- राजाजी नेशनल पार्क के संरक्षण के नाम पर उत्तराखंड के वन गुर्जर समाज को जंगल से दूर किया जा रहा है। विकास के नाम पर की जा रही गतिविधियों से इनके आवागमन के पारंपरिक रास्ते भी अवरुद्ध हो रहे हैं।
- वन गुर्जरों का जंगल से विस्थापन अधिकतर गैर-कानूनी तरीके से किया गया। इससे वन क्षेत्र में इनके हिस्से की जमीन वगैरह छीन गयी।
- जंगल में चल रही विकास परियोजनाओं से वन गुर्जर का पारंपरिक आवागमन का मार्ग तो प्रभावित हुआ ही, साथ ही सड़क निर्माण इत्यादि से वन्यजीवों की जान भी जाने लगी।
जंगल की गोद में जन्मे उत्तराखंड के मसरदीन गुर्जर के ऊपर 20 साल पहले विस्थापन की आफत आई। उन्हें अपना घर-बार छोड़कर गैंडीखाता के वीरान स्थान पर विस्थापित कर दिया गया। विस्थापन ने न सिर्फ उनका घर छीना बल्कि पुरखों से जंगल के बीच रह रहे उनके खानदान से जमीन भी छीन गयी।
विस्थापित होने के दिनों को याद करते हुए मसरदीन बताते हैं, “हमें वहां से हटने पर कुछ ऐसे मजबूर किया गया कि अफरा-तफरी मच गई। कई मवेशी तो रास्ते में ही मर गए। जो बचे उनको रखने के लिए हमारे पास कोई जगह नहीं थी। जमीन के नाम पर बस रहने भर की जगह मिली। हमें आस-पास के क्षेत्र से जलावन के लिए लकड़ियां तक नहीं बीनने दिया जाता था। ऐसे में घर बनाने के लिए लकड़ी मिलना तो दूर की बात थी। हमसे हमारा सबकुछ छीन लिया गया।”
मसरदीन इकलौते नहीं है जिनके साथ यह सब हुआ। उत्तराखंड में ऐसे हजारों वन गुर्जर मिल जाएंगे जिन्हें वन संरक्षण के नाम पर विस्थापित कर दिया गया और वे लोग आज बुनियादी जरूरतों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। आज भी यह सिलसिला जारी है।
वन गुर्जर उत्तराखंड का एक चरवाहा समुदाय है जिन्हें वन्यजीव के संरक्षण के नाम पर विस्थापित करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। उत्तराखंड के राजाजी नेशनल पार्क को संरक्षित करने के नाम पर इसकी शुरुआत 1992 में हुई।
एक तरफ इंसानों को जंगल से विस्थापित किया जा रहा है तो दूसरी तरफ सड़क का जाल बिछाने का काम भी हो रहा है। धार्मिक पर्यटन के लिए भी जंगलों के बीच निर्माण किया जा रहा है। और तो और शिवालिक हाथी रिजर्व से संरक्षित क्षेत्र होने का दर्जा छीनने की तैयारी भी चल रही है।
विडंबना यह कि इन सबके बीच वन गुर्जर समुदाय पर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया जा रहा है। आरोप यह कि इनके मवेशियों के अत्यधिक चरने की वजह से वन क्षेत्र की गुणवत्ता खराब हो रही है।
स्वीडन के लुंद विश्वविद्यालय से सेवानिर्वृत्त वरिष्ठ प्रोफेसर पर्निल गूच ने हिमालय क्षेत्र में चरवाहों का अध्ययन किया है। वह मानते हैं कि जंगल में वन गुर्जर और प्रकृति के बीच जो पारंपरिक सौहार्दपूर्ण संबंध था वही उनका दुश्मन बन गया है। अब उन्हें मौसम के बदलने पर जानवरों के साथ ऊंचाई पर या जंगल की दूसरे छोर पर जाने की इजाजत नहीं होती।
गूच कहते हैं कि ये लोग जीवन तो जी रहे हैं पर वन गुर्जर की तरह नहीं।
अराजक विस्थापन
इनकी बात सही है। वन गुर्जरों की एक पूरी आबादी जंगल से विस्थापित होकर अपनी पहचान खो चुकी है। राजाजी नेशनल पार्क के मोतीचूर और रानीपुर इलाके से 1390 परिवारों को विस्थापित किया गया। उन्हें गैंडीखाता नामक वीरान स्थान पर जमीन के टुकड़े दे दिए गए और उम्मीद की गई कि वे वहीं अपना घर बनाएंगे, पानी का इंतजाम करेंगे और जीविकोपार्जन के नए साधन भी खोजेंगे। पर उन्हें जमीन के उस टुकड़े का मालिकाना हक भी नहीं दिया गया। ऐसे में यह सब कैसे संभव था!
इन परिवारों के अतिरिक्त कुछ 1300 से 1600 परिवारों ऐसे हैं जो नदी किनारे अस्थाई बसेरा बनाकर जीवन काट रहे हैं। उन्हें कहीं कोई जगह नहीं दी गई। या तो उनका दस्तावेज खो गया या घर के मुखिया से कोई गलती हो गयी और आश्रित लोगों की गिनती ही नहीं हो पाई।
जबकि वनाधिकार कानून के धारा चार के अनुसार किसी स्थान को वन्यजीवों के संरक्षण-स्थल की घोषणा करने में स्थानीय समुदाय की सहमति जरूरी है। इसके अलावा वैज्ञानिक तौर पर यह साबित करना होगा कि उस स्थान पर इंसान और वन्यजीव एकसाथ नहीं रह सकते और वन पर अधिकार दिया गया तो वन्यजीवों का अस्तित्व संकट में आ जाएगा।
“वनाधिकार कानून यह नहीं कहता कि वनवासियों का विस्थापन नहीं हो सकता। इसका मकसद कानूनी तौर पर वन्यजीव और इंसानों के साथ रहने और जंगल के संरक्षण की संभावनाओं को तलाशना है। जब कोई और उपाय न बचे तब विस्थापन किया जाए। पर सबकी सहमति से,” शरतचंद्र लेले कहते हैं जो अशोका ट्रस्ट से जुड़े एक पर्यावरण नीति विशेषज्ञ हैं।
इनका कहना है कि वनों को एकदम प्राचीन अवस्था में बनाये रखने का आग्रह अवैज्ञानिक है। यह मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व की संभावना को समाप्त करता है।
जंगल की बर्बादी का आरोपी कौन और सजा किसे!
वन गुर्जर समुदाय पर चारागाह के अत्यधिक इस्तेमाल का यह आरोप सही नहीं है, कहना है मानसी अशर का जो हिमधारा नामक पर्यावरण शोध संस्था से जुड़ी हैं।
“औद्योगिकरण और शहरीकरण की वजह से वन गुर्जर एक सीमित वन के हिस्से में सिमटकर रहे गए हैं, जिससे उन्हें चारे के लिए सीमित स्थान मिलता है। और उनपर चारागाह के अत्यधिक दोहन का आरोप लगता है,” वह कहती हैं। उन्होंने कहा कि वन गुर्जर पर ‘विकास’ और संरक्षण, दोनों की ही मार पड़ी है।
वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया से जुड़े हाथियों के विशेषज्ञ बिभाष पांडव इस मामले में अलग विचार रखते हैं। पलायन करने के पुराने रास्तों के खात्मे पर वह कहते हैं, “वन गुर्जर अब बाजार वाली अर्थव्यवस्था में रस-बस गए हैं। जंगल में रोकटोक उनके लिए एक बहाना भर है। उन्हें मुश्किल पहाड़ियों में खाक छानने के बजाए एक जगह टिक कर लगातार आमदनी की जरूरत है,” उन्होंने कहा।
राजाजी नेशनल पार्क के संरक्षण के लिए वन गुर्जरों को पहली बार साल 2002 में विस्थापन का विकल्प दिया गया था।
परंपरा से वन में रह रहे लोगों पर वन बिगाड़ने का आरोप
पूरे देश में परंपरा से जंगलों में रहने वालों का विस्थापन एक बड़ा मुद्दा रहा है।
वनवासी समुदाय को संरक्षण के लिए विस्थापित होना पड़ता है, लेकिन विकास की परियोजनाओं के मामले में संरक्षण को नजरअंदाज भी किया जाता है। हाल ही में जॉली ग्रांट एयरपोर्ट के विस्तार के लिए उत्तराखंड में शिवालिक एलिफेंट रिजर्व के 5400 वर्ग मीटर इलाके को मिले संरक्षण के दर्जे को हटाने पर विचार किया जा रहा है
ऐसे मामलों की वजह से सवाल उठता है कि क्या संरक्षण की कीमत सिर्फ हाशिए पर खड़े समुदायों को ही चुकानी पड़ती है। राइट्स एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्वभर में 13.6 करोड़ लोगों का विस्थापन संरक्षण की वजह से हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक जैव-विविधता बचाने के नाम पर विस्थापन, मानव अधिकारों का हनन और सशस्त्र हिंसा की जा रही है।
खो दिया चारागाह पर अधिकार
पारंपरिक रूप से चरवाही कर अपना जीवन गुजारने वाले इन वन गुर्जरों से न केवल इनके रहने का स्थान छीन लिया गया बल्कि चरवाही करने की सार्वजनिक जमीन भी इनके हाथ से जाती रही।
उन्हें अपना जीवन दोबारा शुरू करने के लिए जमीन का टुकड़ा दिया गया, जिसपर उनका कोई मालिकाना हक नहीं था।
बावजूद इसके राज्य के दियावली की एक महिला को उम्मीद जताती हैं कि उन्हें भी विस्थापन के बाद नया जीवन मिलेगा।
“जंगलात (वन विभाग) के अधिकारी हमें विस्थापित करेंगे तो हमें खुशी होगी। हमें ऐसा स्थान चाहिए जहां मेरी बेटी की पढ़ाई हो और बाहर की दुनिया से संपर्क के अच्छा साधन हों,” वह कहती हैं।
इन मुद्दों का अध्ययन कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता और विशेषज्ञ मानते हैं कि यह इनका डर है जो सरकार से मिल रहे इस जमीन के साथ जीने के लिए तैयार हो जा रहे हैं। वर्तमान में ये लोग लगातार ऊहापोह की स्थिति में रहते हैं। कब कहां भगा दिए जाएंगे, कोई नहीं जानता।
“अगर आप किसी गुर्जर से उनकी जरूरत पूछेंगे तो वह जमीन मांगेगे। क्योंकि वह काफी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। उनके मवेशियों के लिए मौजूदा संसाधन काफी नहीं है। भैंसों को चराने के उनका पुराना तरीका अब चलन में नहीं है। वे मौसम के साथ जंगल में स्थान बदलकर मवेशी चराते थे, जो कि अब संभव नहीं है,” गूच कहते हैं।
भूमि के कानूनी अधिकारों के बावजूद उत्पीड़न एक कड़वा सत्य है। अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 या वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत, वन गुर्जर को अधिकार है कि वन क्षेत्र, संरक्षित क्षेत्र में अपने मवेशियों को चरा सकें। उपरोक्त कानून में यह स्पष्ट किया गया है कि उन समुदायों को जो पारंपरिक तौर पर घूम-घूमकर चरवाही करते रहे हैं, उन्हें चरवाही के मौसम में यह अधिकार मिलता रहेगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि इन्हें इसकी इजाजत नहीं दी जाती।
वनाधिकार कानून इस उद्देश्य से लाया गया था कि देश में करीब दस करोड़ वनवासियों के साथ हो रहे भेदभाव को खत्म किया जा सके। इसके विपरीत पूरी कोशिश हो रही है कि उन्हें और कमजोर किया जाए, कहते हैं तृषान्त शिमलाई जो कैंब्रिज विश्वविद्यालय से जुड़े हैं और राजनीतिक ईकालजिस्ट है। उन्होंने उत्तराखंड के कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में कमजोर समुदायों के सामाजिक तौर पर अलग-थलग पड़ने का अध्ययन किया है। इनके अनुसार चरवाही के मौसम में वन विभाग निगरानी तेज कर देता है। खासकर उन क्षेत्र में जहां वन गुर्जर और अन्य अनुसूचित जनजाति के लोग मवेशियों को चराने ले जाते हैं।
बढ़ रहा है वन्यजीव और इंसानों का टकराव
वन्यजीवों को पार्क की सीमा में रखना आसान नहीं है। राजाजी नेशनल पार्क के आसपास वन्यजीव और इंसानों के टकराव की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। वर्ष 2016-17 में राष्ट्रीय राजमार्ग 74 पर तेज रफ्तार गाड़ियों की टक्कर से 222 जंगली जानवरों की मौत हो गई। हाथी श्यामपुर जंगल क्षेत्र से निकलकर आबादी वाले इलाके में आ जाते हैं, जहां गन्ने के खेत हैं।
“धान की फसल के बाद यहां गन्ना की खेती की जाती है। हाथी 15 दिन में एक चक्कर लगा ही जाते हैं,” इलाके के किसान बहुगुणा जीवन ने बताया। इनको डर है कि हाथियों का चक्कर बढ़ने की वजह से भविष्य चारागाह की जमीन पर किसानो का हक समाप्त न हो जाए।
“यह इलाका पहले से ही बफर जोन घोषित किया गया है। अगर कभी वन विभाग यहां से गुर्जरों को विस्थापित करेगा, तो इंसान और मवेशी की कमी की वजह से यहां हाथियों का चक्कर बढ़ जाएगा। इससे खेती को नुकसान होगा,” वह कहते हैं।
बड़ा सवाल: संरक्षण किसके लिए!
इन सारी स्थितियों को देखते हुए जो सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि यह संरक्षण किसके लिए किया जा रहा है। क्या उन पर्यटकों के लिए है जो सड़कों और हवाई अड्डों का इस्तेमाल करते हुए इन वनों में घूमने आते हैं। उस सड़कों और हवाई अड्डों का इस्तेमाल जो जंगल को तहस-नहस करके बनाये जा रहे हैं। क्या प्रकृति केवल एक देखने और तारीफ करने की चीज है? या वन गुर्जर या संरक्षित क्षेत्रों के पास के खेती-किसानी करने वाले समुदायों को अपने समाहित कर आगे बढ़ने की चीज है? ये वो लोग हैं जिन्होंने इन जंगलों को सदियों से बचा कर रखा है।
” यह अजीब बात है कि वर्षों से वन गुर्जरों के जंगल पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करने वाले और इसके खिलाफ आवाज उठाने वाले पारिस्थितिकीविद् और संरक्षण जीवविज्ञानी आज जब जंगलों में सड़क, हवाई अड्डे बनाये जा रहे हैं, बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण की जा रही, तब सब के सब चुप्पी साधे हुए हैं,” कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सिमलाई कहते हैं।
ये स्टोरी मोंगाबे हिन्दी से साभार ली गई है।
आपको यह भी पसंद आ सकता हैं
-
‘जंगलों के क्षेत्रफल के साथ उनकी गुणवत्ता देखना बहुत ज़रूरी है’
-
भारत के नेट जीरो लक्ष्य पर कोयला आधारित स्टील निर्माण का खतरा: रिपोर्ट
-
सिर्फ जीवित रहना काफ़ी नहीं: भारत के शहरों को अधिक बेहतर बनाने की ज़रूरत
-
प्लास्टिक संधि पर भारत की उलझन, एक ओर प्रदूषण तो दूसरी ओर रोज़गार खोने का संकट
-
बाकू में खींचतान की कहानी: विकसित देशों ने कैसे क्लाइमेट फाइनेंस के आंकड़े को $300 बिलियन तक सीमित रखा