एक वाइरस आदमी को ठहरा देता है!

Newsletter - April 2, 2020

थमी ज़िंदगी: कोरोना वाइरस ने ज़िंदगी थाम दी है। परिवहन के थम जाने से फूड सप्लाई पर तो असर पड़ेगा है, कृषि का अगला चक्र भी प्रभावित हो सकता है: फोटो - India Today

कोरोना, क्लाइमेट और दुनिया की खाद्य सप्लाई में बदलाव

चीन, यूरोप और अमेरिका के बाद अब भारत कोरोना वाइरस से लड़ रहा है। इस महामारी से पैदा हुये संकट का एक हिस्सा फूड सप्लाई चेन पर पड़ने वाला असर भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लॉकडाउन की घोषणा के बाद  वित्तमंत्री की ओर से राहत पैकेज का ऐलान किया गया जिसमें अगले 3 महीनों तक देश के 80 करोड़ लोगों के लिये प्रति परिवार हर महीने 1 किलो दाल और प्रति व्यक्ति पांच किलो चावल या आटा देने की बात कही।

खाद्य और कृषि संगठन (FAO) ने यह डर जताया है कि फूड सप्लाई में व्यवधान का असर अप्रैल और मई माह में खाने पीने की चीज़ों की बढ़ी कीमतों में दिख सकता है। कन्सल्टिंग फर्म फिच सॉल्यूशन्स ने “उत्पादन से लेकर व्यापार तक हर स्तर पर” फूड चेन को खतरे की बात रेखांकित की है।

इससे पहले अफ्रीका के साथ मध्य और दक्षिण एशिया में टिड्डियों के आतंक की वजह से खाद्य सुरक्षा पर चोट पड़ी। आईपीसीसी पहले ही कह चुकी है कि बढ़ते तापमान के कारण उत्पादन पर असर पड़ रहा है और खाद्य पदार्थों की कीमतों में उछाल होगा। ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण एशिया और अफ्रीका में लम्बे सूखे की संभावना  और अन्य कारकों को देखते हुये यह ज़रूरी है कि वैश्विक खाद्य सप्लाई चेन में आपात स्थित को झेलने की ताकत हो।

भारत के खाद्य भंडारों में अभी साढ़े सात करोड़ टन अनाज है जो कि सामान्य बफर से तीन गुना अधिक है लेकिन लॉकडाउन की आधिकारिक घोषण से भी पहले सप्लाई चेन की दरार दिखाई देने लगी। मार्च 20 और 22 के बीच 35% ग्राहक ई-कॉमर्स सेवाओं से सामान नहीं खरीद सके। अगले दो दिनों में ऐसे ग्राहकों की संख्या उछलकर 79% हो गई।  मार्च 20 और 22 को 17% ग्राहक रिटेल स्टोर से ज़रूरी सामान नहीं ले पाये।  लॉकडाउन का असर रबी की फसल की कटाई पर भी पड़ रहा है क्योंकि मज़दूर और ट्रांसपोर्ट उपलब्ध नहीं है और मंडियां बन्द हैं।  एक नये अध्ययन के मुताबिक जलवायु में गड़बड़ियों के कारण दुनिया के एक क्षेत्र में लंबे वक्त तक पड़ने वाला नकारात्मक असर वैश्विक खाद्य श्रंखला पर असर डाल सकता है जिससे कीमतें आसमान छू सकती हैं।


क्लाइमेट साइंस

सुखद बदलाव: ओज़ोन की परत को बचाने के लिये दुनिया भर के देशों के बीच सहयोग असर दिखा रहा है। फोटो – New Scientist

कोरोना: “प्रकृति हमें एक पैगाम दे रही है,”

संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण प्रमुख इंगर एंडरसन ने कहा है कि कोरोना वाइरस महामारी के ज़रिये प्रकृति हमें एक संदेश भेज रही है। एंडरसन ने कहा कि दुनिया प्रकृति पर बेइंतहा दबाव डाल रही है और धरती के विनाश को नज़रअंदाज़ करके हम अपना भला नहीं कर सकते।

जाने माने वैज्ञानिकों ने भी कहा है कि कोरोना महामारी एक चेतावनी है कि वन्य जीवन के भीतर बेहद खतरनाक बीमारियां छुपी हैं और आज हम “आग के साथ खेल रहे हैं”। वैज्ञानिकों ने कहा कि यह हमेशा गलत मानवीय तौर तरीके ही ऐसी बीमारी इंसान पर लादते हैं। जानकारों के मुताबिक आगे ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ प्रकृति का विनाश रोकना होगा क्योंकि उसकी वजह से वन्य जीवों की इंसानी समाज से दूरी घट रही है।

बिहार: तटबंधों की निगरानी के लिये ड्रोन का इस्तेमाल

बाढ़ आपदा प्रबंधन के लिये बिहार ने तय किया है मॉनसून के दौरान ड्रोन से निगरानी की जायेगी। इस बारे में एक विस्तृत योजना तैयार की जा रही है। माना जा रहा है कि इस साल से ही यह प्रयोग शुरू होगा। पहले चरण में 12 ड्रोन इस काम में लगाये जायेंगे।

क्या ओज़ोन लेयर भर रही है?

पिछले पखवाड़े एक अच्छी ख़बर आई।   पश्चिमी गोलार्ध का मौसम और समुद्री धारायें तय करने वाली दक्षिण जेट स्ट्रीम का बहाव अब वापस अपने सामान्य रास्ते पर लौट रहा है। साल 2000 से बहाव का यह ग्राफ दक्षिण की ओर था।

पत्रिका नेचर में छपे एक नये शोध में बताया गया है कि इस बदलाव की वजह दुनिया भर में ओज़ोन को नष्ट करने वाले रसायनों के खिलाफ चली मुहिम है। इससे यह उम्मीद भी जगी है कि अगर दुनिया भर की सरकारें संगठित होकर सही कदम उठायें तो क्लाइमेट सिस्टम को हुये कुछ नुकसान की भरपाई ज़रूर की जा सकती है।

पिघल रही है धरती की सबसे गहरी बर्फ की घाटी

पूर्वी अंटार्टिक की डेनमन घाटी पर पिघलने का ख़तरा मंडरा रहा है। यह धरती पर बर्फ की सबसे गहरी घाटी है। अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी नासा की रिपोर्ट बताती है कि इसके आसपास समुद्र का गर्म होता पानी इसे पिघला रहा है। यह एक बेहद चिंताजनक बात है क्योंकि अगर इस घाटी की सारी बर्फ पिघल गई तो समुद्र सतह 1.5 मीटर ऊपर उठ जायेगा।


क्लाइमेट नीति

प्राथमिकता में बदलाव: संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि कोरोना संकट को देखते हुये अभी सारा पैसा पहले इस हेल्थ इमरजेंसी से लड़ने में खर्च होगा। ज़ाहिर है जलवायु परिवर्तन की जंग कोरोना का शिकार बन रही है। फोटो – Business Insider

संयुक्त राष्ट्र का ध्यान जलवायु परिवर्तन से हटकर कोरोना पर

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रिस ने साफ कहा है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग के बजाय फिलहाल सभी देशों की प्राथमिकता कोरोना वाइरस से लड़ना है। गुट्रिस ने यह बात एक ऑनलाइन प्रेस कांफ्रेंस में कही। उन्होंने कहा कि ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकना और पेरिस समझौते के लक्ष्य हासिल करना अब भी एजेंडा में हैं लेकिन फिलहाल सारा पैसा इस महामारी के नियंत्रण में खर्च होगा।

कोरोना वाइरस ने विकासशील देशों की योजनाओं पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। सभी देशों को इस साल नवंबर में यूके के ग्लासगो में होने वाले महासम्मेलन से पहले अपने क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार करने हैं लेकिन अब हो सकता है कि इस सम्मेलन के आयोजन में ही देरी हो।

कोरोना प्रभाव: फिक्की ने ऊर्जा क्षेत्र के लिये राहत मांगी

कोरोना महामारी फैलने के बाद अब उद्योग संघ फिक्की ने सरकार से कहा है कि वह ऊर्जा क्षेत्र में  पैसा डाले और पावर कंपनियों के एनपीए को फिलहाल सस्पेंड कर दे।  महामारी ने पावर सेक्टर पर भी काफी असर किया है।  फरवरी में बिजली की खपत में आये 10.8% उछाल के बाद मार्च के पहले दो हफ्तों में खपत 3.6% गिर गई। बिजली वितरण कंपनियों ने उत्पादन कर रही कंपनियों को भुगतान रोक दिया है। राज्य सरकारों द्वारा उपभोक्ताओं से बिल न वसूले जाने को इसकी वजह बताया जा रहा है।

रुस के नये क्लाइमेट एक्शन प्लान से जानकार खुश नहीं

जानकारों ने रूस के संशोधित क्लाइमेट एक्शन प्लान की कड़ी आलोचना की है। इस प्लान के मुताबिक 2030 तक रूस के ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन बढ़ते रहेंगे। नयी योजना के मुताबिक 2030 तक रूस के उत्सर्जन 1990 की तुलना में 51% अधिक होंगे। हालांकि यह उसके अब तक के रोडमैप से बेहतर है क्योंकि उसके रहते 2030 में रूस के यही उत्सर्जन 1990 के मुकाबले 75% अधिक होते। लेकिन जानकार कहते हैं कि नये लक्ष्य का भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि इससे हालात में कोई वास्तविक बदलाव नहीं होगा।


वायु प्रदूषण

लॉकडाउन का असर: कोरोना वाइरस के संक्रमण को रोकने के लिये किये गये लॉकडाउन का असर प्रदूषित रहने वाले शहरों पर साफ दिख रहा है जहां एयर क्वॉलिटी में बड़ा सुधार दिखा है Photo: NASA/EU Copernicus

कोरोना: प्रदूषित शहरों में ख़तरा अधिक

अधिक प्रदूषण से भरे शहरों में रहने वाले लोगों को कोरोना वाइरस से अधिक सतर्क रहने की ज़रूरत है। ये चेतावनी उन विशेषज्ञों ने दी है जो लम्बे समय से वायु प्रदूषण के सेहत पर असर का अध्ययन कर रहे हैं।  इनमें कोलकाता, दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में स्टेज – 3 कोरोना संकट का बड़ा असर हो सकता है। कोलकाता में घनी आबादी के कारण यह खतरा सबसे अधिक बताया जा रहा है। इन शहरों में ज़्यादातर लोगों खासतौर से बुज़ुर्गों के फेफड़ों की ताकत कम हो जाती है जो कि वाइरस के अटैक के बाद उनके लिये मुश्किल बन सकती है।

कोरोना: लॉकडाउन ने की शहरों की हवा साफ

भारत के सभी बड़े शहर दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में हैं लेकिन पिछले दिनों कोरोना वाइरस के हमले के बाद घोषित किये गये लॉकडाउन के कारण इन शहरों की एयर क्वॉलिटी में सुधार हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने 22 मार्च के दिन जनता कर्फ्यू का आह्वान किया और उस दिन देश भर में NO2 का औसत स्तर रिकॉर्ड निचले लेवल पर रहा। यह गैर वाहनों औऱ पावर प्लांट्स की चिमनियों से निकलती है और कई बीमारियों के लिये ज़िम्मेदार है।  इसी तरह सारे वाहनों के रोड से हट जाने के कारण दिल्ली का PM 2.5 का स्तर करीब चार गुना कम हो गया है। सभी शहरों में एयर क्वॉलिटी इंडेक्स संतोषजनक स्तर पर रिकॉर्ड किया जा रहा है जो कि कोरोना के चुनौती भरे क्षणों में एकमात्र  बड़ी उपलब्धि है।


साफ ऊर्जा 

प्रोजेक्ट पर पड़ा असर: भारत ने कोरोना महामारी के मद्देनज़र साफ ऊर्जा प्रोजेक्ट्स की डेडलाइन में ढील दी है। Photo: Brookings Institute

कोविड-19: साफ ऊर्जा प्रोजेक्ट्स की डेडलाइन खिसकी, 6 महीने की देरी मुमकिन

कोरोना महामारी को रोकने के लिये किये गये देशव्यापी लॉकडाउन के चलते सरकार ने अभी बन रहे साफ ऊर्जा प्रोजेक्ट्स को पूरा करने की समय सीमा तीन महीने तक बढ़ा दी है। समय सीमा में यह छूट हर प्रोजेक्ट के हिसाब से इन बातों को ध्यान में रखकर दिया जायेगा कि लॉकडाउन कब तक चलता है और काम कब से शुरू हो पाता है। सरकार की ओर से उठाये गये इस कदम से कंपनियों पर पेनल्टी का खतरा टल गया है।

कंपनियों को लगता है कि प्रोजक्ट के शुरुआत की तारीख में 6 महीने की देरी हो सकती है। इससे सोलर रूफ टॉप का 2022 तक रखा गया 40 GW लक्ष्य ज़रूर प्रभावित होगा क्योंकि उसकी कुल क्षमता अभी 3 GW ही बन पाई है।   सरकार ने राज्यों से कहा है कि लॉकडाउन के वक्त भी साफ ऊर्जा सामग्री की आवाजाही को न रोका जाये।

कोरोना लॉकडाउन: बिजली की मांग गिरी, साफ ऊर्जा का दबदबा बढ़ा

क्या साफ ऊर्जा पर भारत की निर्भरता बढ़ रही है। अभी कोरोना महामारी के दौर में तो यही लग रहा है। पिछले साल इसी वक्त के मुकाबले इस साल भारत की पीक एनर्जी डिमांड में 25-40% की गिरावट हुई है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 दिनों में कुल बिजली उत्पादन में 25% गिरावट दर्ज हुई है। पिछले साल के मुकाबले यह गिरावट 30% है। इस दौर में ज़्यादातर बिजली साफ ऊर्जा के स्रोतों से बन रही है। अभी भारत के कुल बिजली उत्पादन में साफ ऊर्जा का हिस्सा 27-29% है जो जो कि मार्च के तीसरे हफ्ते के मुकाबले 7-10% अधिक है।  

सोलर पावर: 2022 तक तय लक्ष्य से पीछे रह सकता है भारत

संसद की स्थाई समिति ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में कहा है कि साफ ऊर्जा मंत्रालय को 2022 तक जो लक्ष्य हासिल करना है उसे पाने के लिये एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना होगा। जनवरी के अंत तक कुल साफ ऊर्जा क्षमता 86.32 गीगावॉट थी। सरकार ने कहा है कि साल 2019-20 के लिये उसका कुल सोलर पावर का लक्ष्य 8,500 मेगावॉट था जिसमें  से 31 जनवरी तक 5,885 मेगावॉट हासिल किया गया। साल 2022 तक भारत का कुल सौर ऊर्जा का लक्ष्य एक लाख मेगावॉट है जिसमें से अब तक केवल 34,000 मेगावॉट हासिल हुआ है।

मंत्रालय का कहना है कि साफ ऊर्जा प्रोजेक्ट लगाने वाली कंपनियां ज़मीन अधिग्रहण समेत कई समस्याओं का सामना कर रही हैं। इससे पहले पावर मिनिस्ट्री ने कहा था कि वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) साफ ऊर्जा नहीं लेना चाहती क्योंकि जितनी सोलर या विन्ड पावर वह खरीदती हैं उन्हें थर्मल पावर में उतनी कटौती करनी पड़ती है जबकि नियमों के हिसाब से 1.60 रु प्रति यूनिट फिक्स चार्ज थर्मल प्लांट को चुकाना ही पड़ता है। इससे 2.44 रु प्रति यूनिट वाली सोलर उन्हें 4.04 रु प्रति यूनिट हो जाती है। इसके अलावा सोलर की उपलब्धता और पीक डिमांड के वक्त न मिलने को लेकर भी कंपनियां अनमनी रहती है।

हरियाणा: डिस्कॉम के कारण 1,000 मेगावॉट सोलर रूफटॉप प्रोजेक्ट अटका

क्या अपनी दादागिरी बरकरार रखने के लिये हरियाणा की बिजली वितरण कंपनियां राज्य के रूफ टॉप प्रोजेक्ट्स में अडंगा लगा रही हैं। कम से कम सौर पैनल लगा रही कंपनियों का तो यही आरोप है। उनका कहना है कि ‘ओपन एक्सिस’ की मदद से वह बिना डिस्कॉम के ज़रिये सीधे ग्रिड तक बिजली पहुंचा सकते हैं लेकिन इसके लिये उन्हें वितरण कंपनियों की सहमति चाहिये। कंपनियों का कहना है कि वितरण कंपनियां इस स्कीम में अडंगा लगा रही हैं क्योंकि बिचौलिया बने बगैर उन्हें घाटा होता है। इस वजह से 1000 मेगावॉट क्षमता के पैनल बिजली नहीं दे पा रहे।  


बैटरी वाहन 

साफ सवारी: बैटरी वाहनों का प्रयोग वातावरण में गैसोलीन के मुकाबले CO2 कम करता है और दुनिया के 95% हिस्सों में यह बात लागू होती है। Photo: DrivingOn

बैटरी वाहनों का प्रयोग घटाता है CO2 उत्सर्जन

एक नये शोध से पता चलता है कि पेट्रोल और डीज़ल के मुकाबले बैटरी वाहनों का इस्तेमाल दुनिया के 95% हिस्से में लाभकारी है क्योंकि इससे वातावरण में जाने वाले CO2 की मात्रा घटती है। हालांकि क्षेत्रीय अपवाद हैं क्योंकि ईवी का फायदा इस बात पर निर्भर है कि आप किस सोर्स से बैटरी चार्ज करते हैं। मिसाल के तौर पर स्वीडन और फ्रांस में बैटरी वाहन 70% कम CO2 छोड़ते हैं लेकिन यूके में यही अंतर केवल 30% है।

चीन में बैटरी वाहनों की बिक्री घटी पर टेस्ला है अपवाद

कोरोना वाइरस महामारी के कारण फरवरी में चीन की बैटरी वाहन बिक्री 77% कम हो गई। यहां फरवरी में केवल 11,000 वाहन बिके। इसकी तीन सबसे बड़ी कंपनियों BYD, BJEV और NIO की सेल 80%, 66% और 56% घटी। हालांकि “कॉन्टेक्टलेस टेस्ट ड्राइव” की मदद से टेस्ला ने फरवरी में कुल 3,900 गाड़ियां बेचीं जो जनवरी के मुकाबले 2,620 यूनिट अधिक हैं।

गुड़गांव: अमेरिकी कंपनी XNRGI ने लगाया लीथियम बैटरी प्लांट

अमेरिकी कंपनी XNRGI ने दिल्ली से सटे गुड़गांव में 240MWh/year क्षमता के लीथियम आयन बैटरी प्लांट का उदघाटन किया है। कंपनी की नज़र भारत के बढ़ते ई-रिक्शा बाज़ार पर है। कंपनी का दावा है कि उसकी बैटरियां 2 घंटे में 80% तक चार्ज हो जायेंगी और 55 डिग्री तक के तापमान में काम कर सकती हैं।


जीवाश्म ईंधन

बद से बदतर: साल 2019 में 47GW क्षमता के कोल पावर प्रोजेक्ट रद्द किये गये Photo: Grist

कोल पावर: कुल क्षमता घटी पर ऊर्जा क्षेत्र में दबदबा कायम, नये प्लांट चलाना होगा मुश्किल

द बूम एड बस्ट रिपोर्ट 2020 के मुताबिक साल 2019 में 47.4 GW क्षमता के निर्माणाधीन कोल पावर प्लांट रद्द हो गये और केवल 2.9 GW क्षमता के नये बिजलीघरों का प्रस्ताव किया गया। हालांकि 8.8 GW क्षमता के नये प्लांट निर्माणाधीन है जो कि सरकारी बजट पर ही निर्भर हैं क्योंकि निजी कंपनियों ने कोल पावर से हाथ खींच लिया है।

भले ही भारत की कुल कोल पावर क्षमता घट रही है लेकिन कुल बिजली उत्पादन में कोल पावर का हिस्सा बढ़ा है। इस क्षेत्र पर नज़र रखनी वाली IEEFA मुताबिक जो भी नये पावर प्लांट कोयला खान के पास नहीं लगेंगे उन्हें चलाना वित्तीय रूप से घाटे का सौदा ही होगा।

कोयला दुनिया का सबसे महंगा ईंधन बना, चीन में बना रहेगा इसका अहम रोल

कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट के बाद कोयला आज दुनिया का सबसे महंगा ईंधन हो गया है। कच्चा तेल $27 प्रति बैरल हो गया है जबकि कोयला $66.85 प्रति मीट्रिक टन है जो कि तेल के मुकाबले महंगा पड़ रहा है। हालांकि कोरोना वाइरस के जाल से निकलने के बाद चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिये करीब $7 लाख करोड़ निवेश करने की तैयारी की है और इस राह में कोयला ही उसका प्रमुख  ईंधन रहेगा।

लोगों के विरोध के बाद भी कोल-बेड-मीथेन पर सरकार की नज़र

कोयला मंत्रालय आने वाले दिनों में कोल-बेड-मीथेन यानी सीबीएम का उत्पादन बढ़ाना चाहता है। इसके ज़रिये वह घरेलू ईंधन की खपत को पूरा करेगी। अनुमान है कि देश में 92 लाख करोड़ घन फिट (TCF) सीबीएम है जो कि दुनिया में इस ईंधन का पांचवां सबसे बड़ा भंडार है। सरकार का इरादा साल 2023-24 तक 10 लाख यूनिट (MMSCMD) सीबीएम प्रति दिन निकालने का है। 

हालांकि तमिलनाडु ने हाल ही में सीबीएम के लिये ओएनजीसी को दिये गये लाइसेंस को रद्द किया जिसमें तेल निकालने की अनुमति भी थी। इससे कावेरी डेल्टा बेसिन में ड्रिलिंग होती जिसका किसान विरोध कर रहे थे। भारत का सीबीएम भंडार झारखंड और बंगाल समेत 12 राज्यों में बिखरा है और अंदेशा है कि इसके दोहन को बड़ी संख्या में तीखे विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ेगा।