कॉप29: एनसीक्यूजी पर जारी है विवाद

क्लाइमेट फाइनेंस के लिए एनसीक्यूजी के प्रमुख विवरणों पर विकसित और विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेद हैं। क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा से लेकर डोनर्स की संख्या पर विवाद हैं और आम सहमति तक पहुंचना मुश्किल लग रहा है।

अज़रबैजान की राजधानी बाकू में 29वां  वार्षिक जलवायु महासम्मलेन (कॉप-29) शुरू हो चुका है। इस बार क्लाइमेट फाइनेंस की मात्रा तय करने की मांग अहम् है, जिससे विकासशील देशों की तत्कालिक आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

सम्मलेन के दूसरे ही दिन जी77 समूह और चीन ने क्लाइमेट फाइनेंस के न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनक्यूसीजी) पर वर्तमान मसौदे को बातचीत के लिए अयोग्य बताते हुए दृढ़ता से खारिज कर दिया। उन्होंने विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए अनुकूलन (अडॉप्टेशन), शमन (मिटिगेशन) और हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) के लिए $1.3 ट्रिलियन के वार्षिक लक्ष्य की वकालत की। समूह ने डोनर बेस में विकासशील देशों को शामिल करने के प्रयासों का विरोध करते हुए इस बात पर जोर दिया कि केवल विकसित देशों को ही इस लक्ष्य की जिम्मेदारी उठानी चाहिए।

भारत ने भी लाइक माइंडेड डेवलपिंग कंट्रीज़ (एलएमडीसी) समूह के हिस्से के रूप में विकसित देशों से न्यायसंगत वित्तीय सहायता का आह्वान किया। एलएमडीसी ने चिंता जताई कि रिपोर्ट किए गए क्लाइमेट फाइनेंस का लगभग 69 प्रतिशत कर्ज के रूप में दिया गया था, जिससे पहले से ही कमजोर देशों पर वित्तीय बोझ बढ़ गया।

सितंबर में जारी की गई दूसरी आवश्यकता निर्धारण रिपोर्ट (एनडीआर) में कहा गया कि विकासशील देशों को उनके राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) की प्राप्ति में सहायता करने के लिए 2030 तक संचयी रूप से $5.012-6.852 ट्रिलियन डॉलर के क्लाइमेट फाइनेंस की आवश्यकता होगी।

बीते 9 अक्टूबर को बाकू में एनक्यूसीजी पर विभिन्न देशों के मंत्रियों की उच्च-स्तरीय वार्ता आयोजित की गई थी। जिसका कोई उत्साहवर्धक नतीजा नहीं निकला।

विकसित देशों द्वारा क्लाइमेट फाइनेंस की मात्रा पर स्पष्ट सुझाव की कमी के कारण कॉप29 में किसी सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचने में देरी हो रही है। हाल ही में, भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेन्द्र यादव ने मांग की थी कि क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा स्पष्ट की जाए। दूसरे विकासशील देशों ने भी इसका समर्थन किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि बाजार दरों पर दिया जाने वाला कर्ज, वाणिज्यिक शर्तों के तहत दिया जाने वाला प्राइवेट फाइनेंस और आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) या घरेलू संसाधन आदि क्लाइमेट फाइनेंस नहीं है। 

अक्टूबर में बाकू में हुई एनसीक्यूजी की बैठक में, वार्ता के मसौदे को अगले स्तर पर ले जाने के लिए सह-अध्यक्षों द्वारा विकसित संशोधित इनपुट पेपर पर आई प्रतिक्रियाओं पर चर्चा के दौरान विकसित और विकासशील देशों के बीच असहमति खुलकर सामने आई। 

कई बिंदुओं पर विवाद था — एनसीक्यूजी कितना होना चाहिए, उसमें हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) को शामिल किया जाना चाहिए या नहीं, डोनर्स की संख्या,  एनसीक्यूजी की संरचना (सिंगल लेयर या मल्टीलेयर), और क्या प्राइवेट फाइनेंस लाना है या पब्लिक फाइनेंस पर टिके रहना है। लेकिन विवाद का जो मुद्दा  लगातार बना हुआ है और जिस पर आम सहमति बनाना शायद सबसे कठिन होगा, वह है क्लाइमेट फाइनेंस की स्पष्ट परिभाषा। 

बातचीत में जो सबसे महत्वपूर्ण विषय उभर कर आए वह निम्न हैं।

सबके सहयोग की मांग पर मतभेद

विकसित देश लगातार मांग कर रहे हैं कि डोनर्स की संख्या बढ़ाई जाए। यूनाइटेड किंगडम ने कहा कि वह “डोनर बनने के लिए तैयार है, लेकिन जितना फाइनेंस आवश्यक है उसके लिए डोनर्स की वर्तमान संख्या को व्यापक रूप से बढ़ाने की जरूरत है”। इटली ने भी इस बात का समर्थन किया, और कहा कि “अर्थव्यवस्थाएं बदल गई हैं”। कुल मिलाकर, विकसित देशों का मानना है कि हालांकि वे “अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हट रहे हैं”, एनसीक्यूजी “एक सामूहिक लक्ष्य है और इसलिए इसमें व्यापक योगदान होना चाहिए”।

दूसरी ओर, विकासशील देश यूएनएफसीसीसी के समानता के सिद्धांत और सीबीडीआर-आरसी (कॉमन बट डिफ्रेंशिएटेड रिस्पांसिबिलिटीज़ एंड रिस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज, यानि जलवायु संकट से निपटने की साझा जिम्मेदारी लेकिन उत्सर्जन में विभिन्न-स्तरीय योगदान और हर देश द्वारा उसकी क्षमता के आधार पर समर्थन। इन सिद्धांतों का अर्थ है कि जहां जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों की है, वहीं ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन में अधिक योगदान देने वाले और अधिक संसाधनों से संपन्न विकसित देशों को इस प्रयास में बड़ी भूमिका निभानी चाहिए) के साथ-साथ विकसित देशों द्वारा अधिक जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता पर जोर देते रहे। भारत ने कहा कि पेरिस समझौता विकासशील देशों पर फाइनेंस प्राप्त करने के बदले विशिष्ट शर्तें लगाने की अनुमति नहीं देता है।

तकनीकी प्रस्तुतियों में कनाडा और स्विट्जरलैंड जैसे विकसित देशों ने प्रति व्यक्ति आय या संचित या प्रति व्यक्ति उत्सर्जन जैसे संभावित मानदंड सुझाए। स्विट्जरलैंड के अनुसार, वह चाहता है कि ऐसे गैर-विकसित देश जो “दस सबसे बड़े वर्तमान उत्सर्जकों में शामिल हैं और जिनकी प्रति व्यक्ति क्रय शक्ति समता समायोजित सकल राष्ट्रीय आय 22,000 डॉलर से अधिक है“, वह भी इसमें योगदान करें।

इससे सऊदी अरब, चीन और रूस भी उन देशों की सूची में शामिल हो जाएंगे जिन्हें क्लाइमेट फाइनेंस फंडिंग में योगदान देना आवश्यक है। हालांकि, ऐतिहासिक उत्सर्जन जैसे अन्य मानदंडों पर आधारित अध्ययन, चीन और उच्च उत्सर्जन वाली दूसरी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को इससे बाहर रखते हैं।

ब्राज़ील ने “अर्थव्यवस्थाएं बदलने के कारण डोनर्स का बेस बढ़ाने” के इस नैरेटिव का जवाब दिया: “हमने कई पार्टियों से सुना है कि जब हम पेरिस समझौते पर सहमत हुए थे तब से दुनिया बदल गई है, लेकिन हम आपको याद दिला दें कि दुनिया 1945 के बाद से भी बदली है जब हमने अंतर्राष्ट्रीय शासन पर फैसला किया था लेकिन ऐसे मंचों के तहत निर्णायक पार्टियों के दायित्वों में कोई बदलाव नहीं आया है”।

चीन, सिंगापुर और ग्लोबल साउथ के दूसरे देश आपसी सहयोग के मार्गों द्वारा क्लाइमेट फाइनेंस में स्वैच्छिक योगदान देना जारी रखेंगे, लेकिन उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि डोनर बेस को व्यापक बनाने का कोई भी विचार एनसीक्यूजी की मूल भावना के विपरीत है।

इसके अलावा, शोध में पाया गया है कि कई विकासशील देश स्वेच्छा से क्लाइमेट एक्शन के लिए अन्य विकासशील देशों को क्लाइमेट फाइनेंस दे रहे हैं, लेकिन उनके योगदान को काफी हद तक मान्यता नहीं मिली है क्योंकि वे आधिकारिक चैनलों के तहत इसे दर्ज नहीं कराते हैं।

प्राइवेट फाइनेंस पर जोर

एनसीक्यूजी की संरचना की बात करें तो विकसित देश “प्राइवेट फाइनेंस को शामिल करते हुए एक बहुस्तरीय संरचना” की वकालत कर रहे हैं। दूसरी ओर, विकासशील देश इसको लेकर इतना उत्साहित नहीं है। कांगो ने कहा कि एनसीक्यूजी में कम से कम 60% फाइनेंस होना चाहिए, सऊदी अरब ने निजी फाइनेंस को “ख़ारिज” कर दिया।  

हालांकि, बहुस्तरीय ढांचे की समझ को लेकर भी पार्टियों के बीच बड़े मतभेद हैं। 

संरचना पर बहस के जवाब में मुख्य मुद्दे पर ध्यान वापस लाने के प्रयास में ब्राजील ने कहा, “यह बहस हम तब कर सकते हैं जब हम अनुच्छेद 2.1सी पर चर्चा करेंगे। इस बहस की हमें अभी ज़रूरत नहीं है।” उसने यह भी कहा कि “अनुच्छेद 9 पहले से ही वे संरचनाएं मौजूद है जिनके बारे में हमें सोचने की ज़रूरत है” — जिसके मूल में निहित है कि विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को धन दिया जाना चाहिए।

ऐसा माना जाता है कि विकसित देशों के हस्तक्षेप से बातचीत का ध्यान मौजूदा विषय से भटक जाता है, ताकि क्लाइमेट फाइनेंस जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रगति में देरी हो सके। 

बहुपक्षीय विकास बैंकों की भूमिका

विशेषज्ञों का कहना है कि अमीर देशों की योजना बहुपक्षीय विकास बैंकों (बड़े अंतर्राष्ट्रीय बैंक जो विकास परियोजनाओं के लिए कर्ज और अनुदान देते हैं) या अन्य देशों के साथ सीधी साझेदारी के माध्यम से धन मुहैया कराने की है। इन पैसों का उपयोग उन बैंकों द्वारा निजी कंपनियों से अतिरिक्त धन आकर्षित करने के लिए किया जाएगा, जिससे परियोजनाओं के लिए उपलब्ध कुल राशि में वृद्धि होगी।

द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) की प्रतिष्ठित फेलो आर आर रश्मि बताती हैं, “100 बिलियन डॉलर का पिछला लक्ष्य भी पूरी तरह से अनुदान नहीं था। इसका लगभग 20-25% द्विपक्षीय या बहुपक्षीय चैनलों के माध्यम से दिए जाने वाले अनुदान के रूप में था। यहां भी वैसा ही होने की संभावना है। आधिकारिक विकास चैनलों के माध्यम से थोड़ा कोर फाइनेंस प्रदान किया जाएगा और फिर इसे एमडीबी के माध्यम से निजी क्षेत्र के फंड्स द्वारा बढ़ाया जाएगा। लेकिन यह बड़े पैमाने पर लोन या उधार के रूप में होगा।”

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट (आईआईईडी) के एक हालिया विश्लेषण में पाया गया कि दुनिया के सबसे गरीब और सबसे अधिक संवेदनशील देशों को जलवायु संकट से निपटने के लिए जितना फंड मिलता है उसके दोगुने से अधिक वह कर्ज का भुगतान करने के लिए खर्च कर रहे हैं।

रश्मी ने कहा कि पब्लिक फाइनेंस मिश्रित वित्तपोषण सुविधाओं या उपकरणों (सार्वजनिक और निजी फाइनेंस को संयोजित करने वाली वित्तीय व्यवस्था) जैसे रचनात्मक तरीकों का उपयोग करके एकत्रित धन को सस्ता बनाने में मदद कर सकता है, जिससे कर्ज की लागत कम हो सकती है। “ऐसा होगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बाकू का सम्मलेन रियायत के सवाल को संबोधित करने के लिए तैयार है या नहीं”। 

इस सम्मलेन को ‘फाइनेंस कॉप’ कहा जा रहा है, इसके बावजूद बैंक ऑफ अमेरिका, ब्लैकरॉक, स्टैंडर्ड चार्टर्ड और डॉयचे बैंक जैसे शीर्ष वित्तीय संस्थानों के मालिक इससे अनुपस्थित रह सकते हैं। उनका कहना है कि यहां उनके लिए पर्याप्त व्यावसायिक अवसर नहीं हैं। 

खतरे में लॉस एंड डैमेज

फ्रांस, बेल्जियम, आयरलैंड और स्पेन सहित ग्लोबल नार्थ के कई देशों ने इस बात पर जोर दिया कि पहले “सबसे कमजोर” देशों को फाइनेंस दिया जाना चाहिए। इससे पहले जब यूरोपीय संघ ने लॉस एंड डैमेज फंड गठित करने का प्रस्ताव दिया था तब भी ऐसा ही कहा था। ऐसी शर्तों पर फंड की पेशकश करके विकसित देश विभिन्न आकार की अर्थव्यवस्थाओं वाले विकासशील देशों के बीच तनाव पैदा कर सकते हैं। 

नेपाल, गाम्बिया, एआईएलएसी, जी77 जैसे विकासशील देशों और समूहों ने ध्यान दिलाया कि एनसीक्यूजी के तहत मिटिगेशन और अडॉप्टेशन के साथ-साथ जस्ट ट्रांज़िशन और लॉस एंड डैमेज को भी शामिल किया जाना चाहिए। किसी भी विकसित देश ने लॉस एंड डैमेज का उल्लेख नहीं किया है, जो संकेत है कि एनसीक्यूजी के तहत इसे शामिल किया जाने पर संदेह है। 

अधर में लटके एनडीसी

नवीनतम एनडीसी सिंथेसिस रिपोर्ट से पता चलता है कि विभिन्न देशों के मौजूदा क्लाइमेट प्लान पर्याप्त नहीं हैं। चूंकि सभी देश नए एनडीसी पर काम कर रहे हैं जिन्हें अगले वर्ष जारी किया जाएगा, सार्थक क्लाइमेट एक्शन के लिए एक प्रभावी और निष्पक्ष क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य महत्वपूर्ण होगा। एनसीक्यूजी के नतीजे संभवतः विभिन्न देशों की महत्वाकांक्षा और भविष्य के लक्ष्यों को पूरा करने की उनकी क्षमता को आकार देंगे। एक निष्पक्ष एनसीक्यूजी ग्लोबल साउथ और ग्लोबल नॉर्थ के बीच विश्वास के पुनर्निर्माण में भी मदद कर सकता है, हालांकि इस लक्ष्य पर आम सहमति बनती नहीं दिख रही है।

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