कोरोना महामारी का यह दौर सिर्फ वैश्विक आपदा या स्वास्थ्य संकट भर नहीं है बल्कि कई सामाजिक और इंसानी पहलुओं का आइना भी है। पूरी दुनिया में अब तक कम से कम पैंतीस लाख लोगों की जान ले लेने वाली इस बीमारी – ये आंकड़ा असल संख्या से कहीं कम बताया जा रहा है – ने एक हाइड्रा संरचना की तरह मानवीय कमज़ोरियों को उजागर किया है। भारत ने इस बीमारी के खिलाफ बहुत कम टीकाकरण और मज़बूत ढांचागत स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के बावजूद विजय का ऐलान कर दिया लेकिन तुरंत ही महामारी की दूसरी लहर ने विनाशलीला दिखाई उसने सरकार की अदूरदर्शिता और नीति और क्रियान्वयन से लेकर किसी भी स्तर पर सोच के अभाव को साफ दिखाया है।
निश्चित थी दूसरी लहर फिर भी लापरवाही
भारत में कोरोना के खिलाफ विफलता से राष्ट्रीय नेतृत्व का निकम्मापन तो स्पष्ट हुआ ही है लेकिन स्वास्थ्य, साफ-सफाई, शहरी और ग्रामीण आवास जैसी योजनाओं को लेकर किसी भी अल्प या दीर्घकालिक योजना का अभाव भी साफ दिखा है। टीकाकरण की ढिलाई और बेहद लचर स्वास्थ्य ढांचे के बावजूद महामारी के खिलाफ विजयघोष किसी आपराधिक कृत्य से कम नहीं है।
भारत में जानकार इस तीव्र फैलाव के पीछे कोरोना के नये वेरिएंट और वायरस का म्यूटेशन देख रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि इस दूसरी लहर के साथ तीसरी लहर का आना भी तय है जो हो सकता है कि हर आयु वर्ग पर हमला करे। ढाई लाख से अधिक लोगों की अब तक भारत में इससे मौत हो चुकी है और देश के करीब साढ़े पांच सौ ज़िलों में कोरोना की पॉजिटिविटी दर 10% से अधिक है। जानकारों के पास कोई सटीक गणितीय मॉडल नहीं है जो इस बारे में स्पष्ट रूप से कुछ कह सके कि बीमारी का ग्राफ आगे कैसे चलेगा।
जन स्वास्थ्य नीति और विषाणुजनित रोगों के विशेषज्ञ डॉ चन्द्रकांत लहारिया कहते हैं कि उपलब्ध जानकारियों और रुझानों से सब कुछ नहीं समझाया नहीं जा सकता लेकिन कोरोना की दूसरी लहर आयेगी बिल्कुल तय था और सबको पता था हालांकि इस बीच एक नेरेटिव के तहत हमारे देश को वैश्विक अपवाद के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था।
लहारिया के मुताबिक, “पिछले साल अक्टूबर के बाद केस कम होने लगे। दीवाली और साल के अंत में केस कम हुये और काफी कम हुये लेकिन हम ये जानते हैं कि जो बड़ी महामारियां होती हैं वो हमेशा तीन से चार लहरों में आती हैं। पिछली सदी के 1918-20 में भी जो महामारी (स्पेनिश फ्लू) फैली उसकी चार लहरें आयीं थीं और दूसरी लहर ने सबसे अधिक नुकसान किया था। आज चीन को छोड़कर दुनिया के हर देश में दो या तीन लहरें आ गई हैं। यूरोप में पहले आयीं और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में अब आ रही हैं। भारत जैसे देश के लिये तो दूसरी वेव चल ही रही थी जैसे महाराष्ट्र में पहले ही चल रही थी लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा था कि यह इतने बड़े स्तर पर होगी।”
कई स्तर पर हुई चूक
एक ओर सरकार ने कोरोना की अवश्यंभावी लहर से नज़रें चुराईं और दूसरी ओर संवैधानिक संस्थाओं ने ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़े रखा। इसका सुबूत है हाल में विधानसभा चुनावों का लम्बा चौड़ा कार्यक्रम और प्रचार के दौरान कोरोना गाइडलाइंस की खुली अनदेखी। आंकड़ों ने साफ दिखाया कि पश्चिम बंगाल में लम्बे चुनावी कार्यक्रम के दौरान बीमारी का ग्राफ कैसे तेज़ी से बढ़ा। इसे लेकर चुनाव आयोग पर अदालतों ने कड़ी टिप्पणियां कीं।
उधर देश के सबसे बड़ी आबादी वाले यूपी में पंचायत चुनावों ने हाल और ख़राब किये। परी नेटवर्क की इस रिपोर्ट के मुताबिक पंचायत चुनावों में काम करने वाले कम से कम 700 शिक्षकों की अब तक कोविड से मौत हुई है और बहुत सारे बीमार हैं।
दूसरी ओर देश में अलग-अलग जगह धार्मिक जमावड़े होते रहे जिसमें हरिद्वार में आयोजित कुम्भ अहम रहा। इसे याद रखना महत्वपूर्ण है कि कोरोना के बढ़ते ग्राफ के बीच ही कुम्भ में 1 करोड़ लोगों का जमावड़ा हुआ और उसे बाद वायरस तेज़ी से फैला।
डॉ चन्द्रकांत लहरिया याद दिलाते हैं, “वायरस रफ्तार पकड़ रहा था। होली में बहुत लोगों ने आपस में मिलना-जुलना किया। उससे फर्क पड़ा लेकिन होली के बाद गांव-देहात के वही लोग कुम्भ मेले में नहाये और पूरे देश में फैल गये। कुम्भ में 12 अप्रैल को करीब 20 लाख नहाकर निकले और पूरे देश में फैल गये। जब कोरोना का इतिहास लिखा जायेगा तो इसका ज़िक्र ज़रूर होगा कि कैसे यहां से कोरोना फैला।”
लहारिया चेताते हैं कि आगे की राह कितनी सुगम होगी यह इस पर निर्भर है कि कमान किस तरह के लोगों के पास रहेगी। “अब तक राजनेताओं ने काफी कुछ कर लिया लेकिन अब मुझे लगता है कि तकनीकी जानकारों और विशेषज्ञों के हाथ में कमान होनी चाहिये। अगर तकनीकी विशेषज्ञता के आधार पर फैसले लिये गये होते तो शायद टीकाकरण में आज तस्वीर अलग होती।”
साफ हवा की अनदेखी
यह तथ्य कई रिपोर्ट्स में सामने आया है कि दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित महानगर भारत में हैं। दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है और विश्व के 30 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में 22 भारत के हैं। यह भी स्पष्ट है कि प्रदूषित हवा लगातार फेफड़ों की क्षमता को कम कर रही है जो कि कोरोना संक्रमण के ख़तरे को बढ़ा रहा है। बीमारी से उबरने के बाद प्रदूषित हवा से क्षीण हो चुके फेफड़े कोविड के साइड इफेक्ट का शिकार हो रहे हैं जिसे लॉन्ग कोविड कहा जाता है।
वायु प्रदूषण विशेषज्ञ और सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर में विश्लेषक सुनील दहिया कहते हैं, “अभी कोरोना वायरस की वजह से प्रदूषण चर्चा में है लेकिन हम ये कहते रहे हैं कि घातक प्रदूषण और उसका निरंतर एक्सपोज़र लोगों के फेफड़ों को लगातार कमज़ोर कर रहा है और अस्थमा के जानलेवा अटैक हर साल लोगों को होते हैं। कई रिसर्च यह बता चुकी हैं कि प्रदूषण का असर फेफड़ों की ताकत और उनके आकार पर पड़ता है।”
सांस के रोगों के जानकार चिकित्सक कहते हैं कि हर साल जाड़ों में प्रदूषण के स्तर बढ़ने के साथ आईसीयू में मरीज़ों की संख्या बढ़ने लगती है जिन्हें तुरंत ऑक्सीज़न चाहिये। अब इसे कोरोना से पैदा हालात से जोड़कर देखें तो स्पष्ट रूप से साफ हवा का महत्व समझ आता है। यह निराशाजनक है कि सरकार का क्लीन एयर प्रोग्राम न केवल कमज़ोर और ढीले-ढाले लक्ष्यों वाला है बल्कि उसमें दोषी अधिकारियों के लिये किसी तरह का सज़ा का प्रावधान भी नहीं है।
कोरोना के वक्त कचरा प्रबन्धन की चुनौती
ठोस कचरा प्रबंधन हमेशा से ही हमारे सफाई चक्र (सेनिटेशन) की कमज़ोर कड़ी रहा है। साल 2016 में सरकार ने ठोस कचरे से जुड़े नये नियमों का ऐलान तो किया लेकिन वह नियम कागज़ पर ही हैं। कोरोना महामारी ने इस संकट की भयावहता को उजागर किया है।
हरिद्वार में आयोजित कुम्भ में हर रोज़ 100 टन खतरनाक कचरा जमा हुआ जिसे शहर के आसपास सड़क किनारे या गांवों में बिखेर दिया गया। डाउन टु अर्थ मैग्ज़ीन की रिपोर्ट कहती है कि कुम्भ से पांच महीने पहले ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश और नेशनल क्लीन गंगा मिशन के तहत इस कूड़े का निस्तारण कचरा प्रबंधन नियमों के तहत होना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं और हरिद्वार के आसपास गांवों में लाखों लोगों के जीवन को ख़तरे में डाल दिया गया।
वैसे भी देश में साधारण कचरे, हानिकारक कचरे और बायो मेडिकल वेस्ट के बीच छंटनी करने की परंपरा गायब रही है और कोरोना के महामारी के वक्त तो पीपीई किट, दस्ताने, टोपियां और मास्क – जिनका प्रयोग ज़रूरी है – कचरे में बेरोकटोक जा रहे हैं। ठोस कचरा प्रबंधन के जानकार और पुस्तक वेस्टेड के लेखक अंकुर बिसेन कहते हैं कि मेडिकल वेस्ट का क्या किया जाये इस बारे में न तो जानकारी है और न ही ज़रिया है। इसीलिये यह हानिकारक कूड़ा सामान्य कचरे में मिल जाता है और लैंडफिल में पहुंच जाता है।
बिसेन के मुताबिक, “भारत में ज़्यादातर कचरा कूड़ा बीनने वालों और कबाड़ियों के साथ इस काम में लगे अकुशल लोगों द्वारा अनौपचारिक रूप से इकट्ठा किया जाता है। यह सच है कि सामान्य आर्थिक गतिविधियों से जो कचरा निकलता है वह यहां वहां पड़ा रहता है लेकिन बाकी कूड़ा और उसका निस्तारण ढुलमुल ही रहता है क्योंकि सप्लाई चेन काम नहीं कर रही होती।”
महत्वपूर्ण है कि वर्तमान हालात में यह एक बड़ी चुनौती है। डॉ चंद्रकांत लहारिया मेडिकल वेस्ट की लापरवाही पर कहते हैं कि इसे लेकर काम करने का तरीका काफी “एड-हॉक अप्रोच” वाला रहा है और किसी तरह का संगठित कार्यशैली वाला ढांचा खड़ा नहीं किया गया।
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