किसी देश, स्थानीय क्षेत्र या विश्व के किसी भी भूमि उपयोग मानचित्र को देखें तो निश्चित रूप से इसके सूचकांकों की श्रेणियों में से एक ‘बंजर भूमि’ होगी। आंकड़ों के अनुसार भारत के 20% भूभाग को ‘बंजर भूमि’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। अक्सर ऐसी ‘नामित’ बंजर भूमियां सरकारी एजेंसियों की सहायता से डेवलपमेंट लॉबी और हित समूहों द्वारा हड़प ली जाती हैं।
मैंने भारत के विभिन्न स्थानों पर कई स्मरणीय यात्राएं की हैं जिनमें से तीन बेहद खास हैं। यह हैं उत्तर में लद्दाख; पश्चिम में कच्छ का रण (एलआरके) और मध्य भारत में चंबल की वन घाटियां। मुझे लगा कि जैसे उन्हें इकोलोजिस्ट्स के लिए ही बनाया गया है; एक खोजकर्ता का स्वर्ग, एक कवि की स्वप्नभूमि, एक वनवेत्ता की कर्म भूमि, एक नृवंशविज्ञानी (एथनोग्राफर) का स्थल और एक फोटोग्राफर का आह्लाद।
तकनीकी और आधिकारिक बोलचाल में पहले दो को क्रमशः ‘ठंडे’ और ‘गर्म’ रेगिस्तान के रूप में सूचीबद्ध किया गया है, जबकि चंबल के बीहड़ कुख्यात ‘बैडलैंड्स’ हैं, जिनका इस्तेमाल ‘बागी’ कहे जाने वाले स्थानीय डाकू लंबे समय से छुपने के लिए करते आए हैं। लद्दाख आमतौर पर अपनी दुर्गम ऊंचाई (लेह-3,500 मीटर) और अक्षांश (34 डिग्री उत्तर) के कारण ठंडा रहता है, जबकि कच्छ का रण लगभग समुद्र के स्तर की ऊंचाई (7 मीटर) और कर्क रेखा (23 डिग्री उत्तर) पर होने के कारण आमतौर पर गर्म रहता है।
चंबल के बीहड़ गर्म शुष्क से अर्ध-शुष्क जलवायु (26 डिग्री उत्तरी अक्षांश और 150 मीटर ऊंचाई) में नदी जल के तीव्र प्रवाह से मिट्टी का कटाव होने के कारण बने हैं और यह सबसे अधिक चंबल नदी के लंबे जलोढ़ मार्ग पर दिखते हैं जिसपर यह नदी यमुना से मिलने के लिए बढ़ती है।
रेगिस्तानों में वार्षिक वर्षा सामान्यतया सेंटीमीटर की जगह मिलीमीटर में नापी जाती है, जबकि शुष्कता के बावजूद घाटी में मानसून के महीनों के दौरान कम अवधि के लिए ही सही लेकिन भारी बारिश होती है।
भूगोलविदों के अनुसार एक ‘रेगिस्तान’ का निर्माण अपक्षय प्रक्रियाओं और दिन और रात के चरम तापमानों के कारण होता है जिसके परिणामस्वरूप चट्टानें टूट जाती हैं; जबकि ‘खड्डों’ का निर्माण चंबल के क्षेत्र जैसे शुष्क और अर्ध-शुष्क इलाकों में बहने वाली धाराओं द्वारा लगातार ऊर्ध्वाधर कटाव से होता है।
रेगिस्तानों में स्वाभाविक रूप से बहुत कम या ना के बराबर वर्षा होती है। कभी-कभी विशेष स्थानीय स्थितियां उनके रहस्य और सुरम्य परिदृश्य के रूप में उनकी विशिष्टता के लिए जिम्मेदार होती हैं। जैसे कच्छ में हर साल मानसून के दौरान लवण जल अंतर्वेधन, जो अंतःस्रवण और वाष्पन के बाद मृदा और उपमृदा में नमक छोड़ जाता है।
रेगिस्तान और बीहड़ों में विलक्षण वनस्पति और जीव-जंतु पाए जाते हैं — स्तनधारियों से लेकर कीट और स्थानिक घास से लेकर कुछ विशेष झाड़ियां और पेड़ यहाँ-वहाँ पाए जाते हैं। संक्षेप में, समय के साथ प्राकृतिक रूप से विकसित हुए मरुस्थल और बीहड़ अपने आप में एक पारितंत्र हैं और इन्हें इसी रूप में देखा जाना चाहिए और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।
लेकिन यह विडंबना है कि आधिकारिक रूप से अधिकतर लोगों की जानकारी में रेगिस्तान और बीहड़ों को ‘बंजर भूमि’ समझा जाता है — भूमि का बेकार और अनुपजाऊ टुकड़ा जिसे विकसित या कृषि-योग्य बनाया जाना चाहिए या फिर यूएनसीसीडी (संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम अभिसमय, 1994) के अनुसार, जिसकी सक्रिय रूप से ‘रोकथाम’ की जानी चाहिए। यूएनसीसीडी के शब्दों में, ‘यह अभिसमय सरकारों, वैज्ञानिकों, नीति निर्माताओं, निजी क्षेत्र और समुदायों को विश्व की भूमि के पुनर्निर्माण और प्रबंधन के लिए एक साझा दृष्टिकोण की ओर एकजुट करता है।’
असलियत यह है कि स्थानीय निवासी, वैज्ञानिक, शोधकर्ता और विल्डरनेस डॉक्यूमेंटर (उदाहरण के लिए प्रसिद्ध फोटोग्राफर आरती कुमार राव) जैसे जानकार लोग इन स्थानों का पारिस्थितिक, जीविका परक और अनुपजाऊ होने के महत्व को अच्छी तरह से समझते हैं। इन तीन स्थलों में से किसी एक में स्थानीय लोगों के बीच कुछ दिन बिताएं और आप उन नवीन तौर-तरीकों को जानकर चकित रह जिनके ज़रिए इस कठिन और कठोर जलवायु परिस्थितियों में मनुष्यों और गैर-मनुष्यों ने संसाधनों का यथासंभव उपयोग करना सीखा है।
यदि भारत में जंगली गधों की दो प्रजातियां कियांग (एक्वस कियांग) और खर (एक्वस हेमियोनस खर), मुख्य रूप लद्दाख और कच्छ में पाए जाते हैं, तो सबसे दुर्लभ मगरमच्छों में से एक घड़ियाल (गेवियलिस गैंगेटिकस) अभी तक विलुप्त इसलिए नहीं हुआ क्योंकि इसे चंबल नदी और उसके बीहड़ों में सुरक्षित आवास मिलता है। लद्दाख में चांगथांग पठार के चांगपा लोग दुनिया की बेहतरीन पश्मीना ऊन का उत्पादन करते हैं, जबकि कच्छ की अगरिया जनजाति के लोग देश में निर्मित मैदानी नमक का 30% बनाते हैं।
चंबल के बीहड़ों में गहरी जलोढ़ नालियों और घाटियों में मछुआरों के गांव बसते हैं। साथ ही ऊदबिलाव सहित असंख्य वन्यजीव यहां पाए जाते हैं। इन रेतीले स्थानों पर कछुए और घड़ियाल जैसे जीव अपने अंडे देते हैं। इन स्थानों पर मंत्रमुग्ध कर देने वाला सूर्योदय और सूर्यास्त किसी भी अन्य स्थान को टक्कर दे सकता है और एलआरके के करीब ग्रेटर रण की ‘फ्लेमिंगो सिटी’ में हजारों बड़े राजहंसों प्रजनन और घोंसले बनाने के लिए आते हैं। ऐसा शायद दुनिया में यह एकमात्र स्थान है।
इस तथ्य को भी नजरअंदाज न करें कि यहां की भूमि, लोग और वन्यजीव पहले से ही चरम जलवायु (गर्म, ठंड, बाढ़) की परिस्थितियों का अनुभव और अनुकूलन कर रहे हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण अब ‘सामान्य’ स्थिति बनती जा रही है। इसलिए, यह मानवता के हित में है कि यह भूमि विकास की होड़ से अछूती रहे और शेष विश्व के लिए एक जलवायु अनुकूलन मॉडल की तरह सीखने और लाभान्वित होने के लिए कायम रहे।
(मनोज मिश्रा भारतीय वन सेवा के अधिकारी रहे हैं और पर्यावरण पर पिछले कई दशकों से काम कर रहे हैं। यह लेख पहले अंग्रेज़ी में वेबसाइट द डायलॉग में प्रकाशित हुआ और यहां पढ़ा जा सकता है।)
इसका हिन्दी अनुवाद उत्कर्ष मिश्रा ने किया है।
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