इस वर्ष जलवायु महासम्मेलन के मेजबान अज़रबैजान ने वैश्विक कार्रवाई के लिए 14 पहलों की घोषणा की है, जिनमें क्लाइमेट फाइनेंस, हरित ऊर्जा, हाइड्रोजन विकास, मीथेन उत्सर्जन में कटौती आदि बिंदुओं को शामिल किया गया है।
कॉप29 के मनोनीत अध्यक्ष मुख्तार बाबायेव ने सभी पार्टियों और हितधारकों को एक पत्र लिखकर इस ‘एक्शन एजेंडा’ की रूपरेखा का विवरण दिया है और बताया है कि वह कैसे वैश्विक जलवायु प्रयासों और सहयोग को बढ़ावा दे सकते हैं।
अज़रबैजान के इकोलॉजी और प्राकृतिक संसाधन मंत्री बाबायेव ने 16 पेज की इस चिट्ठी में कहा है कि फाइनेंस क्लाइमेट एक्शन का बहुत महत्वपूर्ण अंग है, और यह कॉप29 प्रेसीडेंसी के दृष्टिकोण का केंद्रबिंदु है। इसलिए ‘एक्शन एजेंडा’ तैयार करते समय कार्यान्वयन के साधन प्रदान करने पर विशेष जोर दिया गया है।
‘एक्शन एजेंडा’ के 14 बिंदुओं में क्लाइमेट फाइनेंस एक्शन फंड (सीएफएएफ) महत्वपूर्ण है। इस फंड में जीवाश्म ईंधन उत्पादक देश और कंपनियां स्वैच्छिक रूप से योगदान दे सकते हैं। इस फंड से अडॉप्टेशन, मिटिगेशन और रिसर्च से जुड़े काम किए जाएंगे। इसके तहत विकासशील देशों को प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में मदद करने के लिए रियायती और अनुदान-आधारित धन भी उपलब्ध कराया जाएगा।
फाइनेंस से जुड़ी अन्य पहल है बाकू इनिशिएटिव फॉर क्लाइमेट फाइनेंस, इन्वेस्टमेंट एंड ट्रेड (बीआईसीएफआईटी), जिसका उद्देश्य है हरित परियोजनाओं में निवेश आकर्षित करना और विशेष रूप से विकासशील देशों में नीतिगत प्रगति में सहयोग करना।
इसके अतिरिक्त, ‘कॉप29 ग्लोबल एनर्जी स्टोरेज एंड ग्रिड्स प्लेज’ का लक्ष्य है 2030 तक वैश्विक ऊर्जा भंडारण क्षमता को 1,500 गीगावाट तक बढ़ाना, जो 2022 के स्तर से छह गुना अधिक है। इसमें 2040 तक 80 मिलियन किलोमीटर बिजली ग्रिड को जोड़ना या नवीनीकृत करना भी शमिल है, जो सौर और पवन आदि नवीकरणीय ऊर्जा के भंडारण के लिए जरूरी है।
इसके अलावा क्लाइमेट रेसिलिएंस बढ़ाने और किसानों के सहयोग से जुड़ी पहलें भी इसका हिस्सा हैं। बाबायेव ने कहा है कि कॉप घोषणाओं और प्रतिज्ञाओं के मसौदे सभी पार्टियों और समूहों के साथ साझा किए जाएंगे और उनकी प्रतिक्रिया ली जाएगी, इसके बाद अंतिम मसौदा कॉप29 की वेबसाइट पर पोस्ट किया जाएगा।
हालांकि, कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि मजबूत निगरानी और नीति समर्थन के बिना केवल स्वैच्छिक प्रतिज्ञाओं पर भरोसा करना सही नहीं है।
उधर फाइनेंस के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों में पहले ही विवाद है, जिसपर बाकू में हुई पिछली वार्ता में भी सहमति नहीं बन पाई थी।
विकसित देश चाहते हैं कि एशिया की अधिक उत्सर्जन करने वाली उभरती अर्थव्यवस्थाओं जैसे चीन और अमीर खाड़ी देश भी क्लाइमेट फाइनेंस में योगदान करें। जबकि विकासशील देश यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं, यानि 1992 में यूएन क्लाइमेट संधि अपनाने के समय जिन देशों को औद्योगिक घोषित किया गया था वही क्लाइमेट फाइनेंस दें।
इसी प्रकार, एनर्जी ट्रांज़िशन, कृषि और मानव विकास जैसे विवध मुद्दों पर एक राय बन पाना मुश्किल है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां राष्ट्रीय हित और आर्थिक निर्भरताएं भिन्न-भिन्न हैं।
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