ाया जाये कि इकोसिस्टम उसके हिसाब से न ढले तो उस क्षेत्र की ज़्यादातर प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगी।

ऑस्ट्रेलिया: ग्रेट बैरियर रीफ को  बड़ा नुकसान

ऑस्ट्रेलिया की विश्वचर्चित ग्रेट बैरियर रीफ (मूंगे की दीवार) को पिछले 5 साल में तीसरा बडा नुकसान हुआ है। जेम्स कुक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के मुताबिक  इस नुकसान की वजह तापमान में बढ़ोतरी बताई जा रही है जिस कारण 2000 किलोमीटर लंबाई में कोरल ब्लीचिंग हुई है। जब तापमान, प्रकाश या पोषण में बदलाव होता है तो प्रवालों पर तनाव बढ़ता है तो वे अपने ऊतकों में रह रहे सहजीवी शैवाल को छोड़ देते हैं। इसका नतीजा है कि रंग-बिरंगे मूंगे की दीवार सफेद रंग में बदल रही है। इसे ही कोरल ब्लीचिंग कहा जाता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि साल 2050 आते आते इस कोरल ब्लीचिंग को रोका जा सकता है लेकिन उसके लिये जलवायु परिवर्तन को रोकना होगा।

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