कॉप29: संकट में खाली गुल्लक
कॉप 29 में विकासशील देशों का सवाल: क्या जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए धनी देश और बहुराष्ट्रीय वित्तीय संस्थायें सुनिश्चित करेंगी खरबों की राशि?
अज़रबेजान की राजधानी बाकू में जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन अभूतपूर्व चुनौतियों के साये में हो रहा है। विश्व स्तर पर दो खूनी संघर्ष और दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्था में एक विवादास्पद चुनाव और जलवायु परिवर्तन को हौव्वा कहने वाले शख्स की जीत – एक महत्वपूर्ण मुद्दा सबके सामने और केंद्र में बना हुआ है: जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई का वित्तपोषण।
ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया को जलवायु परिवर्तन से होने वाली वार्षिक क्षति 59 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जायेगी, जो कि इसके वर्तमान सकल घरेलू उत्पाद के आधे से भी अधिक है। ऐसे समय में जबकि हिंसा और संघर्ष नए चक्रों पर हावी हैं, विश्व स्तर पर मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसान का मीटर 16 मिलियन डॉलर प्रति घंटे की चौंका देने वाली लागत पर टिक-टिक कर रहा है। हालांकि यह स्पष्ट है कि इसका समाधान बिना पर्याप्त वित्तीय जुटाव के नहीं हो सकता।
वर्तमान जलवायु वित्त पोषण प्रतिबद्धताएं भी जितना फाइनेंस जुटायेंगी वह कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था के प्रयोग से धरती को ठंडा करने और सबसे कमजोर लोगों की रक्षा करने के लिए खरबों डॉलर से कम पड़ रही हैं। यह बाकू में चल रही COP29 में भाग लेने वाले लगभग 200 देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस को महत्वपूर्ण बनाता है।
एक साझा लक्ष्य की ज़रूरत
इस वर्ष, राष्ट्रों को विकासशील देशों के लिए आवश्यक धन लाने के लिए एक नया वित्त लक्ष्य निर्धारित करना है। इसे न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनसीक्यूजी) कहा जाता है।
एनसीक्यूजी 2009 में अमीर देशों द्वारा 2020 तक सालाना 100 अरब डॉलर देने के लिए की गई पिछली प्रतिबद्धता की जगह लेगा – एक लक्ष्य जो अभी तक पूरा नहीं हुआ है। आज तक, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और जर्मनी जैसे 23 ज्यादातर उच्च आय वाले देशों की एक सूची — जिसे कन्वेंशन के अनुलग्नक II के रूप में जाना जाता है — विकासशील देशों की मदद के लिए वित्तीय योगदान देने के लिए संयुक्त रूप से जिम्मेदार हैं।
एनसीक्यूजी से जलवायु संकट से निपटने की वास्तविक लागत का पता चलेगा। अकेले विकासशील देशों के लिए यह रकम सालाना $5.8 ट्रिलियन से $5.9 ट्रिलियन के बीच अनुमानित है, जिसमें मिटिगेशम (शमन) और एडाप्टेशन (अनुकूलन) दोनों प्रयास शामिल हैं। सौ अरब डॉलर के लक्ष्य को पूरा करने में धनी देशों की विफलता उनकी ओर से प्रतिबद्धता की कमी से कहीं अधिक दर्शाती है। यह धन आवंटित और उपयोग करने के तरीके में संरचनात्मक मुद्दों का खुलासा करता है।
लक्ष्य के तहत अधिकांश जलवायु वित्त ऋण के रूप में आया, जिससे कमजोर देशों पर कर्ज़ का बोझ और बढ़ गया। वर्ष 2013 और 2018 के बीच विकासशील देशों को प्रदान किया गया 70% से अधिक वित्त ऋण में था, अनुदान में नहीं, जिस कारण इन देशों को जलवायु संकट से निपटने के लिए आवश्यक सहायता मिलने के बजाय उन पर कर्ज़ और गहरा गया है। इसलिए अब कॉप29 की एनसीक्यूजी वार्ता में मुख्य फोकस यह सुनिश्चित करना होगा कि जो वित्त मिले वह सुलभ, न्यायसंगत और विकासशील देशों की वास्तविक जरूरतों को पूरा करता हो।
वित्तीय लक्ष्यों के प्रति विकसित देशों में अनिच्छा है और विकासशील देश चाहते हैं कि प्रतिबद्धताओं को उनके सामने आने वाली चुनौतियों के पैमाने के साथ जोड़ा जाए। इस कारण एनसीक्यूजी वार्ता के विवादास्पद बने रहने की पूरी संभावना है। एनसीक्यूजी को सफल बनाने के लिए, धनी देशों को केवल यह स्वीकार करने के अलावा और भी बहुत कुछ करना होगा कि उनके ऐतिहासिक उत्सर्जन का जलवायु संकट में प्रमुख योगदान रहा है। मुख्य चुनौती यह सुनिश्चित करना होगी कि अमीर देश अपने वादे पूरे करें।
संरचनात्मक बदलाव
धन जुटाने के लिए वैश्विक वित्तीय संरचनाओं में सुधार भी महत्वपूर्ण है जो धन का वितरण करता है। वर्तमान वैश्विक बहुपक्षीय फंडिंग के ढांचे को पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1944 में आयोजित ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में रखा गया था। यह भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका या पश्चिम और पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था विकसित होने से दशकों पहले की बात है।
ब्रेटन वुड्स समझौते के तहत बनाए गए दो प्रमुख वित्तीय संस्थानों में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए कोई जगह नहीं थी, जिनमें से कई विकासशील देशों पर विकसित दुनिया के शोषण के लिए कब्ज़ा कर लिया गया था।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की स्थापना वैश्विक मौद्रिक सहयोग सुनिश्चित करने, विनिमय दरों को स्थिर करने और भुगतान संतुलन संकट का सामना करने वाले देशों को अल्पकालिक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए की गई थी। पुनर्निर्माण और विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय बैंक (आईबीआरडी), जो बाद में विश्व बैंक समूह का हिस्सा बन गया, युद्धग्रस्त यूरोप के पुनर्निर्माण में सहायता के लिए बनाया गया था। इसने बाद में विकासशील देशों में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए ऋण और वित्तीय सहायता प्रदान करना शुरू किया।
हालांकि बाद के दशकों में नए वित्तीय संस्थान स्थापित किए गए, लेकिन आईएमएफ और विश्व बैंक ने वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अपना दबदबा बनाए रखा। यदि राष्ट्र बेहतर ऋण दरें और कम कर्ज़ चाहते हैं तो बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) के भीतर सुधार ज़रूरी हैं क्योंकि इससे जलवायु वित्त पोषण प्रवाह को सुधारने के लिए एक महत्वपूर्ण रास्ता खुलता है। एमडीबी भले ही विकासशील देशों में धन पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन उनके भी वोटिंग शेयर के असमान वितरण के कारण उनकी आलोचना होती है क्योंकि यह असमानता उन्हें पक्षपाती और अलोकतांत्रिक बनाती है। डब्ल्यूबीजी और आईएमएफ में संयुक्त राज्य अमेरिका के पास सबसे बड़ी वोटिंग शक्ति बनी हुई है। उसके पास 15% से अधिक वोटिंग पावर है। इस कारण उसे फैसलों पर वीटो करने का अधिकार मिल जाता है। डब्ल्यूबीजी और आईएमएफ के अधिकांश निर्णयों के लिए 50% बहुमत की आवश्यकता होती है, जबकि कुछ महत्वपूर्ण मामलों में 70% या 85% सकारात्मक वोटों की दर की आवश्यकता होती है।
बारबाडोस के प्रधान मंत्री, मिया मोटली द्वारा प्रस्तावित हालिया ब्रिजटाउन पहल ने वर्तमान वैश्विक वित्तीय ढांचे की सीमाओं पर ध्यान आकर्षित किया और एमडीबी से रियायती वित्तपोषण बढ़ाने, ऋण राहत की पेशकश करने और जलवायु-संवेदनशील देशों को अनुदान बढ़ाने का आह्वान किया, जो गलत तरीके से काम कर रहे हैं। यह एक ऐसे संकट का खमियाज़ा भुगत रहे हैं जो उन्होंने पैदा नहीं किया बल्कि अपने अस्थिर ऋण बोझ को बढ़ा दिया।
वर्ष 2023 में जी20 शिखर सम्मेलन में भारत की अध्यक्षता में एमडीबी सुधारों पर भी प्रकाश डाला गया था। इसमें नेताओं ने जलवायु वित्त में अरबों नहीं बल्कि खरबों को जुटाने की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की थी। एमडीबी को मजबूत करने की प्रतिबद्धता सही दिशा में एक कदम था, लेकिन इन उच्च-स्तरीय चर्चाओं को ठोस कार्यों में बदलने के लिए बहुत काम बाकी है। बाकू में हो रही COP29 इन सुधारों को आगे बढ़ाने का एक और अवसर है। विकासशील देशों की मांग है कि एमडीबी उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप अधिक रियायती वित्त प्रदान करें।
एशियाई विकास बैंक ने पिछले महीने एक नए लक्ष्य को मंज़ूरी दी। इसके तहत वर्ष 2030 तक अपने वार्षिक ऋण का 50% जलवायु वित्त में समर्पित करने और निजी क्षेत्र की पूंजी जुटाने को बढ़ावा देना शामिल है। यह लक्ष्य 2019 और 2030 के बीच संचयी जलवायु वित्त में $100 बिलियन डॉलर-आधारित लक्ष्य से जुड़ा है, जिसमें अब तक केवल $30 बिलियन का योगदान हुआ है।
जलवायु वित्त के भविष्य को आकार देने में G20 और COP29 से बहुत उम्मीद भी नहीं की जा सकती। वर्ष 2023 में जी20 शिखर सम्मेलन एक महत्वपूर्ण क्षण था, जिसमें नेताओं ने माना कि जलवायु संकट से निपटने के लिए बहुपक्षीय सुधार और निजी क्षेत्र की लामबंदी आवश्यक है। एमडीबी को अधिक जोखिम लेने और जलवायु-संबंधित ऋण बढ़ाने के लिए प्रेरित करने का समझौता एक सकारात्मक कदम था, लेकिन बाकू सम्मेलन में इस मुहिम को कैसे आगे बढ़ाया जाता है यह महत्वपूर्ण होगा।
पहेली का अहम हिस्सा
नई दिल्ली के नेताओं की घोषणा में स्वीकार किया गया कि विकासशील दुनिया को अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के लिए 2030 तक $5.9 ट्रिलियन की आवश्यकता होगी, और शून्य-उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए हर साल अतिरिक्त $4 ट्रिलियन की आवश्यकता होगी। यह 2030 तक $34 ट्रिलियन की भारी भरकम राशि है – जो अमेरिका की $28.78 ट्रिलियन की जीडीपी से अधिक है। वार्षिक आधार पर, यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5% है।
हालाँकि सार्वजनिक वित्तपोषण और एमडीबी सुधार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं होंगे। दुनिया भर के लगभग 140 निम्न-मध्यम-आय वाले देशों के लिए जलवायु वित्त अंतर को पाटने के लिए सभी हितधारकों को आगे आने की आवश्यकता होगी। स्वच्छ ऊर्जा और अनुकूलन परियोजनाओं में वैश्विक निवेश को 2030 तक प्रति वर्ष $4 ट्रिलियन से अधिक करने की आवश्यकता है, फिर भी निजी पूंजी का योगदान जितना आवश्यक है उस पैमाने पर काफी धीमा रहा है।
अप्रैल के मध्य में वाशिंगटन डीसी में आईएमएफ की बैठक में, चर्चा उच्च धन लागत की निरंतरता और देशों के इस समूह में निजी पूंजी जुटाने में प्रगति की कमी पर केंद्रित थी। यूएनएफसीसीसी द्वारा स्थापित दुनिया के सबसे बड़े बहुपक्षीय जलवायु कोष, ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) के अनुसार, निजी क्षेत्र वर्तमान में 210 ट्रिलियन डॉलर से अधिक की संपत्ति का प्रबंधन करता है, लेकिन इसका केवल एक बहुत ही छोटा हिस्सा जलवायु निवेश में लगाया जाता है।
विकासशील देशों को भी उन क्षेत्रों में अपनी नीतियों को बेहतर बनाना होगा जहां राजनीतिक अस्थिरता, मुद्रा अस्थिरता और नियामक अनिश्चितता उनकी पूंजी खोने के जोखिम को बढ़ाती है। सरकारें निजी निवेशकों के कुछ अग्रिम जोखिमों को घटाने के लिए मिश्रित वित्त जैसे उपकरणों का उपयोग करके एमडीबी के साथ काम कर सकती हैं।
इसके अलावा कार्बन मूल्य निर्धारण, विनियमन और समग्र निवेश परिदृश्य पर स्पष्ट, सुसंगत नीतियों की कमी से व्यवसायों के लिए दीर्घकालिक जलवायु परियोजनाओं की योजना बनाना और निवेश करना मुश्किल हो जाता है। समस्या को नियामक ढांचे के माध्यम से हल किया जा सकता है जो जलवायु समाधानों में निजी पूंजी प्रवाह के लिए स्थिर, पूर्वानुमानित वातावरण बनाता है। कंपनियों को जोखिम प्रबंधन में मदद करने के लिए राष्ट्रों में एडाप्टेशन और रेजिलिएंस एक्शन प्लान लागू करने की भी आवश्यकता है।
कार्बन बाजारों को मिटिगेशन प्रोजेक्ट्स के लिए अरबों डॉलर के वित्त को अनलॉक करने के साधन के रूप में देखा जा रहा है लेकिन यहां ग्रीनवॉशिंग और कार्बन क्रेडिट में धोखाधड़ी की व्यापक चिंतायें हैं। पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6, जो एक वैश्विक कार्बन बाजार बनाने का प्रयास करता है, COP29 में मुख्य फोकस होगा। साथ ही विकासशील देशों में, विशेष रूप से अनुकूलन के लिए अधिक विश्वसनीय परियोजनाओं को सुनिश्चित करने पर चर्चा की उम्मीद है। यदि वित्तीय प्रतिबद्धताएं विज्ञान की मांग के अनुसार पूरी नहीं होती हैं, तो अरबों लोगों को गर्म होते ग्रह के विनाशकारी परिणामों को झेलना होगा। दुनिया देख रही है, और सब कुछ दांव पर लगा है।
कॉप29: एनसीक्यूजी पर जारी है विवाद
क्लाइमेट फाइनेंस के लिए एनसीक्यूजी के प्रमुख विवरणों पर विकसित और विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेद हैं। क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा से लेकर डोनर्स की संख्या पर विवाद हैं और आम सहमति तक पहुंचना मुश्किल लग रहा है।
अज़रबैजान की राजधानी बाकू में 29वां वार्षिक जलवायु महासम्मलेन (कॉप-29) शुरू हो चुका है। इस बार क्लाइमेट फाइनेंस की मात्रा तय करने की मांग अहम् है, जिससे विकासशील देशों की तत्कालिक आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।
सम्मलेन के दूसरे ही दिन जी77 समूह और चीन ने क्लाइमेट फाइनेंस के न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनक्यूसीजी) पर वर्तमान मसौदे को बातचीत के लिए अयोग्य बताते हुए दृढ़ता से खारिज कर दिया। उन्होंने विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए अनुकूलन (अडॉप्टेशन), शमन (मिटिगेशन) और हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) के लिए $1.3 ट्रिलियन के वार्षिक लक्ष्य की वकालत की। समूह ने डोनर बेस में विकासशील देशों को शामिल करने के प्रयासों का विरोध करते हुए इस बात पर जोर दिया कि केवल विकसित देशों को ही इस लक्ष्य की जिम्मेदारी उठानी चाहिए।
भारत ने भी लाइक माइंडेड डेवलपिंग कंट्रीज़ (एलएमडीसी) समूह के हिस्से के रूप में विकसित देशों से न्यायसंगत वित्तीय सहायता का आह्वान किया। एलएमडीसी ने चिंता जताई कि रिपोर्ट किए गए क्लाइमेट फाइनेंस का लगभग 69 प्रतिशत कर्ज के रूप में दिया गया था, जिससे पहले से ही कमजोर देशों पर वित्तीय बोझ बढ़ गया।
सितंबर में जारी की गई दूसरी आवश्यकता निर्धारण रिपोर्ट (एनडीआर) में कहा गया कि विकासशील देशों को उनके राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) की प्राप्ति में सहायता करने के लिए 2030 तक संचयी रूप से $5.012-6.852 ट्रिलियन डॉलर के क्लाइमेट फाइनेंस की आवश्यकता होगी।
बीते 9 अक्टूबर को बाकू में एनक्यूसीजी पर विभिन्न देशों के मंत्रियों की उच्च-स्तरीय वार्ता आयोजित की गई थी। जिसका कोई उत्साहवर्धक नतीजा नहीं निकला।
विकसित देशों द्वारा क्लाइमेट फाइनेंस की मात्रा पर स्पष्ट सुझाव की कमी के कारण कॉप29 में किसी सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचने में देरी हो रही है। हाल ही में, भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेन्द्र यादव ने मांग की थी कि क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा स्पष्ट की जाए। दूसरे विकासशील देशों ने भी इसका समर्थन किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि बाजार दरों पर दिया जाने वाला कर्ज, वाणिज्यिक शर्तों के तहत दिया जाने वाला प्राइवेट फाइनेंस और आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) या घरेलू संसाधन आदि क्लाइमेट फाइनेंस नहीं है।
अक्टूबर में बाकू में हुई एनसीक्यूजी की बैठक में, वार्ता के मसौदे को अगले स्तर पर ले जाने के लिए सह-अध्यक्षों द्वारा विकसित संशोधित इनपुट पेपर पर आई प्रतिक्रियाओं पर चर्चा के दौरान विकसित और विकासशील देशों के बीच असहमति खुलकर सामने आई।
कई बिंदुओं पर विवाद था — एनसीक्यूजी कितना होना चाहिए, उसमें हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) को शामिल किया जाना चाहिए या नहीं, डोनर्स की संख्या, एनसीक्यूजी की संरचना (सिंगल लेयर या मल्टीलेयर), और क्या प्राइवेट फाइनेंस लाना है या पब्लिक फाइनेंस पर टिके रहना है। लेकिन विवाद का जो मुद्दा लगातार बना हुआ है और जिस पर आम सहमति बनाना शायद सबसे कठिन होगा, वह है क्लाइमेट फाइनेंस की स्पष्ट परिभाषा।
बातचीत में जो सबसे महत्वपूर्ण विषय उभर कर आए वह निम्न हैं।
सबके सहयोग की मांग पर मतभेद
विकसित देश लगातार मांग कर रहे हैं कि डोनर्स की संख्या बढ़ाई जाए। यूनाइटेड किंगडम ने कहा कि वह “डोनर बनने के लिए तैयार है, लेकिन जितना फाइनेंस आवश्यक है उसके लिए डोनर्स की वर्तमान संख्या को व्यापक रूप से बढ़ाने की जरूरत है”। इटली ने भी इस बात का समर्थन किया, और कहा कि “अर्थव्यवस्थाएं बदल गई हैं”। कुल मिलाकर, विकसित देशों का मानना है कि हालांकि वे “अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हट रहे हैं”, एनसीक्यूजी “एक सामूहिक लक्ष्य है और इसलिए इसमें व्यापक योगदान होना चाहिए”।
दूसरी ओर, विकासशील देश यूएनएफसीसीसी के समानता के सिद्धांत और सीबीडीआर-आरसी (कॉमन बट डिफ्रेंशिएटेड रिस्पांसिबिलिटीज़ एंड रिस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज, यानि जलवायु संकट से निपटने की साझा जिम्मेदारी लेकिन उत्सर्जन में विभिन्न-स्तरीय योगदान और हर देश द्वारा उसकी क्षमता के आधार पर समर्थन। इन सिद्धांतों का अर्थ है कि जहां जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों की है, वहीं ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन में अधिक योगदान देने वाले और अधिक संसाधनों से संपन्न विकसित देशों को इस प्रयास में बड़ी भूमिका निभानी चाहिए) के साथ-साथ विकसित देशों द्वारा अधिक जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता पर जोर देते रहे। भारत ने कहा कि पेरिस समझौता विकासशील देशों पर फाइनेंस प्राप्त करने के बदले विशिष्ट शर्तें लगाने की अनुमति नहीं देता है।
तकनीकी प्रस्तुतियों में कनाडा और स्विट्जरलैंड जैसे विकसित देशों ने प्रति व्यक्ति आय या संचित या प्रति व्यक्ति उत्सर्जन जैसे संभावित मानदंड सुझाए। स्विट्जरलैंड के अनुसार, वह चाहता है कि ऐसे गैर-विकसित देश जो “दस सबसे बड़े वर्तमान उत्सर्जकों में शामिल हैं और जिनकी प्रति व्यक्ति क्रय शक्ति समता समायोजित सकल राष्ट्रीय आय 22,000 डॉलर से अधिक है“, वह भी इसमें योगदान करें।
इससे सऊदी अरब, चीन और रूस भी उन देशों की सूची में शामिल हो जाएंगे जिन्हें क्लाइमेट फाइनेंस फंडिंग में योगदान देना आवश्यक है। हालांकि, ऐतिहासिक उत्सर्जन जैसे अन्य मानदंडों पर आधारित अध्ययन, चीन और उच्च उत्सर्जन वाली दूसरी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को इससे बाहर रखते हैं।
ब्राज़ील ने “अर्थव्यवस्थाएं बदलने के कारण डोनर्स का बेस बढ़ाने” के इस नैरेटिव का जवाब दिया: “हमने कई पार्टियों से सुना है कि जब हम पेरिस समझौते पर सहमत हुए थे तब से दुनिया बदल गई है, लेकिन हम आपको याद दिला दें कि दुनिया 1945 के बाद से भी बदली है जब हमने अंतर्राष्ट्रीय शासन पर फैसला किया था लेकिन ऐसे मंचों के तहत निर्णायक पार्टियों के दायित्वों में कोई बदलाव नहीं आया है”।
चीन, सिंगापुर और ग्लोबल साउथ के दूसरे देश आपसी सहयोग के मार्गों द्वारा क्लाइमेट फाइनेंस में स्वैच्छिक योगदान देना जारी रखेंगे, लेकिन उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि डोनर बेस को व्यापक बनाने का कोई भी विचार एनसीक्यूजी की मूल भावना के विपरीत है।
इसके अलावा, शोध में पाया गया है कि कई विकासशील देश स्वेच्छा से क्लाइमेट एक्शन के लिए अन्य विकासशील देशों को क्लाइमेट फाइनेंस दे रहे हैं, लेकिन उनके योगदान को काफी हद तक मान्यता नहीं मिली है क्योंकि वे आधिकारिक चैनलों के तहत इसे दर्ज नहीं कराते हैं।
प्राइवेट फाइनेंस पर जोर
एनसीक्यूजी की संरचना की बात करें तो विकसित देश “प्राइवेट फाइनेंस को शामिल करते हुए एक बहुस्तरीय संरचना” की वकालत कर रहे हैं। दूसरी ओर, विकासशील देश इसको लेकर इतना उत्साहित नहीं है। कांगो ने कहा कि एनसीक्यूजी में कम से कम 60% फाइनेंस होना चाहिए, सऊदी अरब ने निजी फाइनेंस को “ख़ारिज” कर दिया।
हालांकि, बहुस्तरीय ढांचे की समझ को लेकर भी पार्टियों के बीच बड़े मतभेद हैं।
संरचना पर बहस के जवाब में मुख्य मुद्दे पर ध्यान वापस लाने के प्रयास में ब्राजील ने कहा, “यह बहस हम तब कर सकते हैं जब हम अनुच्छेद 2.1सी पर चर्चा करेंगे। इस बहस की हमें अभी ज़रूरत नहीं है।” उसने यह भी कहा कि “अनुच्छेद 9 पहले से ही वे संरचनाएं मौजूद है जिनके बारे में हमें सोचने की ज़रूरत है” — जिसके मूल में निहित है कि विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को धन दिया जाना चाहिए।
ऐसा माना जाता है कि विकसित देशों के हस्तक्षेप से बातचीत का ध्यान मौजूदा विषय से भटक जाता है, ताकि क्लाइमेट फाइनेंस जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रगति में देरी हो सके।
बहुपक्षीय विकास बैंकों की भूमिका
विशेषज्ञों का कहना है कि अमीर देशों की योजना बहुपक्षीय विकास बैंकों (बड़े अंतर्राष्ट्रीय बैंक जो विकास परियोजनाओं के लिए कर्ज और अनुदान देते हैं) या अन्य देशों के साथ सीधी साझेदारी के माध्यम से धन मुहैया कराने की है। इन पैसों का उपयोग उन बैंकों द्वारा निजी कंपनियों से अतिरिक्त धन आकर्षित करने के लिए किया जाएगा, जिससे परियोजनाओं के लिए उपलब्ध कुल राशि में वृद्धि होगी।
द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) की प्रतिष्ठित फेलो आर आर रश्मि बताती हैं, “100 बिलियन डॉलर का पिछला लक्ष्य भी पूरी तरह से अनुदान नहीं था। इसका लगभग 20-25% द्विपक्षीय या बहुपक्षीय चैनलों के माध्यम से दिए जाने वाले अनुदान के रूप में था। यहां भी वैसा ही होने की संभावना है। आधिकारिक विकास चैनलों के माध्यम से थोड़ा कोर फाइनेंस प्रदान किया जाएगा और फिर इसे एमडीबी के माध्यम से निजी क्षेत्र के फंड्स द्वारा बढ़ाया जाएगा। लेकिन यह बड़े पैमाने पर लोन या उधार के रूप में होगा।”
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट (आईआईईडी) के एक हालिया विश्लेषण में पाया गया कि दुनिया के सबसे गरीब और सबसे अधिक संवेदनशील देशों को जलवायु संकट से निपटने के लिए जितना फंड मिलता है उसके दोगुने से अधिक वह कर्ज का भुगतान करने के लिए खर्च कर रहे हैं।
रश्मी ने कहा कि पब्लिक फाइनेंस मिश्रित वित्तपोषण सुविधाओं या उपकरणों (सार्वजनिक और निजी फाइनेंस को संयोजित करने वाली वित्तीय व्यवस्था) जैसे रचनात्मक तरीकों का उपयोग करके एकत्रित धन को सस्ता बनाने में मदद कर सकता है, जिससे कर्ज की लागत कम हो सकती है। “ऐसा होगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बाकू का सम्मलेन रियायत के सवाल को संबोधित करने के लिए तैयार है या नहीं”।
इस सम्मलेन को ‘फाइनेंस कॉप’ कहा जा रहा है, इसके बावजूद बैंक ऑफ अमेरिका, ब्लैकरॉक, स्टैंडर्ड चार्टर्ड और डॉयचे बैंक जैसे शीर्ष वित्तीय संस्थानों के मालिक इससे अनुपस्थित रह सकते हैं। उनका कहना है कि यहां उनके लिए पर्याप्त व्यावसायिक अवसर नहीं हैं।
खतरे में लॉस एंड डैमेज
फ्रांस, बेल्जियम, आयरलैंड और स्पेन सहित ग्लोबल नार्थ के कई देशों ने इस बात पर जोर दिया कि पहले “सबसे कमजोर” देशों को फाइनेंस दिया जाना चाहिए। इससे पहले जब यूरोपीय संघ ने लॉस एंड डैमेज फंड गठित करने का प्रस्ताव दिया था तब भी ऐसा ही कहा था। ऐसी शर्तों पर फंड की पेशकश करके विकसित देश विभिन्न आकार की अर्थव्यवस्थाओं वाले विकासशील देशों के बीच तनाव पैदा कर सकते हैं।
नेपाल, गाम्बिया, एआईएलएसी, जी77 जैसे विकासशील देशों और समूहों ने ध्यान दिलाया कि एनसीक्यूजी के तहत मिटिगेशन और अडॉप्टेशन के साथ-साथ जस्ट ट्रांज़िशन और लॉस एंड डैमेज को भी शामिल किया जाना चाहिए। किसी भी विकसित देश ने लॉस एंड डैमेज का उल्लेख नहीं किया है, जो संकेत है कि एनसीक्यूजी के तहत इसे शामिल किया जाने पर संदेह है।
अधर में लटके एनडीसी
नवीनतम एनडीसी सिंथेसिस रिपोर्ट से पता चलता है कि विभिन्न देशों के मौजूदा क्लाइमेट प्लान पर्याप्त नहीं हैं। चूंकि सभी देश नए एनडीसी पर काम कर रहे हैं जिन्हें अगले वर्ष जारी किया जाएगा, सार्थक क्लाइमेट एक्शन के लिए एक प्रभावी और निष्पक्ष क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य महत्वपूर्ण होगा। एनसीक्यूजी के नतीजे संभवतः विभिन्न देशों की महत्वाकांक्षा और भविष्य के लक्ष्यों को पूरा करने की उनकी क्षमता को आकार देंगे। एक निष्पक्ष एनसीक्यूजी ग्लोबल साउथ और ग्लोबल नॉर्थ के बीच विश्वास के पुनर्निर्माण में भी मदद कर सकता है, हालांकि इस लक्ष्य पर आम सहमति बनती नहीं दिख रही है।
कॉप29: क्लाइमेट फाइनेंस की चुनौती और वर्षों से लटके वादों का बोझ
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव साल-दर-साल बदतर होते जा रहे हैं। दुनिया का कोई भी हिस्सा इसके विनाशकारी परिणामों से अछूता नहीं है। सितंबर 2024 में नेपाल में भीषण बाढ़ ने काठमांडू और आस-पास के जिलों को अपनी चपेट में ले लिया, जिससे भूस्खलन हुए और कई घर बह गए, सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों विस्थापित हुए। इससे पहले मार्च और जून के बीच, भारत और पाकिस्तान में रिकॉर्ड तोड़ तापमान और लंबे समय तक चलने वाली हीटवेव देखी गई, जिससे दैनिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। कई मौतें हुईं और बड़े पैमाने पर लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। उधर कैरेबियन और दक्षिणी अमेरिका में 2024 के मध्य से ही तूफानों ने तबाही मचाई हुई है; और कनाडा में अभूतपूर्व जंगलों की आग ने बहुत बड़े वनक्षेत्र को झुलसा दिया है। ये आपदाएं एक चिंताजनक प्रवृत्ति को उजागर करती हैं: कि जलवायु परिवर्तन अब कोई भविष्य का ख़तरा नहीं बल्कि हमारे सामने खड़ा संकट है, जो सबसे कमज़ोर क्षेत्रों और आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।
जलवायु महासम्मेलन (कॉप29) से पहले, सवाल कायम है कि क्या विकसित देश अंततः क्लाइमेट फाइनेंस पर अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करेंगे, या फिर एक बार फिर विफलता ही हाथ लगेगी, जिसका खमियाजा लाखों लोगों को अपनी जान गंवा कर भुगतना होगा?
चेतावनियों के बावजूद क्लाइमेट फाइनेंस के मोर्चे पर नाकामी
अक्टूबर 2024 में यूएनईपी ने अपनी ताजा एमिशन गैप रिपोर्ट जारी की, जिसने साबित कर दिया कि भले ही 2030 तक उत्सर्जन में आवश्यक कटौती के लिए विभिन्न देश अपनी सभी वर्तमान जलवायु प्रतिज्ञाओं को पूरा करें, तो भी इस सदी के अंत तक धरती के तापमान में 2.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने का अनुमान है। यदि ऐसा हुआ तो धरती कई खतरनाक टिपिंग पॉइंट्स को पार कर जाएगी, जिससे खाद्य सुरक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और जैव विविधता को खतरा होगा। वर्तमान वैश्विक उत्सर्जन और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए आवश्यक कटौती के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। इस विफलता का एक प्रमुख कारण है विकसित देशों से अपर्याप्त वित्तीय सहायता। विकासशील देशों को अधिक वित्तीय संसाधन मुहैया कराए बिना दुनिया के सबसे कमजोर समुदायों की बिगड़ते जलवायु प्रभावों से रक्षा नहीं की जा सकेगी।
यूएनईपी रिपोर्ट के तुरंत बाद, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) सिंथेसिस रिपोर्ट जारी की गई। 195 पार्टियों के योगदान को संकलित करती यह रिपोर्ट दोहराती है कि क्लाइमेट फाइनेंस नहीं मिलने के कारण कई विकासशील देश अपनी जलवायु प्रतिबद्धताएं पूरी करने में असमर्थ हैं। रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि मिटिगेशन एम्बिशन और फंडिंग में उल्लेखनीय वृद्धि के बिना दुनिया और अधिक उत्सर्जन की राह पर है। रिपोर्ट का अनुमान है कि 2030 में कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन 2019 की तुलना में केवल 2.6% कम होगा — जो 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के अनुरूप रहने के लिए आवश्यक कटौती से बहुत कम है। ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन में काफी कम योगदान देने वाले विकासशील देश जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं, फिर भी उन्हें आवश्यक शमन (मिटिगेशन) और अनुकूलन (अडॉप्टेशन) उपायों को लागू करने के लिए बहुत कम समर्थन मिल रहा है।
विकासशील देश लंबे समय से क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा बदलने की मांग कर रहे हैं, जिसमें कर्ज की बजाय अनुदान को प्राथमिकता दी जाए और हानिकारक लोन साइकिल को ख़त्म किया जाए। ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ), अडॉप्टेशन फंड और हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) फंड (एफआरएलडी) जैसे बहुपक्षीय जलवायु फंडों से अनुदान यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि क्लाइमेट एक्शन कमजोर देशों को वित्तीय संकट में न धकेल दे।
नया जलवायु वित्त लक्ष्य: कौन देगा, किसे मिलेगा और कितना
नए कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनसीक्यूजी) — यानि पुराने 100 अरब डॉलर के लक्ष्य को बदलकर 2025 के लिए नए वित्तीय लक्ष्य के निर्धारण को इस महीने बाकू में कॉप29 जलवायु सम्मेलन के दौरान अंतिम रूप दिया जाना है।
अफ्रीकी देश, अरब समूह और भारत जैसे विकासशील देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने में सहायता के लिए पब्लिक फाइनेंस के रूप में सालाना कम से कम 1 ट्रिलियन डॉलर की मांग कर रहे हैं। जैसा कि इस लेख में रेखांकित किया गया है, विकसित देश इस बात पर सहमत हैं कि पब्लिक फाइनेंस को एनसीक्यूजी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनना चाहिए, लेकिन कितना फाइनेंस देना है इस बात पर अस्पष्टता बनी हुई है। संयुक्त राज्य अमेरिका समेत विकसित देश इस बात जोर दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जिस स्तर में फाइनेंस आवश्यक है, उस तक पहुंचने के लिए एनसीक्यूजी की संरचना एक वैश्विक निवेश लक्ष्य के रूप में करनी चाहिए जो फंडिंग और निवेश के कई स्रोतों में विभाजित हो। इस परिभाषा में न केवल स्वच्छ ऊर्जा और रेसिलिएंस परियोजनाओं में निवेश करने वाली निजी कंपनियां शामिल होंगी (जिनसे पहले से ही ज्यादातर अमीर देश और कुछ बड़े विकासशील देश लाभान्वित होते हैं) बल्कि इसमें वे प्रयास भी शामिल होंगे जो विकासशील देश पहले से ही, अमीर देशों से अडॉप्टेशन या लॉस एंड डैमेज के लिए पर्याप्त समर्थन मिले बिना, अपने दम पर कर रहे हैं।
जबकि, द गार्जियन में प्रकाशित एडवोकेसी ग्रुप ऑयल चेंज इंटरनेशनल द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि अमीर देश संपत्ति और कॉर्पोरेट टैक्स के संयोजन के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन पर कार्रवाई के माध्यम से सालाना 5 ट्रिलियन डॉलर जुटा सकते हैं। रिपोर्ट का अनुमान है कि अरबपतियों पर संपत्ति कर लगाकर वैश्विक स्तर पर 483 अरब डॉलर जुटाए जा सकते हैं, जबकि वित्तीय लेनदेन पर टैक्स लगाकर 327 अरब डॉलर जुटाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, बड़ी प्रौद्योगिकी, हथियार और लक्जरी फैशन जैसे क्षेत्रों में बिक्री पर टैक्स से 112 अरब डॉलर प्राप्त किए जा सकते हैं, और दुनिया भर में मिलिट्री पर होनेवाले सार्वजनिक खर्च का 20% पुनर्आवंटन करके 454 अरब डॉलर मिल सकते हैं। जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी ख़त्म करके अमीर देशों में 270 अरब डॉलर और वैश्विक स्तर पर लगभग 846 अरब डॉलर का सार्वजनिक वित्त उपलब्ध हो सकता है, जबकि जीवाश्म ईंधन निष्कर्षण पर टैक्स लगाकर अमीर देशों में 160 अरब डॉलर और दुनिया भर में 618 अरब डॉलर पैदा किए जा सकते हैं।
विवाद का एक और बड़ा मुद्दा यह है कि फाइनेंस किसे देना चाहिए और किसे मिलना चाहिए। विकसित देश जोर दे रहे हैं कि चीन, खाड़ी देशों जैसे धनी विकासशील और भारत जैसी अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं को शामिल करके डोनर्स की सूची को और व्यापक किया जाए। लेकिन इससे कॉमन बट डिफ़रेंशिएटेड रिस्पॉन्सिबिलिटीज़ ऐंड रिस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज़ (सीबीडीआर-आरसी) का सिद्धांत कमजोर होता है, जो यूएनएफसीसीसी फ्रेमवर्क का केंद्र है। सीबीडीआर-आरसी का अर्थ है कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ कार्रवाई में विकसित देशों को विकासशील और अल्पविकसित देशों की तुलना में ज़्यादा ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, क्योंकि विकसित देशों ने विकास के दौरान सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन किया है और वह जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं। विकासशील देश और सिविल सोसाइटी इसी बात पर जोर देते हैं कि ऐतिहासिक प्रदूषकों के रूप में औद्योगिक देशों को क्लाइमेट फाइनेंस के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी उठानी चाहिए।
जबकि चीन और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने अनिवार्य योगदान को नकारा है, और इस बात पर जोर दिया है कि विकसित देश दूसरों से मांग करने से पहले अपने दायित्वों को पूरा करें।
इस लेखक ने द हिंदुस्तान टाइम्स से कहा था, “पिछले 150 से अधिक वर्षों से जीवाश्म ईंधन पर आधारित औद्योगीकरण से समृद्ध हुए अमीर देश 1990 के दशक से उत्सर्जन की गिनती शुरू नहीं कर सकते। वे जलवायु परिवर्तन के लिए ऐतिहासिक रूप से ज़िम्मेदार हैं, और अब समय आ गया है कि उन्हें यह जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। विकासशील देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस डोनेशन या व्यावसायिक निवेश नहीं है — यह क्षतिपूर्ति का मामला है। इस संकट का बोझ उन लोगों पर नहीं डाला जाना चाहिए जो इसके लिए बमुश्किल जिम्मेदार हैं।”
विकसित देशों का तर्क है कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को अपनी बढ़ती संपत्ति और उत्सर्जन के कारण फाइनेंस में योगदान देना चाहिए, लेकिन वे जलवायु परिवर्तन के लिए अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। यह क्लाइमेट जस्टिस का एक मूल सिद्धांत है, जो उन्हें क्लाइमेट एक्शन की फंडिंग के लिए मुख्य रूप से जवाबदेह बनाता है। इसके बावजूद, एक ओर ग्लोबल साउथ द्वारा व्यापक योगदान पर जोर देते हुए विकसित देशों ने दूसरी ओर जीवाश्म ईंधन के उपयोग का विस्तार जारी रखा है, और अधिकांश जिम्मेदारी दूसरों पर डाल दी है।
वहीं, उदाहरण के लिए, चीन ने महत्वपूर्ण स्वैच्छिक योगदान दिया है, जिसमें 2013 से 2022 के बीच क्लाइमेट एक्शन के लिए 45 अरब डॉलर शामिल हैं। इसी तरह, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और दक्षिण कोरिया ने क्रमशः फंड फॉर रिस्पॉन्डिंग टू लॉस एंड डैमेज (एफआरएलडी) और जीसीएफ में योगदान दिया है।
विकसित देश पब्लिक फाइनेंस को उन देशों तक सीमित करने का प्रयास कर रहे हैं जिन्हें वे सबसे कमजोर मानते हैं — जिन्हें अल्पविकसित देश (एलडीसी), लघुद्वीपीय विकासशील राज्य (एसआईडीएस) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। हालांकि इसे क्लाइमेट फाइनेंस की दिशा और प्रभाव में सुधार करने के तरीके के रूप में तैयार किया गया है लेकिन कई विकासशील देश इसे एक विभाजनकारी रणनीति के रूप में देखते हैं जिसका उद्देश्य बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को आवश्यक समर्थन से वंचित करना है। इस रणनीति से विकासशील देशों की एकता कमजोर होने का खतरा है, जैसा कि एनसीक्यूजी वार्ता के अंतिम चरण और कॉप28 में हानि और क्षति कोष के गठन के दौरान हुआ था।
इस बात पर भी असहमति बढ़ रही है कि क्या एनसीक्यूजी में लॉस एंड डैमेज (हानि और क्षति) के लिए फंडिंग शामिल होनी चाहिए। सिविल सोसइटी समर्थित विकासशील देशों की दलील है कि हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) को शमन (मिटिगेशन) और अनुकूलन (अडॉप्टेशन) के साथ क्लाइमेट फाइनेंस का तीसरा स्तंभ माना जाना चाहिए। उनकी सिफारिश के कारण कॉप27 में फंड फॉर रिस्पॉन्डिंग टू लॉस एंड डैमेज (एफआरएलडी) का गठन हुआ, जो अब यूएनएफसीसीसी के वित्तीय तंत्र का एक हिस्सा है। हालांकि, अमीर देश एनसीक्यूजी में लॉस एंड डैमेज को शामिल करने का विरोध करते हैं। इसके लिए वह पेरिस समझौते हवाला देते हैं, जिससे इस तरह के समर्थन को बाहर रखा गया है। बढ़ती जलवायु संबंधी आपदाओं को देखते हुए, अधिक समय तक यह रुख बनाए रखना कठिन है।
क्या कॉप29 में विश्वास बहाल होगा?
क्लाइमेट फाइनेंस केवल भविष्य की परियोजनाओं के बारे में नहीं है; यह ग्लोबल नॉर्थ द्वारा दशकों से पहुंचाई गई पर्यावरणीय क्षति की भरपाई का मामला है। नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित 2023 का एक अध्ययन ग्लोबल नॉर्थ और साउथ के कार्बन उत्सर्जन के बीच विशाल असमानताओं पर प्रकाश डालता है। अध्ययन के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, कनाडा, इज़राइल और अन्य अमीर देशों ने अपने कार्बन बजट के उचित हिस्से से आगे जा चुके हैं, 2050 तक यह वृद्धि तीन गुना अधिक होने की संभावना है। कार्बन बजट के इस बड़े हिस्से की लागत बहुत अधिक है: इन देशों पर सदी के मध्य तक कम उत्सर्जन करने वाले देशों का लगभग 192 अरब डॉलर बकाया है, यानि प्रति व्यक्ति सालाना 940 डॉलर। जलवायु संकट पैदा करने के लिए क्षतिपूर्ति और मुआवज़े की मांगें तेज़ हो रही हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या कॉप29 के दौरान अंततः इस घोर अन्याय पर ध्यान देने की शुरुआत होगी।
विकसित देशों की विश्वसनीयता खतरे में है। पिछले जलवायु सम्मेलनों में किए गए फाइनेंस के वादे बार-बार विफल रहे हैं, और क्लाइमेट एक्शन को न्याय की बजाय निवेश के रूप में देखा जाता है।
विकासशील देशों ने अपने बकाया मुआवजे के लिए बहुत लंबा इंतजार किया है। यदि समृद्ध देश पर्याप्त, सुलभ और पारदर्शी क्लाइमेट फाइनेंस प्रदान करने में विफल रहते हैं, तो संभव है कॉप29 भी टूटे वादों के लंबे इतिहास में एक और अध्याय बन जाए। वैश्विक क्लाइमेट जस्टिस का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि क्या विकसित देश अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सकते हैं या क्या उनकी निष्क्रियता दुनिया को और गहरे जलवायु संकट की ओर धकेल देगी।
पोस्ट स्क्रिप्ट – अमेरिका राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रम्प की सत्ता में वापसी से इस बात का पर्याप्त अंदेशा है कि बाकू सम्मेलन में जलवायु न्याय को लेकर संघर्ष बढ़ेगा। जीवाश्म ईंधन उत्पादन को बढ़ाने, जलवायु समझौतों को खारिज करने और जलवायु वित्त का विरोध करने की उनकी ज़िद एक नए, साहसिक और न्यायसंगत क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य की दिशा में संभावित प्रगति को ख़तरा है। ऐसे समय में जब दुनिया के देश विनाशकारी जलवायु प्रभावों को रोकने के कोशिश कर रहे हैं, ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक और जीवाश्म ईंधन उत्पादक होने के कारण अमेरिका का कर्तव्य है कि वह इस मुहिम का नेतृत्व करे।
ट्रम्प के रुख से वैश्विक स्तर पर भरोसा विश्वास कम होने और बढ़ते जलवायु संकट में कमजोर देशों के अलग-थलग पड़ने का खतरा है। अब पहले से कहीं अधिक, राज्यों, जनता और जलवायु कार्रवाई के लिए प्रतिबद्ध कंपनियों को विकासशील दुनिया के साथ सच्ची एकजुटता दिखाने के लिए अपने घरेलू प्रयासों को मजबूत करना चाहिए।
(हरजीत सिंह एक क्लाइमेट एक्टिविस्ट हैं और फॉसिल फ्यूल ट्रीटी इनिशिएटिव में ग्लोबल एंगेजमेंट निदेशक हैं। वह @harjeet11 हैंडल से एक्स पर पोस्ट करते हैं।)