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दास्तान-ए-हिमालय: पर्यावरण के साथ हिमालय के समाज और इतिहास का झरोखा

शेखर पाठक की यह पुस्तक हिमालय के कई पहलुओं को एक छत के नीचे समेटने की कोशिश है

हिमालयी क्षेत्र काफी विस्तृत और जैव विविधता से समृद्ध है और भारत के 10 से अधिक राज्यों में यह फैला है जहां देश की पांच करोड़ से अधिक आबादी रहती है। पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील यह क्षेत्र करीब 10 हज़ार छोटे-बड़े ग्लेशियरों का घर है और कई दुर्लभ वनस्पतियों और जड़ीबूटियों के लिये जाना जाता है। कई विराट नदियों का उद्गम स्थल होने के कारण हिम शिखरों को भारत की जल-मीनारें (वॉटर टावर्स) भी कहा जाता है।  

पिछले कुछ दशकों में वैज्ञानिक शोध और व्यावहारिक अनुभव बता रहे हैं कि हिमालय ग्लोबल वॉर्मिंग से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले इलाकों में है। रिसर्च हमें बार-बार चेता रही हैं कि कैसे जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभाव अलग-अलग तरह से धरती का संतुलन बिगाड़ रहे हैं और हिमालय इन प्रभावों के मध्य में है। इसके अलावा विकास परियोजनाओं के नाम पर इंसानी दखल संवेदनशील पहाड़ी ढलानों को और अधिक असुरक्षित बना रहा है। 

ऐसे में हिमालय के प्रति जागरूकता और उसके इतिहास और भूगोल में रूचि जगाने की ज़रूरत है ताकि लोग समझ सकें कि क्यों इस बचाया जाना ज़रूरी है। हिमालयी इतिहास पर पिछले 40 साल से रिसर्च कर रहे शिक्षक, अध्येता और घुमक्कड़ शेखर पाठक की किताब  ‘दास्तान-ए-हिमालय’ एक महत्वपूर्ण और गंभीर दस्तावेज है जो इस पर्वत श्रंखला की कई परतों को खोलती है। 

बहुआयामी खोज 

‘दास्तान-ए-हिमालय’ शेखर पाठक के पिछले चालीस सालों के अनवरत भ्रमण और रिसर्च का हिस्सा है जो इस साल दो हिस्सों में प्रकाशित हुई है। उनका सृजन लेखों और अकादमिक व्याख्यानों की शक्ल में जमा होता गया। पाठक पिछले पांच दशकों अस्कोट-आराकोट यात्रा (यह यात्रा 1974 से लगातार हो रही है और हर 10 साल में एक बार होती है) का हिस्सा रहे हैं। अपनी रिसर्च के लिये उन्होंने नेपाल, भूटान और तिब्बत के दूरदराज़ के इलाकों की दर्जनों यात्रायें करने के साथ तीन बार  कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी की है। 

शेखर पाठक की ये किताब सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन के आसन्न ख़तरों को संबोधित नहीं करती लेकिन  हिमालय के इतिहास, समाज और आंदोलनों का लेखा-जोखा पेश करती है। साथ ही महत्वपूर्ण यात्रा वृत्तांतों और व्यक्तित्वों से परिचय कराती है। इस लिहाज से यह पुस्तक किसी जिज्ञासु के लिये हिमालय गहरी समझ का आकाश खोलती है।   

शेखर पाठक लिखते हैं 

हिमालय में भूकम्प, हिमस्खलन, भूस्खलन, मिट्टी-कटाव, सामान्य या बर्फानी तालों का फट पड़ना, बाढ़, दावानल (जंगलों की आग) आदि स्थानीय प्राकृतिक प्रक्रियाओं के साथ दक्षिण पूर्व तथा मध्य-पश्चिमी एशिया के मौसमों के बदलाव भी तरह-तरह की आपदाओं को जन्म देते हैं। अनेक आपदायें अन्त:सम्बन्धित भी हैं। ये सभी प्राकृतिक प्रक्रियाएं हिमालय के भूगर्भ-विवर्तनिकी, भूगोल और जलवायु से जुड़ी हैं। अन्य अनेक अज्ञात कारण भी इससे जुड़े हो सकते हैं। जैसे सौरमंडल का अन्त:सम्बन्ध या गुरुत्वाकर्षण या पृथ्वी के अपने करीबी ग्रहों से गुरुत्व सम्बन्ध आदि।      

हिमालय: विविधता का सागर 

‘दास्तान-ए-हिमालय’ का सबसे मज़बूत पक्ष यही है कि अध्येताओं के लिये यह विविधताओं का ख़ज़ाना और कई संदर्भ उपलब्ध कराती है। पहले अध्याय में ही हिमालय की सृष्टि से लेकर उसमें मौजूद भ्रंश और दुनिया के तमाम पहाड़ों के भूगर्भशास्त्र का ही ज़िक्र नहीं होता बल्कि एशियाई समाज से हिमालय का रिश्ता यहां की काष्ठकला और मनुष्य केंद्रित परिवहन प्रणाली भी दिखती है। इसी सिलसिले में शेखर पाठक यात्रा लोलुप लेखक राहुल सांकृत्यायन से लेकर पेशावर प्रतिरोध के नायक रहे चन्द्र सिंह गढ़वाली और फिर महात्मा गांधी की शिष्या रही कैथरीन मेरी हाइलामन – जिन्हें भारत में सरला बहन के नाम से जाना जाता है- की कहानी और उनका हिमालय से रिश्ता बताते हैं। 

ये सारी जानकारियां पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की नज़र से हिमालय को समझने वाले जिज्ञासु को समृद्ध करती हैं। दस्तावेज़ के दूसरे भाग में अन्य पहलुओं के अलावा आंदोलनों का इतिहास और हिमालयी क्षेत्र कृषि के अलावा 200 साल की आपदाओं का वर्णन है जो हिमालय की संवेदनशीलता को समझने में मदद करती है। 

संकट के प्रति चेतावनी 

दो हिस्सों लिखी गई और कुल 700 पन्नों में फैली ‘दास्तान-ए-हिमालय’ को बेहतर संपादित किया जा सकता था और कुछ जगह दोहराव टाले जा सकते थे। फिर भी हिमालय के इतने पहलू एक ही जगह पर पढ़ने को मिलना काफी उपयोगी है। किसी पर्यावरण पत्रकार, चिन्तक या कार्यकर्ता के लिये यह जानने का मौका है कि राजनीति में आई गिरावट कैसे पर्यावरण के प्रति लापरवाही और क्षति के लिये ज़िम्मेदार है। कुछ वक्त पहले ही शेखर पाठक की किताब हरी भरी उम्मीद प्रकाशित हुई जो सत्तर के दशक में हुये चिपको आंदोलन का वृत्तांत है। आज हिमालय से हो रहा पलायन जहां संस्कृति और पारिस्थितिकी के लिये ख़तरा है वहीं संवेदनशील ढलानों पर विकास के नाम पर किये जा रहे विस्फोट और पहाड़ों का कटान भी बड़ी चुनौती है। इसके बावजूद इस पर न तो चिपको जैसी सामाजिक चेतना दिखती है और न ही राजनीतिक प्रतिरोध दिखता है। 

पिछले कुछ दशकों में हिमालय की नदियों, जंगलों और ग्लेशियरों पर लगातार हमले हो रहे हैं और आम पहाड़ी के लिये हिमालय में जीविका के साधन नहीं हैं। एक सतत विकास के लिये ज़रूरी है कि पहाड़ के मिज़ाज के हिसाब से कृषि, पशुपालन, बागवानी, पर्यटन और वानिकी को विकसित किया जाये लेकिन अभी हिमालय में एक टिकाऊ विकास के बजाय ग्रोथरेट की अंधी दौड़ ही दिखती है। 

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