कॉप28: जीवाश्म ईंधन खत्म करने का प्रस्ताव, लेकिन नीयत पर संदेह
लंबी खींचतान के बाद आखिरकार दुबई वार्ता में एक नये क्लाइमेट प्रस्ताव पर सहमति हो गई लेकिन इसमें जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को खत्म करने या भारी कटौती के लिए कड़े प्रावधानों का अभाव है। अमीर और विकसित देशों ने “ट्रांजिशन फ्यूल” के नाम तेल और गैस के प्रयोग का रास्ता खुला रखा है। इसमें मिटिगेशन (ग्रीन हाउस गैसों को कम करने के उपाय) के लिये कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी विवादित टेक्नोलॉजी के प्रयोग को भी डील में शामिल किया है।
तीन दशकों से अधिक समय से संयुक्त राष्ट्र का यह सालाना सम्मेलन हो रहा है। हर साल इस सम्मेलन की तैयारियों और वार्ता से जुड़े मुद्दों की बारीकियों पर चर्चा के लिये अलग से वार्तायें होती हैं। इस साल वार्ता का एक प्रमुख एजेंडा ग्लोबल स्टॉकटेक यानी जीएसटी था। इसका अर्थ है कि पिछले 5 सालों में सभी देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन प्रभावों को रोकने के लिये उठाये गये कदमों का मूल्यांकन करना और आगे की राह बनाना।
ऐसा पहली बार हुआ कि ग्लोबल स्टॉकटेक डील के अंतिम दस्तावेज़ में ‘जीवाश्म ईंधन’ का लिखित रूप में ज़िक्र किया गया। इस दस्तावेज़ में, जिसे यूएई कंसेंसस कहा जा रहा है, “सभी देशों से एक न्यायपूर्ण, व्यवस्थित और आनुपातिक ज़िम्मेदारी के साथ जीवाश्म ईंधन से दूर हटने” का आह्वान किया गया है। लेकिन “ट्रांजिशन फ्यूल” के नाम पर तेल और गैस जैसे ईंधन के प्रयोग और उत्पादन का रास्ता खुला रखा गया है, भले ही “कोयले के अनियंत्रित प्रयोग को कम करने की दिशा में रफ्तार बढ़ाने” की बात कही गई है, जिसका असर विकासशील देशों पर अधिक पड़ेगा।
शुरुआत में विवाद लेकिन एक फंड का क्रियान्वयन
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के इस 28वें सम्मेलन की शुरुआत 30 नवंबर को हुई, और यह एक दिन आगे बढ़कर 13 दिसंबर को समाप्त हुआ। वार्ता शुरुआत से ही विवादों में घिरी रही। पहले बीबीसी की एक रिपोर्ट में कहा गया कि मेज़बान यूएई इस सम्मेलन का प्रयोग तेल और गैस के सौदों के लिए करेगा। फिर यह ख़बर कि दुबई वार्ता के सम्मेलन स्थल में तेल और गैस के कारोबार को बढ़ाने वाले करीब 2,500 लॉबीकर्ता पहुंचे हैं। वार्ता के मध्य तब बड़ा बवाल हो गया जब तेल उत्पादक देशों (OPEC) के महासचिव की चिट्ठी लीक हुई जिसमें सभी ओपेक देशों से कहा गया था कि वह संधि में जीवाश्म ईंधन फेज़ आउट वाली भाषा का विरोध करें।
लेकिन फिर भी पहले दिन लॉस एंड डैमेज फंड के क्रियान्वयन ने कुछ उम्मीदें बढ़ाई। इस फंड की स्थापना का ऐलान पिछले साल शर्म-अल-शेख में हुई क्लाइमेट वार्ता में किया गया था। हालांकि फंड में अभी तक 700 मिलियन डॉलर की ही राशि का वादा हुआ है, जो कि सालाना 400 बिलियन डॉलर की ज़रूरत का 0.2 प्रतिशत भी नहीं है।
सम्मलेन के आखिरी दिन सहमति दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए गए।
कॉप28 को “सबसे समावेशी जलवायु वार्ता” कहा जा रहा था, लेकिन इसे लेकर भी दो मत बने रहे। मूलनिवासी समूहों के कई लोगों ने दावा किया कि महिलाओं, युवाओं और मूलनिवासी समुदायों की उपस्थिति सम्मलेन के अंदर की बजाय बाहर अधिक रही। वार्ता स्थल के अंदर और बाहर कई विरोध प्रदर्शन भी हुए। इसमें 12 वर्षीय भारतीय पर्यावरण कार्यकर्ता लिसिप्रिया कंगुजम का विरोध प्रदर्शन भी शामिल था।
वार्ता के बाद प्रतिक्रिया मिलीजुली थी। सम्मलेन स्थल के बाहर, लघुद्वीपीय देशों, यूरोपीय देशों और कोलंबिया ने महत्वाकांक्षा बढ़ाने की वकालत की। विशेषज्ञों ने कहा कि वार्ता का अंत वैसा ही हुआ जैसा सुल्तान अल-जबेर चाहते थे। उन्होंने दुनिया के देशों को जीवाश्म ईंधन से दूर जाने के लक्ष्य पर राजी भी कर लिया और यह इस तरह हुआ कि तेल के प्रयोग की संभावना अब भी खुली है। अमेरिका, रूस, अरब देशों और तेल उत्पादन और उपभोग करने वाले देशों के लिये इससे अच्छी बात नहीं हो सकती थी।
वार्ता के महत्वपूर्ण बिन्दु
इस वार्ता में पहली बार इस बात का आकलन होना था कि अलग अलग देशों ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए पिछले पांच सालों में क्या उपाय किए और वह कितने कारगर रहे। क्लाइमेट चेंज की भाषा में इसे ग्लोबल स्टॉकटेक, या जीएसटी, कहा जाता है। वार्ता में यह बात स्वीकार की गई की धरती के अस्तित्व को बचाने के लिए जितनी कोशिश होनी चाहिए, वह नहीं हो रही।
हर क्लामेट वार्ता में जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, तेल और गैस) का प्रयोग खत्म करने (फेज़आउट) के लिए हर साल भारी खींचतान होती है, क्योंकि पृथ्वी पर हो रहे कुल कार्बन उत्सर्जन का 80% हिस्सा इसी जीवाश्म ईंधन का है।
लेकिन पहली बार संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट चेंज कन्वेंशन के तहत हुई इस बैठक में जो मसौदा तैयार किया गया, और जिस प्रस्ताव पर सहमति बनी उसमें जीवाश्म ईंधन से दूर हटने की बात कही गई है। और इसकी मदद से 2050 तक नेट ज़ीरो प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया है।
वैसे जीवाश्म ईंधन को फेज़आउट या कम से कम फेज़डाउन यानी खत्म करने या घटाने की बात होनी चाहिए थी, लेकिन जो संधि हुई है उसमें “ट्रांजिशन-अवे” यानी दूर हटने की बात कही गई, जो एक कमज़ोर भाषा है। लेकिन इसे कम से कम एक शुरुआत माना जा रहा है।
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि ट्रांजिशन फ्यूल के नाम पर गैस को छूट दी गई है। ताकि अमीर देश इसका प्रयोग जारी रखें। अपनी ऊर्जा ज़रूरतों और व्यापार के लिए तेल और गैस पर निर्भर देशों — चाहे अरब देश हों हों या अमेरिका, रूस और अन्य विकसित देश — इन सभी ने कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज या सीसीएस जैसी टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल को उत्सर्जन कम करने के तरीकों के रूप में दर्ज कराया। हालांकि विशेषज्ञों की राय सीसीएस की टेक्नोलॉजी की उपयोगिता पर एक नहीं है। तेल और गैस जैसे ईंधनों का इस्तेमाल विकसित देश अधिक करते हैं, और 21 पेज के इस दस्तावेज़ में तेल और गैस का कोई ज़िक्र नहीं है।
भारत और विकासशील देश जिनकी ऊर्जा ज़रूरतें कोयले पर टिकी हैं, उन पर कोयले का प्रयोग बन्द करने और किसी नए कोयला बिजलीघर में या कोल प्रोजेक्ट में निवेश न करने की शर्त लगाई जा रही थी लेकिन भारत ने चीन और दूसरे देशों के साथ मिलकर इसका कड़ा विरोध किया।
आखिरकार संधि में लिखा गया ‘फेजडाउन ऑफ अनअबेटेड कोल’, यानी उत्सर्जन रोकने के उपायों के बिना चलाए जा रहे कोयला प्रोजेक्ट को धीरे-धीरे कम करना। साथ ही, नए कोयला प्रोजेक्ट में निवेश न करने की पाबंदी वाली लाइन भी हटाई गई। ऊर्जा ज़रूरतों के हिसाब से भारत सरकार के लिए यह राहत देने वाली बात होगी।
इस सम्मेलन में तय हुआ कि 2030 तक वैश्विक अक्षय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना किया जाएगा, और ऊर्जा दक्षता अर्थात एनर्जी एफिशिएंसी को दोगुना किया जाएगा। इस मांग की शुरुआत जी-20 सम्मेलन के दौरान की गई थी। अंतर्राष्ट्रीय सोलर अलायंस के प्रमुख अजय माथुर ने इसका स्वागत करते हुए कहा कि प्रस्ताव में बात आ जाने से यह साफ हुआ है कि नेट ज़ीरो के लिए नवीनीकरणीय ऊर्जा कितनी ज़रूरी है।
सम्मेलन में मीथेन और दूसरी ग्रीन हाउस गैसों के इमीशन में व्यापक कटौती की बात कही गई। महत्वपूर्ण है कि कृषि क्षेत्र का मीथेन उत्सर्जन में बड़ा योगदान है। भारत और कई विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है और मीथेन उत्सर्जन में कटौती को लेकर अधिक महत्वाकांक्षी कदम वे नहीं उठा सकते।
क्लाइमेट फाइनेंस और एडाप्टेशन पर विकसित और अमीर देशों ने भाषा को काफी कमज़ोर किया है। उन्होंने यह तो माना है कि जलवायु संकट से लड़ने के लिए विकासशील देशों की ज़रूरत कई ट्रिलियन डॉलर की है लेकिन अपने उत्तरदायित्व से पल्ला झाड़ लिया है। आज चंद विकसित देशों की तरक्की की कीमत बाकी दुनिया ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभावों से चुका रही है, लेकिन यही कुछ देश गरीब और विकासशील देशों को क्लाइमेट फाइनेंस देने में आनाकानी कर रहे हैं।
कॉप28 ने ग्लोबल अडॉप्टेशन फ्रेमवर्क को अपनाया, लेकिन इस मोर्चे पर बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। विशेष रूप से उन संकेतकों की पहचान करना जो हर एक लक्ष्य की प्रगति को माप सकें। वर्तमान में अडॉप्टेशन डील में वित्तीय प्रावधानों का अभाव है, और आने वाले वर्षों में इसे मजबूत करने के लिए दुनिया को इस पर काम करना जारी रखना होगा।
ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) में छह और देशों ने फंडिंग का वादा किया और अब कुल मिलाकर 31 देशों ने इसमें रिकॉर्ड 12.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर देने की प्रतिज्ञा की है, जिसमें और योगदान की उम्मीद है। हालांकि, जैसा ग्लोबल स्टॉकटेक में दिखाया गया है, यह वित्तीय प्रतिज्ञाएं विकासशील देशों की एनर्जी ट्रांज़िशन और अडॉप्टेशन प्रयासों को लागू करने में मदद करने के लिए आवश्यक राशि से बहुत कम हैं, और इसके लिए वित्तीय ढांचे में बदलाव की जरूरत है। कॉप28 में विकासशील देशों की जरूरतों और प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए, 2024 में क्लाइमेट फाइनेंस पर एक नया लक्ष्य निर्धारित करने पर भी चर्चा हुई। बताया जा रहा है कि नया लक्ष्य, जो प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बेसलाइन से शुरू होगा, विभिन्न देशों के क्लाइमेट प्लान के कार्यान्वयन का आधार बनेगा।
विभिन्न देशों ने अडॉप्टेशन फंड, अल्पविकसित देश (एलडीसी) फंड, और स्पेशल क्लाइमेट चेंज फंड में योगदान करने की प्रतिज्ञाएं कीं। यूएई की अध्यक्षता में 13 देशों ने ग्लोबल क्लाइमेट फाइनेंस फ्रेमवर्क के घोषणापत्र पर भी हस्ताक्षर किए। इस फ्रेमवर्क में निवेश के माध्यम से भी फाइनेंस मुहैया कराने की बात की गई है। साथ ही, ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों में जहां निवेश पर निजी क्षेत्रों के मानकों के अनुसार रिटर्न मिलने की संभावना नहीं है, उन जगहों पर क्लाइमेट एक्शन सुगम बनाने के लिए कंसेशनल, यानी रियायती फाइनेंस की बात भी की गई है।
वहीं ब्रिटेन में हुए एक ताजा विश्लेषण के अनुसार, भारत, चीन और ब्राजील जैसे विकासशील देश ग्लोबल नॉर्थ के कई देशों की तुलना में क्लाइमेट फाइनेंस में अधिक योगदान करते हैं। कॉप-28 में भारत ने कहा कि अगले सात सालों में (2030 तक) वह अडॉप्टेशन पर करीब 57 लाख करोड़ रुपये खर्च करेगा।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
दिल्ली स्थित क्लाइमेट ट्रेन्ड की निदेशक आरती खोसला कहती हैं, “परिणाम सकारात्मक हैं लेकिन इसमें कई छेद हैं। पहली बार किसी जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में जीवाश्म ईंधन से दूर हटने की ज़रूरत को स्वीकार किया गया है और लिखित शब्दों में इसका अर्थ सिर्फ कोयले से नहीं बल्कि तेल और गैस से है।”
हालांकि संधि की भाषा पर जानकारों को आपत्ति है। खोसला कहती है कि “धरती की तापमान वृद्धि के मद्देनज़र तीव्र प्रयासों की प्रत्यक्ष ज़रूरत के बावजूद तेल और गैस को लेकर बड़ी रियायत बरती गई है। इस पर अधिक स्पष्टता की ज़रूरत है।”
इंटरनेशनल सोलर एलायंस के निदेशक डॉ अजय माथुर ने कार्बनकॉपी हिन्दी से कहा, “दुबई वार्ता में प्रगति से यह बात फिर रेखांकित हुई है कि नेट ज़ीरो हासिल करने के लिये नवीनीकरणीय ऊर्जा को अपनाना कितना ज़रूरी है।” उन्होंने कहा कि डील में वैश्विक साफ ऊर्जा क्षमता को तिगुना करने की जो बात कही गई है उसका आह्वान जी-20 सम्मेलन के दौरान किया गया था और अलग-अलग मंचों में इस मांग ने गति पकड़ी।
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के वैश्विक राजनीतिक रणनीति प्रमुख हरजीत सिंह का कहना है कि कई सालों तक नज़रें चुराने के बाद आखिरकार कॉप-28 में जलवायु संकट के असली गुनहगारों को कटघरे में खड़ा किया गया। उनका कहना है, “कोयले, तेल और गैस से दूर हटने के लिये लंबित प्रयास को अब दिशा मिली है। लेकिन इस प्रस्ताव में उन खामियों के कारण कमतर दिखता है जो जीवाश्म ईंधन उद्योग को अप्रमाणित और असुरक्षित टेक्नोलॉजी पर भरोसा करते हुये बचने का मौका देता है।”
दुबई वार्ता का मुख्य आकर्षण यह था कि इसमें दुनिया के देशों के क्लाइमेट एक्शन का आकलन होगा और इस दशक में आगे की राह के लिये कड़े लक्ष्य तय होंगे। खोसला कहती हैं, “बड़े कार्बन उत्सर्जकों को खुश करने के लिये ‘ट्रांजिशन फ्यूल’ के नाम पर गैस को मुफ्त छूट दे दी गई है जबकि इससे कार्बन इमीशन होगा है। विशेषकर अमेरिका, रूस और मिडिल ईस्ट जैसे देशों में इसके उत्पादन, प्रयोग और व्यापार को देखते हुये यह अस्वीकार्य है।”
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (साउथ एशिया) के निदेशक संजय वशिष्ठ कहते हैं, “दुबई वार्ता का परिणाम बताता है कि ये दुनिया सिर्फ अमीर और प्रभावशाली विकसित देशों की है। आखिरी प्रस्ताव से इक्विटी और मानवाधिकार के सिद्धांत का परिलक्षित न होना दिखाता है कि विकासशील देशों को स्वयं को सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी उनकी अपनी है और असली गुनहगार उनकी मदद के लिये कभी नहीं आयेंगे।”
वशिष्ठ ने कहा, “हम केवल जीवाश्म ईंधन शब्दावली को प्रस्ताव में अंकित कर देने से खुश नहीं हो सकते जब तक कि स्पष्ट नहीं है कि ये लागू कैसे होगा और इसमें एनर्जी ट्रांजिशन के लिये गरीब और विकासशील देशों के लिये वित्त का प्रावधान नहीं है। अगर यह ‘ऐतिहासिक परिणाम’ है तो यह गलत इतिहास लिखा गया है।”
विनाश के कगार पर धरती
जलवायु सम्मलेन में 200 वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें कहा गया कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती पर जीवन के लिए आवश्यक पांच महत्वपूर्ण सीमाएं (टिपिंग पॉइंट्स) पार होने वाली हैं। रिपोर्ट के अनुसार पांच प्रमुख टिपिंग पॉइंट्स हैं: ग्रीनलैंड और पश्चिमी अंटार्कटिक में बर्फ की चादरें, उत्तरी अटलांटिक उपध्रुवीय गायर सर्कुलेशन, गर्म पानी के कोरल रीफ और कुछ पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र। रिपोर्ट में कहा गया है इन टिपिंग पॉइंट्स को जितना खतरा अभी है उतना इतिहास में कभी नहीं रहा। यह रिपोर्ट एक चेतावनी है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण के धरती विनाश के कगार पर खड़ी है।
वहीं एक दूसरी रिपोर्ट विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने जारी की जिसमें कहा गया कि 2011-2020 के दशक में बिगड़ते जलवायु परिवर्तन ने भारत के मौसम को अधिक गर्म और आर्द्र बना दिया। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 2023 दुनिया के इतिहास में सबसे गर्म साल होगा। 2011 से 2020 के दौरान दुनिया के कई हिस्सों में अत्यधिक गर्म दिनों की संख्या 1961 से 1990 के बीच की अवधि के औसत के मुकाबले लगभग दोगुनी थी।
रिपोर्ट में भारत में 2013 में हुई केदारनाथ त्रासदी के साथ-साथ हाल ही में हुई बाढ़ और सूखे की घटनाओं का भी जिक्र है। सूखे के कारण फसलें बर्बाद हुईं जिससे भारत के 82% परिवारों के सामने खाद्यान्न का संकट पैदा हो गया। पानी की असमान उपलब्धता के कारण यह स्थिति बदतर हो गई। रिपोर्ट कहती है बाढ़ और सूखे से फसलों को हुए नुकसान के कारण देश की बड़ी आबादी को सरकारी राशन पर निर्भर होना पड़ा।
डब्ल्यूएमओ ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा कि दुनियाभर में ग्लेशियर एक मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघले।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने भी कहा कि हिमालय के ग्लेशियर चिंताजनक गति से पिघल रहे हैं और इस वार्ता में विकासशील देशों की जरूरतों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। लगभग 24 करोड़ लोग हिमालय के ग्लेशियरों और इनसे निकलने वाली सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी 10 प्रमुख नदियों पर निर्भर हैं। भारत सहित आठ देशों में इन नदियों के निचले प्रवाह में रहने वाले एक अरब लोग भी इन पर निर्भर हैं।
गौरतलब है कि इस वर्ष भारत के हिमालयी राज्यों उत्तराखंड और हिमाचल में बाढ़ और भूस्खलन ने भारी तबाही मचाई, जिसमें करीब 10-15 हज़ार करोड़ रुपए की आर्थिक क्षति हुई। इन आपदाओं से कई लोग विस्थापित भी हुए। कॉप28 के ग्लोबल स्टॉकटेक में विस्थापन और प्रवास के लेकर नीतियां और योजनाएं बनाने की जरूरत का तो ज़िक्र है लेकिन इसपर विस्तार से बात नहीं की गई है।
जलवायु परिवर्तन से जुड़ी इन चरम मौसमी घटनाओं के प्रभावों और कारणों से निपटने के तरीकों की तलाश में कॉप28 को एक आखिरी उम्मीद माना जा रहा था, लेकिन जीवाश्म ईंधन पर स्टॉकटेक की भाषा को एक समझौते के रूप में देखा जा रहा है।
डब्ल्यूएमओ की उपरोक्त रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2011 से 2020 के बीच सार्वजनिक और निजी क्लाइमेट फाइनेंस लगभग दोगुना हो गया है। हालांकि, जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इस दशक के अंत तक इसे कम से कम सात गुना बढ़ाने की जरूरत है। दुनिया ने 2023 में 36.8 बिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित किया है, जो चार दशक पहले की वार्षिक मात्रा से दोगुना है।
इतिहास के आईने में
कॉप28 के घोषणापत्र को ‘यूएई कंसेंसस’ कहा जा रहा है, जो कि एक अनूठी बात है। इससे पहले के सभी डिक्लेयरेशन कॉप के आयोजक शहरों के नाम पर थे। जहां कुछ लोग ‘यूएई कंसेंसस’ में जीवाश्म ईंधन से ‘दूर जाने’ की घोषणा को एक शुरुआत बता रहे हैं, वहीं पहले की क्लाइमेट वार्ताओं में भी कई महत्वपूर्ण घोषणाएं हुई हैं जो अभीतक पूरी नहीं हो पाई हैं। इनमें से कुछ निम्न हैं:
क्योटो प्रोटोकॉल: 1997 में इस वार्ता में पहली बार विकसित देशों ने उत्सर्जन कम करने की प्रतिबद्धता जताई थी, लेकिन तबसे लेकर अबतक उत्सर्जन बढ़ा ही है। और आईईए की रिपोर्ट की मानें तो आनेवाले समय में यह और बढ़ेगा।
कोपेनहेगन 2009: यहां पर अमीर देशों ने विकासशील देशों को एनर्जी ट्रांज़िशन के लिए हर साल 100 बिलियन डॉलर देने की घोषणा की थी। लेकिन 2022 तक वह इस लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाए थे। 2022 में ओईसीडी ने कहा कि अमीर देशों ने 100 बिलियन डॉलर का लक्ष्य हासिल कर लिया है, लेकिन ऑक्सफैम ने बताया कि इसमें से 70% कर्ज के रूप में दिया गया था।
पेरिस समझौता: 2015 के पेरिस समझौते को जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में संयुक्त राष्ट्र की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इसमें 200 देशों ने ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए जरूरी प्रयास करने का वादा किया था। हालांकि कई हालिया अध्ययनों से पता चला है कि यदि मौजूदा स्थिति बनी रही तो जल्दी ही यह सीमा पार हो जाएगी।
इसके अलावा 2021 में ग्लासगो में की गई कोयला कम करने की प्रतिबद्धता पर भी देश कार्रवाई करने में सफल नहीं रहे हैं। वहीं पिछले साल शर्म-अल-शेख में ‘लॉस एंड डैमेज’ फंड पर जो घोषणा की गई उसके कार्यान्वन में एक साल लग गया, और अभी जो प्रतिज्ञाएं की गई हैं वह भी बहुत नाकाफी हैं।
अगला जलवायु महासम्मेलन, यानी कॉप29 अज़रबैजान की राजधानी बाकू में आयोजित किया जाएगा।