देश के विभिन्न क्षेत्रों से हो रहे पलायन के पीछे जल संकट किसी न किसी रूप में एक कारक है और जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव इसे और कठिन चुनौती बना सकता है।
इसे अच्छा कहें या बुरा लेकिन पिछले साल की तरह इस बार भी कोरोना महामारी के कारण हिल स्टेशनों पर पर्यटकों का दबाव कम रहा जिससे वहां पानी की खास किल्लत नहीं हुई। इससे स्थानीय लोगों के रोज़गार पर चोट ज़रूर पड़ी है लेकिन हर साल अचानक बढ़ी आबादी से जल संसाधनों पर जो दबाव दिखता है वह नहीं दिख रहा। मिसाल के तौर पर इस साल अप्रैल और मई में लॉकडाउन के कारण हिल स्टेशन सूने रहे लेकिन पाबंदियां हटते ही हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों पर पर्यटकों की चहल-पहल साफ दिख रही है।
जल संकट पहाड़ों की नहीं बल्कि पूरे देश की समस्या है। दो साल पहले इसी वक्त चेन्नई में डे-ज़ीरो की स्थिति को कौन भूल सकता है जब करीब 1 करोड़ की आबादी वाले इस मेट्रो शहर के 4 में 3 जलाशय बिल्कुल सूख गये और चौथा समाप्ति की कगार पर था। भारत के तमाम हिस्सों में पानी की समस्या बढ़ रही है। पानी नहीं होता और अगर मिलता है वह कई बार प्रयोग करने लायक नहीं होता। पीने योग्य तो कतई नहीं। पानी की कमी के कारण खेती पर विपरीत असर पड़ता है और देश के कई हिस्सों में लोग कृषि से विमुख हो रहे हैं और रोज़गार के लिये दूसरी जगह पलायन कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन, गरीबी और समानता के मुद्दे पर काम करने वाले संगठन क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया और एक्शन एड ने हाल ही में रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें देश के 5 अलग-अलग क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन प्रेरित पलायन का अध्ययन किया गया है। शोध क्षेत्रों में सुंदरवन (पश्चिम बंगाल), बीड (महाराष्ट्र), केंद्रपाड़ा (ओडिशा), अल्मोड़ा (उत्तराखंड), सहरसा (बिहार) शामिल हैं। इस रिपोर्ट में पाया गया कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जल संकट पलायन और लोगों के जीवन स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव की एक वजह है।
तटों की समस्या
मिसाल के तौर पर सुदूर पूर्व में कई नदियों के मुहाने पर बसे सुंदरवन जल संकट एक अलग ही रूप में दिखता है। पानी की कमी तो नहीं लेकिन जलवायु परिवर्तन से बढ़ते समुद्र जल स्तर के कारण यहां खेतों में खारा पानी भर रहा है जिससे कृषि संभव नहीं है। यह समस्या सुंदरवन से हो रहे पलायन का एक कारण है।
भारत की पूर्वी तटरेखा चक्रवातों का शिकार रही है और ये साइक्लोन खारे पानी को भीतरी हिस्सों में भर कर कृषि भूमि को बर्बाद कर देते हैं। रिपोर्ट याद दिलाती है कि चक्रवात अब पूर्व की ओर खिसक रहे हैं और इनकी अधिकतम मार अब उत्तरी उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के सुंदरवन क्षेत्र में है। तटीय इलाकों में समुद्री जल के भीतर आने की समस्या ओडिशा के केंद्रपाड़ा में भी दिखती है।
बंगाल की खाड़ी के निकट सातभाया (सात गांवों का एक समूह) के एक हज़ार से अधिक निवासी विस्थापित हो चुके हैं। जानकार कहते हैं कि जिस तरह से समुद्र जल स्तर बढ़ रहा है और चक्रवातों की मार बढ़ रही है। सातभाया ग्राम समूह के बाकी लोगों को भी ये जगह छोड़नी ही होगी। जाधवपुर विश्वविद्यालय से जुड़े समुद्र विज्ञानियों ऋतुपर्णा हजरा और तुहिन घोष ने सुंदरवन के पश्चिमी हिस्से पर एक शोध किया जो बताता है कि 1991 से 2011 के बीच यहां कृषि उत्पादकता 32 प्रतिशत घटी है।
घोष कहते हैं कि पूरे सुंदरवन के 70% से अधिक परिवार बेहतर जीविका की तलाश में बाहर चले गये हैं। इनमें से 25 से 30% पश्चिम बंगाल के बाहर गये हैं। इसी तरह चक्रवातों की एक श्रृंखला — जिसमें 1971 का एक चक्रवात, 1999 का सुपर साइक्लोन, 2013 में फाइलिन, 2014 में हुदहुद, 2019 में फणी और बुलबुल — ने लगातार और नियमित रूप से ओडिशा की तटरेखा से लगे इलाकों को बर्बाद किया है और निवासियों के कृषि तथा मछली पालन पर आधारित आजीविका पैटर्न को नष्ट किया है। ज़ाहिर है कई क्षेत्रों में 40 से 50 प्रतिशत तक लोग रोज़गार के लिये पलायन कर चुके हैं।
बारिश का बदलता पैटर्न
इसी तरह बार-बार सूखे के लिये बदनाम महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में बीड़ ज़िले का हाल देखिये। रिपोर्ट बताती है कि उत्तरपूर्वी मानसून के दौरान बारिश के दिनों की संख्या में हाल के वर्षों में कमी आई है। इसलिये 2004-2018 के दौरान अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में बारिश के दिनों की संख्या पहले के वर्षों (1989-2003) के मुकाबले कम थी। पिछले 30 में से 17 साल ऐसे रहे जब सालाना औसतन वर्षा की मात्रा उस अवधि के लिए सामान्य स्तर से कम रही।
यहां स्थानीय निवासी बताते हैं कि 2013, 2016 और 2018 भयंकर सूखे के साल थे। इन वर्षों में भारी संख्या में परिवार काम की तलाश में पलायन कर गए। बेमौसम बारिश और अनावृष्टि के कारण फसल की मात्रा और गुणवत्ता कम होती है। कीड़े लगने और मुरझाने के कारण भी फसल खराब होती है।
उधर पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में स्थितियां कुछ भिन्न हैं। यहां रोज़गार की कमी के अलावा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्या पलायन का प्रमुख कारण रही हैं। इस पर लगातार कम होती बारिश से पशुपालन और कृषि दोनों ही कार्य कठिन हो गये हैं। पहाड़ी ज़िलों में 60% लोग खेती पर निर्भर हैं। तापमान में बढ़ोतरी और बरसात में कमी का ट्रेन्ड साफ दिख रहा है।
उत्तराखंड में पिछले 100 साल का वर्षा और तापमान के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि इस क्षेत्र में बरसात का ग्राफ गिरा है। वैसे 1970 के बाद बदलाव का ग्राफ तेज़ हुआ है। भले ही बरसात में कुल कमी की सालाना दर बहुत कम है फिर भी यह जल संसाधनों पर भारी दबाव डाल रही है। शोध बताता है कि पिथौरागढ़, बागेश्वर, अल्मोड़ा, नैनीताल और चम्पावत जिलों में यह समस्या सबसे अधिक है।
उत्तराखंड राज्य के क्लाइमेट एक्शन प्लान के मुताबिक, “बारिश के ग्राफ में जलवायु परिवर्तन से प्रेरित बदलावों ने कृषि उत्पादकता में अनिश्चितता बढ़ा दी है और बार-बार फसल बर्बाद होने से लोगों की रुचि खेती में खत्म हो रही है। श्रम आधारित पहाड़ी खेती करना मुमकिन नहीं रहा और क्षेत्र में खाद्य असुरक्षा का संकट बढ़ रहा है। इस असर है कि कभी खेती से समृद्ध बड़े-बड़े भूभाग अब बंजर दिखाई देते हैं। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन का असर पर्वतीय कृषि, विविधता और जनहित पर पड़ रहा है”
ज़ाहिर है ऐसे में राज्य से पलायन की रफ्तार बढ़ी है। पूरे राज्य में आज करीब 1,800 गांव ‘भुतहा’ (घोस्ट विलेज) घोषित कर दिये गये हैं। ये ऐसे गांव हैं जहां या तो कोई परिवार नहीं रहता या इक्का दुक्का लोग छूट गये हैं जो कहीं जा नहीं सकते।
सूखा और बाढ़ की मार एक साथ
बिहार के 38 में से 28 ज़िले बाढ़ प्रवृत्त (फ्लड प्रोन) कहे जाते हैं। क्लाइमेट चेंज के कारण कई बार इन्हीं इलाकों को लंबे सूखे का सामना करना पड़ रहा है। मानसून में अकस्मात् परिवर्तनों के कारण यहां एक ही वर्ष में – कभी-कभी एक ही जिले में – बाढ़ और सूखा दोनों देखने को मिलते हैं, जिसके कारण बड़े पैमाने पर फसल नष्ट होती है और गरीबी बढ़ती है।
सहरसा, मधेपुरा, सुपौल और दरभंगा आदि ज़िलों की गिनती राज्य के सर्वाधिक गरीब जिलों में होती है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक सहरसा जिले की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और यहां मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी है। ऐसे में निरंतर बाढ़ (और कई बार सूखा और बाढ़) ने जिले की फसल पैदावार को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। जिसके कारण लोगों को आजीविका के लिए दिल्ली, पंजाब, कोलकाता और मुंबई जैसी जगहों पर पलायन करना पड़ता है।
भारत के लिये खतरे की घंटी
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर के कारण मौसमी अनिश्चिततायें बढ़ रही हैं जिसका सीधा असर कृषि और खाद्य सुरक्षा पड़ेगा। जीडीपी के गिरते ग्राफ और बढ़ती बेरोज़गारी को देखते हुये यह और भी चिन्ता का विषय है। इस लिहाज से भारत के लिये आपदा प्रभावित इलाकों में प्रभावी कदम उठाने होंगे। जल संचयन के तरीकों के साथ पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करने, जंगलों को बचाने, तटीय इलाकों में मैंग्रोव संरक्षण और सिंचाई के आधुनिक तरीके इसमें मददगार हो सकते हैं।
पलायन हमेशा मजबूरी में या परेशानी में उठाया गया कदम नहीं होता। कई बार लोग तरक्की के लिये स्वेच्छा से पलायन करते हैं। पलायन कई बार अनुकूलन (एडाप्टेशन) के रूप में भी देखा जाता है लेकिन जिन इलाकों से लोगों को हटाया जा रहा है उन्हें बसाने के लिये ऐसी जगहें ढूंढना भी चुनौती है जहां उन्हें रोज़गार मिले और वह फिर से विस्थापन को मजबूर न हों।
(डिस्क्लेमर – हृदयेश जोशी भारत में जलवायु परिवर्तन प्रेरित विस्थापन और पलायन पर बनी इस रिपोर्ट के सह-लेखकों में एक हैं)