नंबरों का खेल

नंबरों का खेल: भारत ने जंगल में बढ़ोतरी के जो आंकड़े दिये हैं उसे लेकर जानकारों को काफी शंकायें हैं। फोटो: Mongabay

जंगल बढ़ने के सरकारी दावे पर जानकारों ने उठाये सवाल

सरकार ने पिछले हफ्ते  “इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट – 2019” जारी की। उसके मुताबिक देश में फॉरेस्ट (जंगल) और ट्री कवर (वृक्षारोपण) में कुल 5,188 वर्ग किलोमीटर का इज़ाफा हुआ है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) हर दो साल में यह रिपोर्ट जारी करता है। इसके लिये उपग्रह से मिली जानकारी (रिमोट सेंसिंग) और ज़मीन पर मुआयना करवाया जाता है। हालांकि जानकार जंगल मापने के तरीके और सरकार द्वारा दिये गये आंकड़ों पर सवाल उठाते रहे हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक फॉरेस्ट और ट्री कवर मिलाकर देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 25% हो गया है। वन और पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत उन गिने-चुने देशों में है जहां जंगल बढ़ रहे हैं।    सरकार 1 हेक्टेयर से अधिक इलाके में 10% से अधिक घनत्व (ट्री-कैनोपी) वाली हरियाली को फॉरेस्ट कवर मानती है। जंगल को विरल, मध्यम और सघन  वर्गों में बांटा गया है। रिपोर्ट बताती है कि फॉरेस्ट कवर 7,12,249 वर्ग किलोमीटर हो गया है जो कि देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.67% है वहीं ट्री कवर 95,027 वर्ग किलोमीटर है जो कि देश के कुल क्षेत्रफल का 2.89% है।  फॉरेस्ट और ट्री-कवर मिलाकर 2017 के मुकाबले कुल 0.65% (5,188 वर्ग किलोमीटर) की वृद्धि दर्ज की गई है। इसके अलावा समुद्र तट और खारे पानी में उगने वाले मैंग्रोव का कुल क्षेत्रफल बढ़कर अब करीब 5,000 वर्ग किलोमीटर हो गया है।

सरकार कहती है कि जंगल की पैमाइश सैटेलाइट से मिली जानकारी (रिमोट सेंसिंग) से होती है लेकिन उसकी जांच ज़मीनी तौर पर भी कराई जाती है। लेकिन जानकार को सरकार के तरीकों पर आपत्ति है।

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (CPR) की सीनियर फेलो कांची कोहली ने समाचार वेबसाइट सत्याग्रह को बताया, “जंगल और ट्री-कवर को मापने में सरकार कई महत्वपूर्ण मानकों की अनदेखी करती रही है।”  कोहली के मुताबिक सरकार इस बात को संज्ञान में नहीं लेती कि जंगल और जंगल के बाहर वृक्षारोपित भूमि का इस्तेमाल और प्रबंधन कैसे हो रहा है। कांची का ये भी कहना है कि फॉरेस्ट सर्वे की गणना का तरीका पेड़ों का घनत्व भले ही दिखाता हो लेकिन जंगल की गुणवत्ता का आंकलन नहीं करता या अपनी रिपोर्ट में इसके बारे में नहीं बताता।

सत्याग्रह में छपी इस रिपोर्ट में कांची कहती हैं “ऐसा लगता है कि हर दो साल में आंकड़ों का एक खेल हमारे सामने रखा जाता है लेकिन पिछले कई सालों से देखा जाये तो चाहे वह वैज्ञानिक हों, चाहे समाज विज्ञानी हों चाहे सामुदायिक काम में लगे समर्पित लोग हैं वो सभी लगातार पूछ रहे हैं कि आप (फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के कर्मचारी) यह गणना करते कैसे हैं? सवाल यह है कि सरकार ज़मीन पर पूरी परिस्थिति का मुआयना नहीं करती है। सिर्फ पेड़ों का खड़ा होना ही स्वस्थ या पर्यावरण के लिये लाभदायक जंगल का प्रमाण नहीं है।”

साल 2019 के पहले 6 महीनों में विकास कार्यों के लिये वन भूमि को दिये जाने के करीब 99 प्रतिशत प्रस्तावों को हरी झंडी मिली। मोदी कार्य काल के दौरान उत्तराखंड में चार धाम यात्रा मार्ग के लिये 1 लाख से अधिक पेड़ों को काटा गया है। इसी जंगल में आग की घटनाओं को लेकर भले ही सरकार ने 20 प्रतिशत कमी का दावा किया हो लेकिन साल 2017 में ही जंगल में आग की 35888 घटनायें हुईं है। इस साल भी गर्मियों में उत्तराखंड और देश के अन्य हिस्सों में जंगल कई हफ्तों तक धू-धू करते जलते रहे। 

असल में फॉरेस्ट की लड़ाई अंतरराष्ट्रीय मंच पर किये गये उस वादे से भी जुड़ गई है जहां हर देश को एक कार्बन सिंक बनाना है। भारत का वादा 2030 तक करीब 300 करोड़ टन कार्बन सोखने लायक जंगल लगाने का है। लेकिन अंग्रेज़ी अख़बार बिजनेस स्टैंडर्ड में जनवरी 2019 को छपी यह रिपोर्ट बताती है भारत ने जब वन क्षेत्रफल के आंकड़े संयुक्त राष्ट्र में जमा किये तो उन्हें पारदर्शिता के पैमाने पर खरा नहीं पाया गया।

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