झारखंड के गुमला जिले के गुनिया गांव में बना एक सौर मिनी ग्रिड। तस्वीर-मनीष कुमार

स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में आखिर क्यों पिछड़ रहा है झारखंड?

सीताराम उरांव झारखंड राज्य के गुमला ज़िले के घाघर ब्लॉक के एक गांव में एक किसान हैं। आदिवासी समाज से आने वाले उरांव अपनी जमीन पर आलू, तरबूज और अन्य सब्जियों की खेती करते हैं और सिंचाई के लिए वे सौर ऊर्जा से चलने वाले पम्प का इस्तेमाल करते हैं। कुछ वर्षों पहले तक इसके लिए डीजल से चलने वाले पम्प की मदद लेनी पड़ती थी।

उरांव बताते है कि डीजल से चलने वाला पम्प ना केवल महंगा पड़ता था बल्कि इसे खरीदने में भी काफी समय बर्बाद होता था। इसके लिए दूर शहर जाना होता था। करीब चार साल पहले उरांव ने सौर ऊर्जा से चलने वाला पम्प खरीदा था और अब इससे होने वाले लाभ से उत्साहित हैं।

“इस पम्प को चलाने के लिए ईंधन गांव में ही मौजूद है। अब कहीं आना-जाना नहीं पड़ता। हम अपनी मर्जी से जब मन हो तब इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। डीजल की तुलना में सौर ऊर्जा से पम्प को चलना लगभग 30 प्रतिशत सस्ता भी पड़ता है,” उरांव ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

वही, उरांव के गांव से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर राज्य की राजधानी-रांची में भी ऊर्जा के क्षेत्र में कुछ बदलाव देखने को मिलता है। राज्य के राज्यपाल के निवास के ऊर्जा की जरूरतों को भी सौर ऊर्जा से पूरा किया जा रहा है। राज्य सरकार ने पिछले वर्ष राजभवन में 70 किलोवाट का सौर पैनल लगाया। इसके लिए झारखंड नवीकरणीय ऊर्जा विकास एजेंसी (ज्रेड़ा) की  मदद ली गयी।

सिर्फ राजभवन ही नहीं बल्कि शहरी इलाकों में बहुत सी इमारतों की छतों पर सोलर पैनल लगे दिखते हैं। हालांकि इससे राज्य की वास्तविक स्थिति बयान नहीं होती। अगर राज्य स्तर पर बात करें तो यह नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में यह पिछड़ता हुआ दिख रहा है।  इसके अलावा अगर हम इस राज्य की तुलना भारत के कुछ अन्य पूर्वी इलाकों के राज्यों से करे तो झारखंड का रिकॉर्ड सबसे पिछड़ा हुआ है। पड़ोसी राज्य ओडिशा में कुल नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता 617.09 मेगावाट है जबकि बिहार (387.35 मेगावाट) और पश्चिम बंगाल (586.95 मेगावाट) भी इस मामले में झारखंड से कही आगे हैं। पर झारखंड का रिकॉर्ड कुछ उत्साहजनक नहीं रहा है। केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण (सीईए) के आंकड़ों की माने तो इस साल के मार्च 31 तक प्रदेश की कुल नवीकरणीय योजना की क्षमता केवल 97.4 मेगावाट थी।

झारखंड के गुमला जिले के एक ग्रामीण इलाके में बने सौर मिनी ग्रिड के पास से गुजरती हुई एक महिला। तस्वीर-मनीष कुमार

इस राज्य के 2015 के सौर नीति में राज्य में 2020 तक 2,650 मेगावाट सौर ऊर्जा स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया था। यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका। राज्य सरकार ने इस साल एक नई सौर ऊर्जा बनाई है जिसमे कुछ प्रावधानों में बदलाव कर एक नया लक्ष्य भी तय किया गया है। अब झारखंड सरकार अगले पांच साल में 4,000 मेगावाट तक की सौर ऊर्जा का लक्ष्य हासिल करना चाहती है।

राज्य की नई सौर ऊर्जा नीति

झारखंड कोयला खनन के लिए मशहूर है। इस राज्य का कोयला देश में ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण योगदान देता है। हालांकि यह राज्य आज भी ऊर्जा की जरूरतों के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर है।

2022 के नई सौर नीति से अब राज्य सरकार कम समय में ज्यादा से ज्यादा स्वच्छ ऊर्जा के विकास की परियोजना बना रही है। इस नए नीति के अंतर्गत अगले पांच सालों में 1,700 मेगावाट की क्षमता वाले सौर पार्क, फ्लोटिंग सोलर (900 मेगावाट), सोलर कनाल टॉप (400  मेगावाट) और सोलर रूफ़टाप (250 मेगावाट) का विकास किया जाना है। राज्य में विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा के माध्यम से 1,000 सौर ग्राम बनाने की भी योजना बनाई गई है।

“हालांकि इस राज्य में नवीन ऊर्जा का विकास अभी तक थोड़ा धीमा रहा है लेकिन भविष्य में स्थिति भिन्न हो सकती है। अब हम कुछ बड़े स्तर की सौर परियोजनाएं लगाने जा रहे हैं। राज्य का 100 मेगावाट का पहला फ्लोटिंग सोलर परियोजना, रांची जिले के सिकंदरी में गेतुलसूद डैम पर, बनने जा रही है। जल्द ही 80 मेगावाट का सौर पार्क भी बन कर तैयार हो जाएगा। चार अलग अलग स्थानों पर 20 मेगावाट क्षमता के प्लांट लगाए जाने है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि एक जगह पर 80 मेगावाट परियोजना के लिए जमीन खोजना मुश्किल है,” ज्रेड़ा के एक अधिकारी ने गोपनीयता की इच्छा जताते हुए मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

अधिकारी ने यह भी बताया कि स्वच्छ ऊर्जा के विकास की गति बढ़ रही है। “पहले झारखंड में पीएम-कुसुम योजना का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं था। पर स्थिति बदल रही है। अब इस योजना के तहत जोड़े गए किसानों की संख्या के मामले में झारखंड की गिनती देश के शीर्ष राज्यों में होती है। इस योजना के तहत, दिसम्बर 13, 2021 तक कुल 6,711 सौर पम्प दिए गए।

पीएम-कुसुम योजना के तहत किसानों को सरकार द्वारा सब्सिडी के साथ सौर पम्प दिया जाता है।  इस योजना में किसानों की बंजर जमीन पर सौर पैनल के लिए पैसा देने का प्रावधान है। इस परियोजना से जुडने से किसान न केवल सौर ऊर्जा का उपभोक्ता बनता है बल्कि बिजली उत्पादक भी बन जाता है।

ज्रेड़ा के आधिकारी ने बताया कि इस नई सौर नीति में राज्य की तरफ से कुछ रियायत और समर्थन का भी प्रावधान रखा गया है। विशेषज्ञों मानते हैं कि यह अच्छी नीति है और इससे सौर ऊर्जा का विस्तार हो सकता है।

रमापति कुमार, सेंटर फॉर इनवायरनमेंट एण्ड इकनॉमिक डेवलपमेंट (सीईईडी) के संस्थापक और सीईओ है। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “2022 की सौर नीति पहले के नीतियों से बेहतर है। इस नीति में बहुत से नए प्रावधान बनाए गए हैं ताकि इस क्षेत्र के विकास के रास्ते में आने वाले अड़चनों को दूर किया जा सके। अब हर वर्ष के लिए अलग अलग लक्ष्य निर्धारित किया गया है। किस विभाग की क्या ज़िम्मेदारी होगी, इसका भी अच्छे से उल्लेख किया गया है। बड़ी सौर परियोजना के लिए जमीन की झारखंड में हमेशा से बड़ी समस्या रहती थी। इस समस्या के लिए जमीन बैंक, स्पेशल पर्पस वेहिकल बना के बड़े निवेश का रास्ता भी बनाया जा रहा है।”

कुमार का कहना है कि सिंगल विंडो का प्रावधान, परियोजना के शुरू और खत्म होने की  तारीख का निर्धारण और आसानी से अनुमति लेने की व्यवस्था से झारखंड में स्वच्छ ऊर्जा के विस्तार को अच्छी गति मिल सकती है।

नवीन ऊर्जा की योजना से जुड़ी चुनौतियां

2020 में केंद्र सरकार के एक आंकलन  के अनुसार झारखंड में नवीकरणीय ऊर्जा की कुल अपेक्षित क्षमता 18.80 गीगावाट है। राज्य के खुद के आंकलन बताते हैं कि राज्य में 300 से अधिक दिन सूर्य की किरणें आती हैं जिसे सौर ऊर्जा के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

शोधकर्ता और विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य में बहुत से ऐसी चुनौतियां हैं जो स्वच्छ ऊर्जा के प्रसार को रोक रही हैं। “झारखंड में बहुत से ग्रामीण इलाकें हैं जहां बिजली की कमी के कारण बिजली की आपूर्ति निरंतर नहीं होती। ऐसे बहुत सी जगहों पर सरकार या कुछ संस्थानों ने सौर ऊर्जा के मिनी ग्रिड या विकेंद्रीकृत परियोजनाओं से बिजली की किल्लत को कम करना का प्रयास किया है। लेकिन इसके बावजूद बहुत से हिस्से में आज भी बिजली की किल्लत बनी हुई है,” रांची में इनिशिएटिव फॉर सस्टेनेबल एनर्जी पॉलिसी (आईएसईपी) में प्रोग्राम मैनेजर वगिशा नन्दन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

उन्होंने यह भी बताया कि सौर ऊर्जा के क्षेत्र में पूंजी की समस्या अक्सर देखने को मिलती है। इस कारण भी इसकी रफ्तार धीमी रही है। नन्दन ने ऐसी सौर परियोजनाओं के बारे में बताया जो रख-रखाव के कारण कुछ दिनों बाद एक असफल परियोजना के रूप में तब्दील हो गयी। इससे आस पास के लोगो में सौर ऊर्जा की क्षमता को लेकर भी असमंजस की स्थिति बन गयी। उन्होंने यह भी कहा कि झारखंड की आबादी का अधिकांश हिस्सा आज भी खेती से जुड़ा है और कम आय वाला है जिससे सौर परियोजना पर लगने वाली लागत और लोगो की भागीदारी भी कम है।

झारखंड के पूर्वी सिंघभूम जिले एक एक ग्रामीण इलाके में बना एक सौर पैनल जिसका उपयोग सिंचाई के लिया किया जाता है। तस्वीर-मनीष कुमार

राज्य के हाल के आर्थिक सर्वेक्षण में भी यह बात कही गई है कि राज्य की 80 प्रतिशत आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। अगर प्रति व्यक्ति आय देखी जाए तो झारखंड देश के सबसे गरीब राज्यों में आता है।

विजय शंकर ऊर्जा क्षेत्र में झारखंड में लगभग सात वर्षों से काम कर रहे है। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि झारखंड में सौर ऊर्जा के विकास के लिए अच्छी संभावना है। पवन ऊर्जा को लेकर यह बात नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी बताया कि बायोमास से भी यहां कुछ ऊर्जा तो बन रही है लेकिन साल भर इसके लिए कच्चा माल नहीं मिल पाता। खेती से जो कुछ थोड़ा कच्चा माल बायोमास ऊर्जा  के उत्पादन के लिए मिल पाता है,उससे बड़े स्तर पर ऊर्जा नहीं बनाई जा सकती है।

शंकर ने यह भी बताया कि झारखंड में सौर ऊर्जा का विकास देश के पश्चिमी राज्यों की तरह तेज क्यों नहीं हो पा रहा है। “अगर हम झारखंड की तुलना राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से करे तो हमें पता चलेगा की झारखंड में इन राज्यों कि तुलना में सूरज की किरणें और उसकी तीव्रता कम है। अतः बराबर क्षमता की सौर परियोजना देश के पश्चिमी राज्यों में ज्यादा सौर ऊर्जा पैदा कर सकती है। राज्य में सदानीरा नदियों के अभाव के कारण भी बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट नहीं लगाए जा सकते। राज्य में बहने वाली 12 नदियों में से केवल दो सदानीरा है। अतः राज्य में बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाना मुश्किल है लेकिन छोटे हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाए जा सकते है।”

कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि डिस्कॉम (बिजली वितरक कंपनियां) की खस्ता हालत भी झारखंड में स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में बड़े निवेश लाने में समस्या पैदा करती है। “बहुत से बड़े निजी निवेशक ऐसे राज्यों में निवेश नहीं करना चाहते जहां के डिस्कॉम  घाटे में हो। ऐसे राज्यों में निवेश करने के लिए ना तो निवेशक की दिलचस्पी होती है और न ही  ऐसी परियोजना को बैंक इत्यादि से वित्तीय सहायता मिल पाती है। राज्य में कमजोर ट्रांसमिशन लाइन के ढांचे का होना भी एक अड़चन रहा है,” ऊर्जा क्षेत्र के विशेषज्ञ बताते हैं।

2020 के एक अध्ययन में दीक्षा बिजलानी ने बताया कि झारखंड सरकार अपने नवीकरणीय ऊर्जा खरीद बाध्यता (आरपीओ) के लक्ष्य को पूरा करने में विफल रही है। इसी अध्ययन ने बताया कि राज्य के नवीकरणीय ऊर्जा के विकास करने वाली संस्था-ज्रेड़ा अक्सर कर्मचारियों की कमी से जूझती है जबकि इसके धीमे ऊर्जा विकास और आरपीओ के ढीले निगरानी ने पूरे स्वच्छ ऊर्जा के विकास की रफ्तार को प्रभावित किया है। बिजली अधिनियम 2003 और राष्ट्रीय टैरिफ नीति 2006 के अनुसार सभी राज्य सरकारों को राज्य के कुल बिजली खपत में से कुछ हिस्सा नवीकरणीय ऊर्जा के लिया आरक्षित रखना होता है जिसमे झारखंड सरकार विफल साबित रही है।

यह रिपोर्ट मोंगाबे से साभार ली गई है। 

+ posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

कार्बन कॉपी
Privacy Overview

This website uses cookies so that we can provide you with the best user experience possible. Cookie information is stored in your browser and performs functions such as recognising you when you return to our website and helping our team to understand which sections of the website you find most interesting and useful.