मौसम विभाग ने कहा है कि ज़रूरी नहीं कि अल-निनो प्रभाव वाले वर्षों में बारिश कम हो। Photo: Mallika Viegas/Flickr

अल निनो के बावजूद सामान्य रहेगा मानसून: आईएमडी

माना जा रहा था कि अल निनो प्रभाव के कारण इस साल मॉनसून पर असर पड़ सकता है लेकिन मौसम विभाग ने मंगलवार को कहा है कि इस साल मॉनसून  ‘सामान्य’ ही रहेगा। आईएमडी ने जून से सितंबर के बीच पूरे देश में दक्षिण पश्चिम मॉनसून दीर्घावधि औसत (लॉन्ग पीरियड औसत)  का 96% बताया है। 1971 से 2020 तक की बारिश का औसत लॉन्ग पीरियड एवरेज (एलपीए) कहा जाता है। मौसम विभाग के मुताबिक इस अनुमान में +/- 5% की त्रुटि हो सकती है।   

मौसम विभाग से पहले प्राइवेट वेदर फोरकास्टिंग एजेंसी स्काइमेट ने अल निनो प्रभाव के कारण इस साल ‘सामान्य से कम’ (करीब 94%) रहने की भविष्यवाणी की।

अल निनो प्रभाव के तहत प्रशान्त महासागर के पूर्वी मध्यरेखीय हिस्से में समुद्र गर्म होता है जिसका प्रभाव मॉनसून पर देखा जा सकता है। 

मौसम विभाग के निदेशक डी महापात्रा ने कहा कि अल निनो वाले साल बुरे मॉनसून वाले नहीं होते। उन्होंने आंकड़ा दिया कि 1951 से अब तक अल निनो प्रभाव वाले 15 वर्ष हुए हैं जिनमें से 6 साल ऐसे हैं जिनमें ‘सामान्य’ या  ‘सामान्य से अधिक’ बारिश हुई।  

मार्च के दो रूप, दुनिया में रिकॉर्ड गर्म तो भारत में बारिश से तर 

मार्च के इस साल दो रूप दिखे। दुनिया में यह इतिहास का दूसरा सबसे गर्म मार्च रहा तो भारत के कई राज्यों में इस महीने औसत से अधिक बारिश रिकॉर्ड की गई। 

मध्य भारत में तो इस मार्च में औसत से 206% अधिक बरसात हुई। दक्षिण प्रायद्वीपीय क्षेत्र में 107% अधिक बारिश हुई। 1901 के बाद यह सातवां मौका है जब प्रायद्वीपीय क्षेत्र में इतनी बारिश हुई है। मौसम विभाग का कहना है कि मार्च में पूरे देश में सामान्य से 26% अधिक बरसात हुई।

आईएमडी के मुताबिक इस मार्च में औसत अधिकतम तापमान सामान्य से 0.13 डिग्री सेल्सियस अधिक था। वहीं औसत न्यूनतम तापमान सामान्य से 0.59 डिग्री सेल्सियस और औसत तापमान सामान्य से 0.36 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया। 

गर्म होता उत्तरी ध्रुव, शिकारी जीवों के व्यवहार पर दिखता असर  

आर्कटिक पर तापमान वृद्धि का प्रभाव समुद्री जीवों के व्यवहार पर दिख रहा है। पिछले दो दशकों में शिकारी जीवों ने उत्तर की ओर अपनी प्रवास सीमा का विस्तार किया है। जलवायु परिवर्तन और उत्पादकता में वृद्धि इसके पीछे प्रमुख वजहें बताई जा रही है। यह बात होक्काइडो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों और दुनिया के दूसरे शोधकर्ताओं की एक टीम की रिसर्च में सामने आये हैं। 

पिछले दो दशकों में आर्कटिक में मानव जनित जलवायु परिवर्तन के भारी प्रभाव दिखे हैं और यहां तापमान दुनिया के बाकी हिस्सों के मुकाबले दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है।  जून 2020 में साइबेरिया के वर्खोयान्स्क शहर में तापमान 38 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। इसकी पुष्टि विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने भी की थी। यहां जमी समुद्री बर्फ हर साल 13 प्रतिशत की दर से पिघल रही है।    

आदिवासी क्षेत्र में बाक्साइड खनन का प्रभाव कृषि, हवा और पानी पर 

झारखंड में बाक्साइड खनन के कारण वायु गुणवत्ता से लेकर भू-जल तक हो रहा है। मोंगाबे इंडिया में प्रकाशित एक ख़बर के मुताबिक राज्य के गुमला ज़िले में भारी बॉक्साइड खनन से हवा प्रदूषित हो रही है जिसका असर स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।

खनन से उड़ कर आने वाली धूल से किसानों की कृषि भूमि भी खराब हो रही है। कई किसानों की खेती योग्य ज़मीन भी खनन के लिये ली गई और बॉक्साइड दोहन के बाद उस भूमि का भराव मानकों द्वारा नहीं किया जा रहा। 

झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ समेत देश के करीब दस राज्यों में बॉक्साइड निकाला जाता है जिसका प्रभाव मिट्टी, हवा और पानी पर पड़ता है।

रिपोर्ट में जैव विविधता विशेषज्ञ के हवाले से कहा गया है कि ‘खनन की वजह से कई रसायन उत्पन्न होते हैं जो पानी को प्रदूषित करते हैं। साथ ही इस वजह से मिट्टी की जल धारण क्षमता कम होती है।

उन्होंने खदान के पुनर्भराव के सवाल पर कहा कि प्राकृतिक भूमि प्राकृतिक होती है और उसे कृत्रिम तरीके से कभी भी पहले की स्थिति में नहीं लाया जा सकता है’।

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