क्रिएटिव: रिद्धि टंडन

$300 बिलियन का प्रश्न: कॉप30 से पहले खड़ा सवाल

कॉप29 में तय किया गया क्लाइमेट फाइनेंस का लक्ष्य महत्वाकांक्षी जरूर है, लेकिन इस लक्ष्य को पूरा करना सिर्फ पैसों के वादों से संभव नहीं होगा। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और संरचनात्मक सुधारों की सख्त ज़रूरत है।

अज़रबैजान की राजधानी बाकू में हुए पिछले जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन [कॉप29] में तय किया गया जलवायु वित्त यानी क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य महत्वाकांक्षी तो हैं, लेकिन इस अंतर को भरने के लिए केवल वित्तीय प्रतिज्ञाएं नहीं, बल्कि राजनीतिक नेतृत्व और संरचनात्मक नवाचार (इनोवेशन) की आवश्यकता है।
स्वतंत्र उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह (IHLEG) के अनुसार, उभरते बाजारों और विकासशील देशों (EMDCs, चीन को छोड़कर) को अपने जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रति वर्ष 2.3 से 2.5 ट्रिलियन डॉलर की पूंजी की आवश्यकता है। 2035 तक यह आंकड़ा बढ़कर 3.2 ट्रिलियन डॉलर प्रतिवर्ष हो जाएगा, जिसमें से 1.3 ट्रिलियन डॉलर अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से आने की उम्मीद है। लेकिन वास्तविकता चिंताजनक है — क्लाइमेट पॉलिसी इनिशिएटिव (CPI) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में EMDCs ने केवल 196 बिलियन डॉलर जुटाए। लक्ष्य पर बने रहने के लिए उन्हें अपनी पूंजी जुटाने की क्षमता को 11 गुना बढ़ाना होगा। इस अंतर को भरने में विकसित देशों से मिलने वाला वित्तीय सहयोग – जिसे राजनीतिक रूप से जलवायु वित्त कहा जाता है — अहम भूमिका निभा सकता है। लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छा, बहुपक्षीय संस्थानों में सुधार, वित्तीय रूपों में बदलाव और संस्थागत अड़चनों को दूर करना आवश्यक है।

लक्ष्य से क्रियान्वयन तक

वर्षों से जलवायु वित्त को अंतरसरकारी मंचों, विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप) में बढ़ती प्राथमिकता मिल रही है। पिछला कॉप29, जिसे “फाइनेंस कॉप” कहा गया, में जलवायु वित्त का लक्ष्य 2025 तक लागू 100 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष से बढ़ाकर 2035 तक 300 बिलियन डॉलर कर दिया गया। कागज़ पर यह वृद्धि आकर्षक है, लेकिन यह EMDCs की वास्तविक वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है।

इसके अलावा, यह स्पष्ट नहीं है कि यह राशि कैसे जुटाई जाएगी, कौन कितना योगदान देगा, और वित्त किस प्रकार का होगा।

विकसित देशों ने 2009 में 2020 तक 100 बिलियन डॉलर जलवायु वित्त देने की प्रतिबद्धता की थी, लेकिन इसे पूरा करने में उन्हें 13 वर्ष लग गए — वह भी तब जब मान लिया जाए कि यह सहायता वास्तव में ठोस रूप में विकासशील देशों तक पहुंची। आने वाला कॉप30, जो बेलम (ब्राज़ील) में होगा, को विकसित देशों से एक ठोस समयबद्ध प्रतिज्ञा और स्पष्ट रोडमैप की आवश्यकता है।

गुणवत्ता की समस्या

लंबे समय से विकासशील देश जलवायु वित्त की गुणवत्ता को लेकर असंतुष्ट हैं। भारत ने कई बार कहा है कि निजी क्लाइमेट फाइनेंस को पब्लिक फाइनेंस के हिस्से के रूप में नहीं गिना जा सकता। यह भी स्पष्ट नहीं है कि पब्लिक फाइनेंस कैसे निजी निवेश को प्रेरित करता है। OECD देशों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टें अस्पष्ट हैं क्योंकि वे स्वैच्छिक और बिना स्वतंत्र सत्यापन के होती हैं। इसके अलावा, बाजार दर पर दिए गए ऋण और इक्विटी को भी जलवायु वित्त में गिना जाता है, जिसे विकासशील देश चुनौती देते हैं।

मुख्य प्रश्न यह है कि 300 बिलियन डॉलर में से वास्तव में कितना हिस्सा रियायती पूंजी के रूप में होगा और कितना निजी पूंजी बाजार दर पर तय होगी।
इसके अलावा, इसमें कितना हिस्सा ऋण के रूप में होगा, जो EMDCs का कर्ज और बढ़ा देगा। भले ही यह रियायती कर्ज हो, यह देशों की ऋण स्थिति को प्रभावित करेगा और उनकी क्रेडिट प्रोफाइल पर नकारात्मक असर डालेगा। यह स्वीकार किया गया है कि कई EMDCs का वर्तमान ऋण स्तर टिकाऊ नहीं है और इसके कुछ हिस्से को माफ़ या स्थगित किया जाना चाहिए, ताकि वे जलवायु कार्रवाई और अन्य विकास लक्ष्यों जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश कर सकें।

इसी कारण, ऋण राहत जलवायु एजेंडा का हिस्सा बननी चाहिए। “Debt-for-Climate” (DFC) जैसे वित्तीय उपकरण, जो ऋण पुनर्गठन के बदले जलवायु कार्रवाई की अनुमति देते हैं, उपयोगी हो सकते हैं। ऐसे उपाय कार्बन उत्सर्जन घटाने और प्राकृतिक पूंजी बहाल करने के प्रयासों से जुड़े हो सकते हैं, जो वैश्विक सार्वजनिक हित के हैं।

प्रणाली में सुधार

संस्थागत अवरोध एक और बड़ी चुनौती हैं। बहुपक्षीय वित्तीय संस्थानों में स्वीकृति और वितरण की लंबी नौकरशाही प्रक्रियाएँ तथा जोखिम उठाने की अनिच्छा जलवायु वित्त प्रवाह (क्लाइमेट फाइनेंस फ्लो ) को बाधित करती हैं।

संस्थागत नवाचार और अनावश्यक प्रक्रियाओं को हटाना अत्यावश्यक है। इसके अलावा, जलवायु वित्त प्रदान करने वाली विभिन्न संस्थाओं में समन्वय की कमी है –उनके चयन, स्वीकृति और वितरण की प्रक्रियाएँ अलग-अलग हैं, जिससे दक्षता घटती है। “Finance for Development (FfD4)” प्रारूप में इन संस्थानों के बीच बेहतर एकीकरण का आह्वान किया गया है।

उपेक्षित आधा: अनुकूलन

अब तक क्लाइमेट फाइनेंस का अधिकांश हिस्सा शमन (मिटिगेशन) परियोजनाओं में गया है क्योंकि वे व्यावसायिक रूप से लाभदायक और स्पष्ट मॉडल वाली हैं। लेकिन अनुकूलन (अडॉप्टेशन) परियोजनाएँ, जो EMDCs के लिए अधिक महत्वपूर्ण और तात्कालिक हैं, उन्हें उचित हिस्सा नहीं मिला।

CPI की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में अनुकूलन वित्त का हिस्सा कुल जलवायु वित्त का केवल 2.4% था — यानी 46 बिलियन डॉलर, जबकि 2024-2030 के दौरान इसकी वार्षिक आवश्यकता 222 बिलियन डॉलर है।

यहां आईएमएफ के ‘रेज़िलिएंस एंड सस्टेनेबिलिटी ट्रस्ट (आरएसटी)’ जैसे दीर्घकालिक कार्यक्रम रियायती पूंजी प्रदान कर सकते हैं।

लचीलेपन (रेज़िलिएंस) में निवेश न केवल जीवन और इंफ़्रास्ट्रक्चर की रक्षा करता है, बल्कि देशों की ऋण चुकाने की क्षमता को भी बनाए रखता है। साथ ही, किसी जलवायु आपदा के दौरान ऋण सेवा (डेट सर्विसिंग) को अस्थायी रूप से रोकना EMDCs को पुनर्वास पर खर्च करने की अनुमति देगा और उनकी आर्थिक पुनर्प्राप्ति में तेजी लाएगा।

पूंजी को सुलभ बनाना

अधिकांश विकासशील देशों के लिए पूंजी की शर्तें, विशेषकर इसकी लागत, एक बड़ी बाधा हैं। जो देश जलवायु उपायों के लिए बाहरी पूंजी आयात करते हैं, उन्हें मुद्रा जोखिम (करेंसी रिस्क) झेलना पड़ता है, जिससे पूंजी की वास्तविक लागत बढ़ जाती है।

बहुपक्षीय विकास बैंक (MDBs) रियायती वित्तीय समाधान जैसे सब्सिडी वाले ऋण गारंटी, मुद्रा हेजिंग, या इक्विटी निवेश प्रदान कर सकते हैं, और क्षेत्रीय बैंक (जैसे AIIB) भी ऐसे समाधान अपना सकते हैं।

लेकिन वर्तमान में MDBs की सहायता अपर्याप्त है, और अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त भी अपेक्षानुसार नहीं है। इसलिए EMDCs को सामूहिक रूप से बेहतर सौदे के लिए वार्ता करनी चाहिए — जिसमें अत्यंत संवेदनशील देशों के लिए अधिक अनुदान, ब्याज-मुक्त या रियायती ऋण, शर्तों में लचीलापन (जैसे बिना संप्रभु गारंटी के स्थानीय सरकारों के लिए सहायता), और कम दरों पर जोखिम पूंजी शामिल हों।

निष्कर्ष

संयुक्त राज्य द्वारा अंतरराष्ट्रीय जलवायु समझौतों से पलायन, व्यापारिक अवरोध, और मध्य पूर्व व यूरोप में चल रहे युद्ध जैसे कारक वैश्विक जलवायु प्रयासों के लिए अस्थायी बाधाएँ हैं।
जलवायु वित्त EMDCs के लिए अनिवार्य है, और विकसित देशों को अपनी प्रतिबद्धताओं को कई गुना बढ़ाकर पूरा करना होगा ताकि वैश्विक तापमान सीमित रखने के लक्ष्य को साकार किया जा सके। साथ ही, बहुपक्षीय संस्थानों में संस्थागत नवाचार अत्यंत आवश्यक है, जिससे हरित वित्त की खाई पाटी जा सके।

लेखक लाबण्य प्रकाश जेना क्लाइमेट एंड सस्टेनेबिलिटी इनिशिएटिव (CSI) के निदेशक हैं।

(यह लेख विस्तार से अंग्रेजी में यहां पढ़ सकते हैं।)

Labanya Prakash Jena
+ posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

कार्बन कॉपी
Privacy Overview

This website uses cookies so that we can provide you with the best user experience possible. Cookie information is stored in your browser and performs functions such as recognising you when you return to our website and helping our team to understand which sections of the website you find most interesting and useful.