उत्तराखंड के तिलाड़ी विद्रोह के 92 साल बाद आज भी लोग वनाधिकारों के लिये लड़ रहे हैं। तिलाड़ी कांड को जंगलात क़ानूनों के खिलाफ भारत के पहले बड़े विद्रोह के रूप में जाना जाता है।
करीब 100 साल पहले जिस वक्त महाराष्ट्र में मुलशी पेटा के किसान देश का पहला बांध विरोधी आंदोलन चला रहे थे, सुदूर उत्तर के हिमालयी पहाड़ों में भी जन-संघर्ष मुखर होने लगे थे। यही वह समय था जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में आज़ादी का आंदोलन रफ्तार पकड़ रहा था। अगले एक दशक में उत्तराखंड में जल, जंगल और ज़मीन के लिये आवाज़ तेज़ हुई और इसकी परिणति 30 मई 1930 में हुई जिसे तिलाड़ी विद्रोह या रवाईं आंदोलन के रूप में जाना जाता है। तिलाड़ी विद्रोह टिहरी राजशाही की क्रूरता और जंगल से लोगों को बेदखल किये जाने के खिलाफ था। यह जंगलात क़ानूनों के खिलाफ आधुनिक भारत का संभवत: पहला सबसे बड़ा आंदोलन था।
उत्तराखंड में हर साल तिलाड़ी विद्रोह की बरसी पर जगह जगह सम्मेलन होते हैं और सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवी समूह लेखकों और चिंतकों के साथ भूमि और वन अधिकारों की बात उठाते हैं
वन अधिकार और रियासत की क्रूरता
साल 1815 में गोरखों को हराने के बाद अंग्रेज़ों ने टिहरी को अलग शाही रियासत के रूप में मान्यता दी। गोरखों के खिलाफ युद्ध में अंग्रेज़ों का साथ देने के कारण सुदर्शन शाह को यहां का राजा बनाया गया। यानी उत्तराखंड में जहां पूरा कुमाऊं अंग्रेज़ों के अधीन था वहीं गढ़वाल के दो हिस्से थे। एक अंग्रेज़ों की हुकूमत के तहत ब्रिटिश गढ़वाल और दूसरा हिस्सा टिहरी गढ़वाल जहां राजा का हुक्म चलता था। लेकिन अंग्रेज़ जो भी क़ानून ब्रिटिश कुमाऊं और गढ़वाल में बनाते टिहरी गढ़वाल में उन्हीं कानूनों की नकल होती और राजा जनता पर कठोर भूमि और जंगलात कानून लागू करता गया। रियासत और ब्रिटिश सरकार के इन दमनकारी क़ानूनों के खिलाफ आंदोलन चलते रहे जिनका ज़ोर जनता को प्राकृतिक संसाधनों से दूर करने की कोशिशों के खिलाफ केंद्रित था।
इसी मुहिम का असर था कि 1916 में उत्तराखंड में कुमाऊं परिषद् बनी। आज़ादी के आंदोलन में उत्तराखंड के अधिकांश राष्ट्रीय नेता कुमाऊं परिषद् से ही निकले। लोगों को यह लगता था कि आज़ादी की लड़ाई हमारे स्थानीय हक हकूक के अधिकारों से जुड़ी है। वन अधिकार और जनविरोधी वन क़ानून उन मुद्दों में सबसे ऊपर थे लेकिन तिलाड़ी विद्रोह से पहले अंग्रेज़ों के खिलाफ उत्तराखंड में एक महत्वपूर्ण जंग जीती गई। तब लोगों से बिना कोई पगार दिये जबरन कुली का काम कराया जाता जो कि मानवाधिकार का उल्लंघन था लेकिन 14 जनवरी 1921 को लोगों ने बड़ी एकजुटता से कुली बेगार आंदोलन को सफल बनाया और लोगों को इससे मुक्ति मिली। इसे महात्मा गांधी जी ने ‘रक्त विहीन’ क्रांति कहा।
आंदोलनकारियों पर चलीं गोलियां
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही वन सत्याग्रह का दौर शुरू हो चुका था। इसमें जनता ने कई जगह अंग्रेज़ों द्वारा किये गये वन प्रबंधन का जमकर विरोध किया जिसके तहत जंगलात क़ानून बनाये जा रहे थे और वनों से लोगों के अधिकार छीनकर इन्हें सरकारी वन घोषित किया जा रहा था। अंग्रेज़ों ने जंगल के प्रबंधन के लिये 1927 में वन अधिकार कानून बनाया। इसी दौर में मई 1930 में रियासत के जंगलात और वन कानूनों के खिलाफ यमुना घाटी में बड़ा विरोध प्रदर्शन हुआ। यमुना घाटी में सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता जोत सिंह बिष्ट कहते हैं कि लोगों को उनके हक हकूक से वंचित करने वाली नीतियां ही तिलाड़ी विद्रोह का कारण बनीं।
बिष्ट के मुताबिक, “इतिहास बताता है कि रियासत ने जंगल की सीमा लोगों के घरों तक खींच दी थी। उनके पास खेती, कृषि और पशुओं को चराने का रास्ता नहीं बचा। लोगों में इस बात का बड़ा आक्रोश था कि रियासत जनता को ज़मीन और जंगल से अलग करने के लिये ऐसे कानूनों का सहारा ले रही है जिनका पालन करना संभव नहीं है।”
उत्तरकाशी के तिलाड़ी में 30 मई 1930 को रियासत के वन क़ानूनों का विरोध करने के लिये किसान और ग्रामीण इकट्ठा हुये। टिहरी के राजा के दीवान चक्रधर जुयाल ने आंदोलनकारियों पर फायरिंग करवा दी। कई मारे गये जिनकी सही संख्या को लेकर विवाद है। बहुत सारे लोग जान बचाने के लिये यमुना नदी में कूद गये। इसके अलावा सैकड़ों लोगों को जेल में डाला गया और यातनायें दी गईं। कई लोगों की मौत जेल में भी हुई। आंदलोनकारियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें बाहर से वकील करने की इजाज़त भी नहीं दी गई।
‘कर्मभूमि’ और ‘युववाणी’ जैसे अख़बारों ने इस दमन में मारे गये लोगों की संख्या दो सौ तक बताई है। ‘गढ़वाली’ के संपादक विश्वम्भर दत्त चंदोला को एक साल तक जेल में रहना पड़ा।
वर्तमान का प्रतिबिम्ब
तिलाड़ी के बाद आंदोलनों का एक सिलसिला उत्तराखंड में शुरू हो गया। विशेष रूप से 1942 में सल्ट में हुई क्रांति जिसे ‘कुमाऊं की बारदोली’ भी कहा जाता है। शेखर पाठक कहते हैं कि तिलाड़ी विद्रोह के समय भले ही पर्यावरण संरक्षण की वर्तमान शब्दावली इस्तेमाल न हुई हो लेकिन लोगों को इस बात का पूरा भान था कि जंगल के बने रहने का रिश्ता उनके पानी और कृषि के साथ है क्योंकि यमुना और टोंस घाटी खेती के लिये काफी उपजाऊ थी और आज भी वहां बहुत समृद्ध उपज होती है।
पाठक बताते हैं, “कृषि और पानी के अलावा जंगल का रिश्ता सीधे तौर पर लोगों के पशुचारण से रहा और आज भी है। फिर चाहे वह उनके भेड़-बकरियां हो या गाय-भैंस। इसके अलावा लोगों को कुटीर उद्योग का सामान और खेती के लिये प्राकृतिक खाद भी जंगल से ही मिलती रही। असल बात यही है कि लोगों के जीवन यापन के लिये जहां से साधन मिलते हैं वही वास्तविक इकोलॉजी है।”
आज देश में हर ओर विकास के नाम पर समावेशी जीवन शैली पर हमले हो रहे हैं और आदिवासियों और स्थानीय लोगों को अपनी ज़मीन और जंगलों से बेदखल किया जा रहा है। जानकार कहते हैं कि उत्तराखंड में बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ ‘टिहरी या केदार घाटी बचाओ’ आंदोलन हों या छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में चल रहा प्रतिरोध, ये तिलाड़ी और उसके बाद हुये आंदोलनों की ही याद दिलाते हैं।
पाठक कहते हैं, “जिस तरह हसदेव जैसे जनजातीय क्षेत्रों में लोगों के लिये जंगल पवित्र हैं, वही हाल तब यहां उत्तराखंड में भी था। उत्तरकाशी में (फ्रेडरिक) विल्सन जब जंगलों को काट रहा था तो भी लोगों का उससे विरोध रहा लेकिन तब राजशाही के दमन में उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं था। 1920 के दशक में लोग जंगलों के अधिकारों से वंचित किये जाने पर भले ही विरोध स्वरूप चीड़ के जंगलों में आग लगाते थे लेकिन वही लोग बांज के चौड़ी पत्ती वाले जंगलों को आग से बचाते भी थे। यह लोगों का जंगलों के साथ अटूट रिश्ता बताता है।”
सामुदायिक भागेदारी से हल
देश में हर जगह जंगलों को बचाने के लिये उनके साथ लोगों की सहजीविता सुनिश्चित करना ज़रूरी है। साल 2006 में बना वन अधिकार कानून इसी दिशा में एक कदम था लेकिन अब भी कई जगह आदिवासियों को उनके अधिकार नहीं मिले हैं बल्कि उन्हें जंगलों से हटाया जा रहा है।
उत्तराखंड के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ) और रिटायर्ड आईएफएस अधिकारी आरबीएस रावत कहते हैं हिमालय के जंगल अपनी जैव विविधता के कारण अनमोल हैं । यहां ऊपरी इलाकों में तेंदुये और बाघ हैं तो तराई के क्षेत्र में हाथियों का बसेरा है। यहां कस्तूरी मृग भी हैं और ऑर्किड जैसे दुर्लभ पादप प्रजातियां भी हैं।
रावत के मुताबिक, “तिलाड़ी विद्रोह सामुदायिक भागेदारी की मांग का ही प्रतिबिम्ब है। आज भी सामुदायिक भागेदारी के बिना दुर्लभ हिमालयी वनों को बचाना मुमकिन नहीं है। वन संरक्षण के लिये हम संयुक्त वन प्रबंधन समितियों और वन पंचायतों का सहारा ले सकते हैं। अपने कार्यकाल के दौरान मैंने उत्तराखंड में कई जगह जंगलों को बचाने के लिये जन-भागेदारी की रणनीति अपनाई और सफल रही। देश में बाकी जगह जहां सफल वन संरक्षण हो रहा है वहां सामुदायिक पहल अहम है।”
यह रिपोर्ट मोंगाबे से साभार ली गई है।