राजधानी दिल्ली में दो साल तक की गई एक स्टडी बताती है कि प्रदूषण के बढ़ने के साथ-साथ इमरजेंसी रुम में उन बच्चों के संख्या भी बढ़ रही है जिन्हें सांस की तकलीफ है। इस अध्ययन के तहत जून 2017 से फरवरी 2019 के बीच अस्पताल में भर्ती 19,120 बच्चों के डाटा का विश्लेषण किया गया। इसमें पाया गया कि अधिक और मध्यम प्रदूषण स्तर वाले दिनों में सांस की तकलीफ के साथ अस्पताल पहुंचने वाले बच्चों की संख्या कम प्रदूषण वाले दिनों के मुकाबले 21%-28% अधिक थी। बड़े प्रदूषकों के रूप में सल्फर डाइ ऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड की पहचान की गई है। हालांकि अस्पताल में इन भर्तियों का पीएम 2.5 और पीएम 10 में बढ़ोतरी के साथ कोई बड़ा संबंध नहीं दिखा। शोधकर्ताओं का कहना है कि स्वास्थ्य पर पार्टिकुलेट मैटर का हानिकारक प्रभाव तुरंत न दिखना इसकी वजह हो सकती है।
घने प्रदूषण के बीच कोरोना का ग्राफ भी बढ़ा
तेज़ हवा बहने के बावजूद देश को बड़े शहरों में प्रदूषण का ऊंचा स्तर बना हुआ है और कोरोना से हो रही मौतों में भी बढ़ोतरी हो रही है। खतरनाक पीएम 2.5 कणों के ऊंचे स्तर के वजह से सांस के मरीज़ों को खासी तकलीफ हो रही है और फेफड़ों और दिल की बीमारियां बढ़ रही हैं। पिछले हफ्ते पूरे देश में कोरोना के कारण हो रही मौतों में सबसे अधिक 21% राजधानी दिल्ली में हुईं। आंकड़े के मुताबिक 2019 के मुकाबले इस साल अक्टूबर में अधिक प्रदूषण रहा और नवंबर में भी हालात अच्छे नहीं हैं। रिसर्च बताती है कि अधिक प्रदूषण के दिनों में न केवल फ्लू के कारण अस्पतालों में भर्ती मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है बल्कि मरने वालों की संख्या भी अधिक है।
गांवों की हवा भी शहरों जैसी ही प्रदूषित
भारत और अमेरिका का साझा अध्ययन बताता है कि ग्रामीण भारत की हवा बड़े महानगरों से बहुत अधिक साफ नहीं है। आईआईटी – मुंबई और अमेरिका की कोलोरेडो स्टेट यूनिवर्सिटी ने भारत के 6 क्षेत्रों में पीएम 2.5 कणों की गणना की है। गंगा का मैदानी क्षेत्र सबसे अधिक प्रदूषित इलाका है। यहां पाया गया कि पीएम 2.5 का स्तर साल भर 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रहता है। इसी ज़ोन में नॉन-मेट्रो इलाके में प्रदूषण 90 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर दर्ज किया गया।
वैज्ञानिकों का कहना है कि वायु प्रदूषण के मामले में दक्षिण और पूर्वी क्षेत्र भारत के शहरी और ग्रामीण इलाकों में हाल एक सा ही है। दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाकों में पीएम 2.5 की मात्रा 30-50 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर दर्ज की गई जबकि शहरी इलाकों में यह औसतन 50 माइक्रोग्राम थी। रिसर्चरों का कहमा है कि हर साल दिल और फेफड़ों की बीमारी से जूझ रहे 10.5 लाख लोगों की मौत पीछे वायु प्रदूषण का हाथ रहता है। इसमें 69% मौतें शहरी इलाकों के बाहर होती हैं। ग्रामीण इलाकों में करीब 7 लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण से मरते हैं।
ब्रिटेन में 2030 से नहीं बिकेंगी पेट्रोल कारें
ब्रिटेन ने फैसला किया है कि साल 2030 से देश के भीतर पेट्रोल कारों और वैन की बिक्री पर पाबंदी होगी। पहले ब्रिटेन में यह पाबंदी 2035 से लागू होनी थी लेकिन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन इन दिनों “ग्रीन रिवोल्यूशन” का नारा बुलंद किये हुये हैं और 2050 तक उनके देश द्वारा तय नेट ज़ीरो इमीशन के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में इसे एक पहल के तौर पर दिखाना चाहते हैं। ब्रिटेन पिछले साल जी-7 ग्रुप का पहला देश था जिसने नेट ज़ीरो इमीशन हासिल करने के लिये कानून बनाया। ज़ाहिर है कि ब्रिटेन को इसके लिये अपने बिजली उत्पादन के साथ साथ ट्रांसपोर्ट और लाइफ स्टाइल में बड़े बदलाव लाने होंगे और आवाजाही के लिये बैटरी कारों का इस्तेमाल बढ़ेगा। जॉनसन के मुताबिक सरकार ने इसके लिये 1,200 करोड़ पाउंड देने की घोषणा की है और इसका तीन गुना पैसा प्राइवेट सेक्टर कंपनियां लगायेंगी। इस बदलाव से करीब 2.5 लाख कुशल कर्मचारियों को ग्रीन सेक्टर में नौकरियां मिलेंगी।
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