हर साल दिवाली के बाद आनेवाला प्रदूषण का मौसम भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) को एक बार फिर आपात स्थिति में ले आया है। प्रदूषण और खराब वायु गुणवत्ता के कारण हेल्थ इमरजेंसी की स्थिति पैदा हो गई है। उत्तर भारत में हर साल सर्दी के दौरान ठंडा तापमान, जमीन के पास अधिक नमी और हवा की धीमी गति प्रदूषकों को फंसा देती है। इसे ‘इनवर्ज़न’ प्रभाव कहा जाता है। इसका अर्थ है कि प्रदूषक ऊपर उठकर फैल नहीं पाते। वाहनों, निर्माण कार्य, उद्योगों और पटाखों से निकलने वाला धुआँ तेजी से जमा होकर स्मॉग बना देता है। इस समस्या से निपटने के लिए एक बार फिर लंबे समय के उत्सर्जन नियंत्रण पर ध्यान देने के बजाय, अधिकारियों ने तात्कालिक तकनीकी उपायों का सहारा लिया।
क्लाउड सीडिंग का विफल प्रयास
‘ग्रीन’ पटाखों पर लगे प्रतिबंध में ढील के बाद वायु गुणवत्ता में तेज गिरावट आई। इसके बाद दिल्ली सरकार ने आपात उपाय के रूप में क्लाउड सीडिंग को मंजूरी दी। इसके लिए आईआईटी कानपुर ने दो दिन तक परीक्षण किया, जिसमें सिल्वर आयोडाइड जैसे साल्ट-बेस्ड फ्लेयर लगे एक विमान का प्रयोग किया गया। इसका उद्देश्य कृत्रिम बारिश कराना था।
कुछ इलाकों में हल्की बूंदाबांदी हुई, लेकिन वायु गुणवत्ता निगरानी केंद्रों में कोई ठोस सुधार दर्ज नहीं हुआ, यानी हवा में मौजूद पार्टिकुलेट प्रदूषण पर इसका खास असर नहीं पड़ा।
वैज्ञानिक आपत्तियां और विशेषज्ञता की कमी
वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम), केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) जैसे विशेषज्ञ संस्थानों ने इस प्रयास का विरोध किया था। उनका कहना था कि मानसून के बाद दिल्ली में पर्याप्त नमी वाले बादल नहीं होते। ऐसे बादल क्लाउड सीडिंग के लिए जरूरी होते हैं।
विशेषज्ञों ने समझाया कि क्लाउड सीडिंग नए बादल नहीं बना सकती। यह केवल तभी बारिश को तेज करती है, जब पहले से पर्याप्त नमी मौजूद हो।
इसके बावजूद यह परियोजना आईआईटी कानपुर को सौंपी गई, जहां एटमॉस्फियरिक साइंस का अलग से कोई विभाग नहीं है।
इसी तरह ‘ग्रीन’ पटाखों को लेकर भी विवाद रहा। वैज्ञानिकों का कहना था कि ये पटाखे भी हानिकारक प्रदूषक छोड़ते हैं। इन्हें पर्यावरण के अनुकूल बताना स्थापित पर्यावरण विज्ञान को गलत तरीके से पेश करता है और लोगों को भ्रमित करता है।
विज्ञान और नीति में तालमेल जरूरी
असफल क्लाउड सीडिंग प्रयोग ने वैज्ञानिक जांच, एजेंसियों के बीच समन्वय और जवाबदेही की कमी को उजागर किया है। विशेषज्ञों का कहना है कि जो तकनीकें लाखों लोगों को प्रभावित करती हैं, उन्हें वैज्ञानिक रूप से सिद्ध होना चाहिए। वे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार हों और क्षेत्र के विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में लागू की जाएं। ऐसा न होने पर आपात उपाय प्रभावी समाधान बनने के बजाय केवल महंगे दिखावे बनकर रह जाते हैं, और वायु प्रदूषण समस्या जस की तस बनी रहती है।
(यह लेख मोंगाबे इंडिया से सभार लिया गया है। इसे अंग्रेजी में विस्तार से यहां पढ़ा जा सकता है।)
Rajeev Kumar
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