एक तरफ दिल्ली में 4 जून, 2023 को यमुना के पुनरुद्धार के लिए यमुना संसद बुलाई गई थी जहां एक लंबी मानव श्रृंखला लोगों को यह याद दिला रही थी कि यमुना बचाओ नहीं तो खुद नहीं बचोगे। दूसरी तरफ दशकों से यमुना के जीने का दिन-रात स्वप्न देखने वाले और यमुना के घाटों से लकर अदालतों तक के चक्कर लगाने वाले यमुना जिए अभियान के संरक्षक मनोज मिश्रा ने दोपहर 12.30 पर भोपाल में लगभग 70 साल की आयु में दम तोड़ दिया। कोरोना संक्रमण के चलते वह लंबे समय से बीमार थे।
कुछ महीनों से वह जमीन पर भले ही सक्रिय नहीं थे लेकिन पर्यावरण की उनकी चिंता जारी थी। सोशल मीडिया पर वह पर्यावरण के लिए आवाज उठाने वाले लोगों के समर्थन में खड़े थे। उनके ट्विटर हैंडल पर परिवार जनों ने लिखा ‘रहें न रहें हम महका करेंगे’।
अक्सर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के परिसर में हाथों में अदालती कागजों का पुलिंदा लिए ‘यमुना के पुनरुद्धार’ मामले के आने का इंतजार करते उनको देखता था। सफेद दाढ़ी और सफेद बाल वाले चेहरे पर टिके चश्मे के पीछे उनकी आंखें कभी हलफनामों को निहारती तो कभी जजों की कुर्सियां। मीडिया कर्मी पूछते, “सर आज क्या होगा?” मनोज मुस्करा देते और सकारात्मक होकर कहते जरूर प्रदूषण के विरुद्ध कुछ बेहतर निर्णय आएगा।
जितना पूछा जाए, उतना ही बोलना उनका स्वभाव था। खुद में मसरूफ रहने वाले मनोज अदालतों की कार्यवाही में जैसे सिद्ध पुरूष हो गए थे, जितना आदेशों का उल्लंघन हो या फिर प्राधिकरण बातों को उलझाते रहें, वह इनसे टूटते नहीं थे। खड़े रहते थे, डटे रहते थे, यमुना के लिए।
1994 में सुप्रीम कोर्ट यमुना प्रदूषण पर स्वतः संज्ञान लेकर सुनवाई करता रहा, कई आदेशों के बावजूद अंत में निराशा भरी टिप्पणी ही कोर्ट रूम से आ रही थी, और इस बीच नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (2010) में बन गया था जो पर्यावरणीय मामलों की सुनवाई के लिए ही शुरू किया गया था।
करीब 22 वर्ष भारतीय वन सेवा ( मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) में कार्य करने वाले मनोज मिश्र चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट बने और उसके बाद स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली।
मनोज ने 11 नवंबर, 2011 को दिल्ली की यमुना के डूब क्षेत्र और उनसे जुड़े जलाशयों का दौरा किया था। वह हैरान थे कि डाउनस्ट्रीम यमुना पूरी तरह कूड़े-कचरे और निर्माण मलबों से पटी पड़ी है।
और फिर एनजीटी के तत्कालीन चेयरमैन जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने मनोज मिश्रा की याचिका में शिकायतों पर गौर करते हुए एक लंबी सुनवाई की। इस बीच मनोज मिश्रा लगातार अदालतों में लंबी सुनवाई का हिस्सा बनकर लड़ते रहे। यमुना को पुनर्जीवित कर देने कि चिंता उनके भीतर रच-बस गई थी। हर छिन शायद वो यह प्रयास करते कि यमुना को जियाने का अभियान आंदोलन बन जाए।
09 दिसंबर, 2014 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने मैली यमुना को निर्मल यमुना बनाने की मांग वाली याचिका पर फैसला सुरक्षित कर लिया।
मनोज आशावान थे कि अब मैली यमुना को निर्मल यमुना बनाने का कोई अच्छा फैसला अदालत से आएगा जिसे जमीन पर उतारा भी जाएगा। वह दिन आ गया एनजीटी ने 13 जनवरी, 2015 को अपना फैसला सुनाया। मैली से निर्मल यमुना पुनरुद्धार योजना 2017 को सफल बनाने की बात जजमेंट में कही गई।
मनोज ने फैसले का स्वागत किया, लेकिन उनकी लड़ाई शायद अभी खत्म नहीं हुई थी।
एक साल बाद ही यमुना के डूब क्षेत्र में आर्ट ऑफ लिविंग के विवादित कार्यक्रम ने यमुना के पुनरुद्धार फैसले को न सिर्फ चुनौती दी बल्कि दशकों तक यमुना को बचाने की जद्दोजहद में उठाए गए कदमों पर पानी फेरने का काम किया। मनोज मिश्रा ने एक बार फिर अदालती लड़ाई लड़ी। परिणाम में आर्ट ऑफ लिविंग पर एनजीटी ने शुरुआती 5 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया। इन पैसों का इस्तेमाल डूब क्षेत्र को बेहतर करने के लिए किया जाना था।
मनोज यमुना को जिंदा करने के लिए एनजीटी के 2015 के फैसले के बाद लगातार उसको लागू करने के लिए लड़ते रहे। दुर्भाग्य यह है कि दिल्ली की यमुना आज भी जस की तस बनी हुई हैं।
टेलीफोन हो या मैदान पर जब भी मनोज से मिलना हुआ, वह बिना किसी अहंकार पर्यावरण की चिंताओं और उनके समाधान को लेकर हमेशा तत्पर और जागृत रहते थे। नदियों की विनाशगाथा उनको भीतर ही भीतर काटती थी। हर साल होने वाले इंडिया रिवर फोरम में वे शिरकत करते। नदियों में खनन, बालू खनन और नदियों की चिंता को लेकर मुखर भी रहते।
जब दुनिया में कोविड महामारी के खात्मे की घोषणा हो चुकी है और इस बीच मनोज का कोविड संक्रमण के कारण दुनिया से चले जाना सचमुच अखर रहा है। यह भी इतना ही सच है कि एक खुशबूदार फूल की मानिंद मनोज हमेशा अपनी सुगंध बिखेरते रहेंगे।
यमुना के पुनरुद्धार की लड़ाई ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(यह स्टोरी डाउन टू अर्थ से साभार ली गई है।)